दया भी-प्रताड़ना भी

September 1988

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दया और क्षमा को उदारता का द्योतक माना गया है। इन गुणों की प्रशंसा भी बहुत होती है। जो इन्हें चरितार्थ कर पाते हैं उन्हें विशाल हृदय का समझा जाता है और संत सज्जनों में गिना जाता है। इतने पर भी यह समझने योग्य तथ्य है कि क्या हर किसी के साथ वही व्यवहार किया जा सकता है? क्या उसके फलस्वरूप हर कोई हृदय परिवर्तन कर सकता है सुधर कर वैसा ही बन सकता है जैसा कि क्षमाशील ने चाहा था।

यहाँ पात्रता को परखने का प्रसंग आता है। समान प्रवृत्ति के लोग नहीं पाये जाते हैं उनमें से कुछ विचारवान, संवेदनशील होते हैं कुछ इतने निष्ठुर होते हैं जिन्हें पाषाण से भी अधिक निर्मम कहा जा सकता है। संवेदनशील ही सज्जनता से प्रभावित होते हैं और उपकार से प्रभावित होकर अपने को बदलने की बात सोचते हैं। कई बार ऐसा देखा भी गया है कि सद्व्यवहार से प्रभावित होकर कुछ दुर्जनों ने अपना रवैया बदला, पर यह अपवाद स्वरूप ही होता है। दुष्टता पर उतारू प्रायः वे ही होते हैं जिनकी भाव संवेदना गुम गई। वे निष्ठुर निर्दयता के अभ्यस्त हो जाते हैं। कसाई को पेशा जिनके यहाँ पीढ़ी दर पीढ़ी से चला आता है, जिनका जन्म और भरण पोषण निष्ठुरता भरे वातावरण में हुआ है। उनकी कुसंस्कारिता सहज रूप से इतनी परिपक्व हो जाती है कि उसे सत्परामर्शों से बदला-सुधारा जाना कदाचित ही कभी संभव होता है। ऐसा परिवर्तन यदि कभी दीख पड़े तो उसे अपवाद ही समझना चाहिए। ऐसे दुष्ट प्रकृति के लोग दया को दुर्बलता, भीरुता, कायरता के अर्थ में लेते हैं। सोचते हैं कि शक्ति या साहस न होने के कारण ही आक्रमण करने पर मौन साध लेने का अर्थ मात्र यह निकालते हैं कि अपनी जान बचाने के लिए गिड़गिड़ाया भर जा रहा है। अन्यथा अनीति का प्रतिरोध करना मानवी गरिमा के प्रतिकूल नहीं अनुरूप है। यदि क्षमा आततायियों पर भी लागू होता तो लंका दमन और महाभारत के सरंजाम न जुटे होते। अवतारों में से प्रत्येक ने धर्म स्थापना के साथ अधर्म उन्मूलन के लिए अनाचरण के दमन का प्रयोग प्रयत्न न किया होता।

वह कहानी सर्व-प्रसिद्ध है जिसमें एक साधु ने जल में बहते बिच्छू को दया वश बार-बार निकाला था और उसने उसे बार-बार डंक मार कर पीड़ित किया था। इस उदाहरण से व्यक्ति विशेष की सज्जनता का भान होता है पर उस समस्या का तनिक भी समाधान नहीं होता जिससे बिच्छुओं द्वारा अनेक निर्दोषों को आये दिन काटा और संत्रस्त किया जाता है। जुएँ, चींटी, खटमल, पिस्सू, मक्खी, मच्छरों से पीछा छुड़ाने के लिये उनके साथ कड़ाई भी बरतनी पड़ती है। शरीर पर आक्रमण करने वाले विषाणुओं को सूर्यताप से या औषधि उपचार से मारा न जाय तो उसका परिणाम उन बालकों को या बीमारों के लिये प्रायः घातक ही सिद्ध होंगे जिन पर रोगों का आक्रमण हो चुका है।

दया अच्छा सद्गुण है। क्षमा इस मनोभूमि का परिचय देता है कि व्यक्तिगत लाभ-हानि की अपेक्षा दूसरे के प्रति उदार आत्मीयता का परिचय दिया गया। घर परिवार इसी आधार पर चलते हैं। मैत्री इसी आधार पर निभती है। सामुदायिक सद्-भावना की अभिवृद्धि इसी आधार पर बढ़ती है। इसलिए इस प्रवृत्ति की सराहना तो की ही जायगी साथ ही अपकारी के प्रति ‘क्षमा करो और भूल जाओ ‘ की उदारता अपनाने के लिए भी मोटे तौर पर परामर्श दिया जायगा। आक्रमण का प्रतिशोध लेने पर उतारू होने पर वह कुचक्र चलता ही रहेगा। आक्रोश का प्रतिशोध और प्रतिशोध का फिर प्रतिशोध यह श्रृंखला अनंत काल तक चलती रहे तो फिर दोनों पक्षों का विनाश ही होकर रहेगा। इसलिए विष बेल को जड़ से या मध्य से काट देने का ही परामर्श दिया जायगा। सौजन्य यही है।

