व्यक्तिवाद और अनौचित्य का संकट

September 1988

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सैन्य अनुशासन की इसलिए प्रतिष्ठा की जाती है कि उस समुदाय में सभी को एकता, समस्वरता, सहकारिता जैसी सत्प्रवृत्तियों का पल-पल परिचय देना पड़ता है। सभी की वर्दी एक जैसी होती है। सभी को भोजन साथ-साथ करना पड़ता है।सभी कदम से कदम मिलाकर चलने के आदि होते है। किसी को व्यक्तिगत आपाधापी करने की छूट नहीं होती। नियम अनुबंधों का पूरी तरह परिपालन करने के लिए सभी को प्रशिक्षित एवं अभ्यस्त किया जाता है। मनमर्जी चलाने की अनुबंधों को तोड़ने की, निर्धारित कर्तव्यों के परिपालन में आना कानी करने के लिए किसी को भी स्वच्छन्दता प्राप्त नहीं होती। प्रकारान्तर से यही समाजवाद की आरम्भिक शिक्षा हैं।

इस अनुशासन में स्वच्छता, सुव्यवस्था बरतने के लिए हर सदस्य को आदत डालनी और सतर्कता बरतनी पड़ती है। कोई भी मैला कुचैला नहीं रह सकता। कसी के भी कपड़ों में सिलवट, सिकुड़न नहीं होती, दाग-धब्बे वाले पोशाक कोई नहीं पहन सकता। चलने में पंक्तिबद्ध चलने का क्रम अपनाना पड़ता हैं। सीना तानकर चलना पड़ता है। बुड्ढों की तरह कमर झुकाकर चलते हुए उनमें से किसी को भी नहीं देखा जाता। यह सतर्क अनुशासन और जागरुक व्यक्तित्व के लक्षण है। जिन्हें सामान्य नागरिकों को भी अपने व्यक्तिगत जीवन में अनुकरणीय आदर्श मानकर अपनाना चाहिए। इस संगठन में किसी को भी स्वेच्छाचार बरतने का मन भर साहस नहीं होता। उच्छृंखलता का आभास मिलते ही बड़े साहब के आगे पेशी होती हैं और भविष्य में वैसा न करने की कड़ी चेतावनी के साथ आवश्यक प्रताड़ना भी मिलती है।

सभ्य नागरिकों में से प्रत्येक को अपना व्यवहार इसी प्रकार से स्वेच्छापूर्वक रखना चाहिए। यह नागरिक कर्तव्यों का अनुशासन है जो सच्चे अर्थों में मनुष्य कहलाने वाले प्रत्येक व्यक्ति को अपनी गतिविधियों में समाविष्ट करना ही चाहिए। प्रयत्न यही होना चाहिए कि परिधान आच्छादन निर्वाह सजधज के सभी एक जैसे रहें ऐसी मन मर्जी न बरतें, जिसमें स्वेच्छाचार अपनाने का लाँछन लगे।

दुर्गुणों में सर्वप्रथम हैं संकीर्ण स्वार्थपरता की कीचड़ से सना हुआ “व्यक्तिवाद” इसी से प्रेरित होकर लोग अपने आप को सार्वजनिक स्तर में संतुष्ट न रख कर अपने लिए विशेष सुविधाएं चाहते है। बड़प्पन व प्यार में शेखी जताने, विशिष्ट सिद्ध करने के लिए चित्र-विचित्र पाखंड रचते हैं। कीमती पोशाकें पहनते है। श्रृंगार से सजाते है। ठाठ-बाठ रोपते हैं। फिजूल खर्ची में धन जुटा कर अपनी अमीरी का ढिंढोरा पीटते है। औसत निर्वाह में संतुष्ट न रहकर किसी भी प्रकार अपनी सम्पन्नता विशेषता जताने के लिए महंगे आडम्बर अपनाते है। इस उद्धतपन के लिए आकुल व्याकुल रहने वाले महत्वाकांक्षी अपनी हविस पूरी करने के लिए अनाचार अपनाते आक्रामक बनते है। और अपराध स्तर की गतिविधियाँ बिना हिचक अपनाते है। अवाँछनीयताएं तो पहले ही आरम्भ होती है।अनौचित्य भले पाप पुण्यों का सिलसिला यही से चलता है। पतन और कुछ नहीं बढ़े चढ़े व्यक्तिवाद का ही सामान्य प्रतिफल है।इस उन्माद से पीड़ित व्यक्ति जो कुछ बुरे से बुरा कर गुजरे वही कम हैं।

होना यही चाहिए कि व्यक्ति अपने आप को समाज के एक अविच्छिन्न और सामान्य घटक मात्र समझे। सब की उन्नति में अपनी उन्नति समझे। महत्वाकांक्षाओं की साधारण साधना के साथ न जोड़े और यह आकाँक्षा संजोये रखे कि आदर्शों के परिपालन में अपने को हर किसी से आगे रखना है। सामूहिक उन्नति को ही अपनी उन्नति मानना हैं। यही मनोवृत्ति और रीति नीति अपनाना सच्चे अर्थों में धार्मिकता या आध्यात्मिकता हैं। लोक व्यवहार की भाषा में इसी को समतावाद, समाजवाद,