इतने पर भी पात्रता और प्रतिक्रिया को ध्यान में रखना ही होगा। यदि कुसंस्कारी, कुपात्रता इस सीमा तक बढ़ गई है कि सज्जनता का मूल्याँकन ही नहीं करती और उसे दुर्बलता, कायरता समझ कर झुकने के स्थान पर दूनी चौगुनी अकड़ती है तो फिर तरीका स्थिति के अनुरूप अपनाना पड़ेगा। असुरता को यदि नम्रता से झुकाया जा सका होता तो उसमें राम सफल हो गये होते और जैसे को तैसा की नीति न अपनाते। जानवरों को लाठी के सहारे चलाने की आवश्यकता न पड़ती। विनय और अनुरोध द्वारा उन्हें सीधे मार्ग पर चलने के लिए सहमत कर लिया गया होता। लगाम, नकेल, नाथ, अंकुश आदि के प्रतिबंध लगाने-खूँटा गाढ़ कर रस्से के सहारे सीमित क्षेत्र में रहने से पूर्व ही पशु वर्ग को धर्मोपदेशों, अनुरोधों, तर्कों द्वारा अपनी मर्यादा में रखना संभव हो गया होता।

धर्मोपदेशों की महिमा को कम नहीं किया जा रहा है। दया, धर्म को चरितार्थ करने से किसी को रोका नहीं जा रहा है। पर यह स्मरण तो दिलाना ही होगा कि यह व्यवहार विचारशीलों, मानवी पुरुषों से परिचित लोगों के साथ ही बरता जाना चाहिए। हर पात्र कुपात्र के साथ एक जैसा नीति नहीं अपनाई जानी चाहिए। यदि सज्जनता सर्वजनीन रही होती तो नीतिकारों को साम, दाम, दंड, भेद के विभिन्न उपचारों का प्रतिपादन न किया होता। तब दया, धर्म से ही काम चल गया होता और पुलिस कचहरी, जेल, फाँसी आदि के अनुबंधों की राजदंड में व्यवस्था न रही होती।

स्वास्थ्य रक्षा के नियमोपनियम सीखने सिखाने की आवश्यकता अपनी जगह महत्वपूर्ण है। सभी नियम संयम बरतें तो रोग उभरने की पृष्ठभूमि ही न बने किन्तु यदि किसी कारण विषव्रण उठ ही खड़ा हुआ है और संयम बरतने की शिक्षा से कोई काम चल नहीं रहा है तो गहरे आपरेशन की आवश्यकता पड़ेगी ही। मवाद निकाल बाहर किये बिना भयंकर पीड़ा उठती रहेगी। इतना ही नहीं सड़ा हुआ भाग निकटवर्ती स्वस्थ अंगों को भी सड़ाकर उस स्थिति तक पहुँचा देगा कि उस विकृति के सारे क्षेत्र को काटकर अलग करना पड़े। आततायियों को प्रताड़ना के अतिरिक्त और किसी उपाय से रोका नहीं जा सकता। दया करने से तो उनकी उद्दंडता दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ेगी। साँप को दूध पिलाने पर उसका विष बढ़ता है और पिलाने वाला तक जोखिम में पड़ता है।

दया अपने स्थान पर एक पक्ष है। दूसरा उसी के समतुल्य प्रताड़ना दूसरा पक्ष। दोनों का ही उपयोग विनयपूर्वक पात्रता देखते हुए और प्रतिक्रिया की संभावना का अनुमान लगाते हुए ही किया जाना चाहिए। अग्नि और जल दोनों ही अपने-अपने स्थान पर सही हैं। दाह को मिटाने के लिए जल का उपयोग करना पड़ता है। किन्तु कचरे को जलाने के लिए आग की भी आवश्यकता है अन्यथा सड़न की गंदगी समूचे वातावरण को प्रदूषण से भर देगी। शीत निवारण के लिए जल की नहीं अग्नि की आवश्यकता पड़ती है। दया जल है, आक्रोश अग्नि दोनों का यथा-स्थान उपयोग करने की बुद्धिमत्ता अपनाना ही व्यावहारिक है। यदि भेड़ियों पर दया दिखाते रहा जाय तो उनके झुण्ड बढ़-कर गाँव में आतंक मचा देंगे और किसी दुर्बल प्राणी को जीवित न रहने देंगे। वे दया और क्षमा की भाषा समझते ही नहीं। जो जिस भाषा का अभ्यस्त है उसे उसी का प्रयोग करके औचित्य अपनाने के लिये सहमत किया जा सकता है।


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