आदि नामों से पुकारा और सराहा जाता हैं। इस नैतिक अनुशासन में बंधने पर हर किसी को समाजनिष्ठ बनना पड़ता हैं। सार्वजनिक हित को सर्वोपरि मानना पड़ता है। भले ही इसमें अपने को सामान्य बनकर रहना पड़ता हो। चतुर कहे जाने वाले स्वार्थियों की तुलना में घाटा स्वीकार करना पड़ता है। पाप छोड़ने और पुण्य परमार्थ अपनाने की बात इसी प्रकार बन पड़ती हैं कि व्यक्तिवाद पर और अधिकाधिक कड़ा अंकुश लगाया जाये, और लोकहित के लिए सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए जितना अधिक उदार साहस अपनाया जा सके, उतना अपनाकर दिखाया जाये। मर्यादाओं और वर्जनाओं की उपेक्षा करने, मनमौजी उद्दंडता अपनाकर असामाजिकता पर उतारू होना, यही पाप की एकमात्र परिभाषा हैं। इसी को अन्याय कहते हैं। जो उसे अपनाते हैं उसे मानवी गरिमा से रहित या पतित कहा जाना चाहिए। उसकी भर्त्सना ही की जानी चाहिए भले ही उसने कितनी ही बड़ी सफलता पाई या कितनी ही अधिक सम्पदा एकत्रित क्यों न की हो। व्यक्तिगत जीवन में, समाज परिकर में अनेक प्रकार के विग्रह संकट और अनाचार खड़े करने का अपराधी व्यक्तिवाद को ही माना जाना चाहिए।

जो जितना अधिक खुदगर्ज हैं। समझना चाहिए कि वह सभ्य समाज का सदस्य कहलाने से उतना ही दूर हैं। मनुष्य सामाजिक प्राणी हैं, उसकी समस्त सुविधाएं, विशेषताएं, उपलब्धियाँ सार्वजनिक सहयोग से ही उपलब्ध हुई हैं। इतने पर भी लोकहित की उपेक्षा करने वाले को कृतघ्न ही कहा जायेगा। स्वार्थपरता की सघनता ही मनुष्य को निष्ठुर, कृपण, अनाचारी बनाती हैं। ऐसों को नर पशु से अधिक कुछ नहीं माना जा सकता भले ही वह बड़प्पन के कितने ही बड़े सरंजाम क्यों न जुटा चुका हो। समता, समस्वरता, शालीनता, सज्जनता इसी में है कि व्यक्ति समाजनिष्ठ होकर जिये। अपनी विभूतियों का लोक हित में उत्सर्ग करें। व्यक्तिवाद के विष वृक्ष से अनेकों शाखा प्रशाखाएँ फूटती और दृष्प्रवृत्तियों की अगणित पत्तियाँ निकलती है। अहंकार, अनाचार, अपव्यय, लालच, संग्रह आत्म विज्ञापन, आलस्य, प्रमाद, विलास आदि की उत्पत्ति कर उद्गम आदर्शों की अवमानना ही हैं। इसी कारण व्यक्ति निष्ठुर बनता हैं। कृतघ्नता अपनाता हैं। उदार व्यवहार, सहयोग, सहकार के अवसर आने पर बगलें झांकता हैं। ऐसी दशा में चिन्तन, चरित्र, और व्यवहार में शालीनता जुड़ ही नहीं पाती। दुर्भाग्य से हमारे दर्शन और इतिहास में भी वैज्ञानिक सुख सुविधा, स्वार्थ मुक्ति, सिद्धि, दैव अनुकम्पा आदि की ही विशेष रूप से चर्चा है। सामाजिकता की उपेक्षा जब से की जाने लगी तभी से विगठन अनेक रूपों में प्रकट होते गये। आर्थिक आधार को लेकर अनेकों संगठन बनते हैं। अनाचारी षड़यंत्रों का गिरोह बंदी के आधार पर व्यवसाय चलता हैं। पर उदारचेता सज्जन इसके लिए कोई सुदृढ़ संगठन नहीं बना पाते कि सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धन और दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन व्यापक रूप से संभव हो सके। इसी कमी के कारण देवता असुरों से हारते हैं। आज भी अनाचारी जीत बोलते और सदाचारी हाथ मलते, पराभव पाते दीख पड़ते हैं।

व्यक्ति की सत्ता और महत्ता यदि सद्भावना और न्याय व्यवस्था की पक्षधर रही होती तो अतीत का सतयुग अभी भी बना होता। धरती पर स्वर्ग का वातावरण होता और जन-जन को ऐसा देव जीवन जीते देखा जाता जो स्वयं सुख शान्ति से उल्लासित रहता और दूसरों को ऊंचा उठाने आगे बढ़ाने के लिए ऐसा कुछ करता रहता जिससे यह स्नेह सौजन्य सहयोग के आन्तरिक वैभव और अभ्युदय की भी कमी न रहती। यह आस्था संकट ही हैं जिसके कारण समूह का अंग बन कर रहना और सार्वजनिक प्रगति की व्यवस्था बन पड़ने में पग-पग पर व्यवधान मजबूरी वश देखना पड़ता है। इस संकट से निपटने के लिये हमें लोक मानस का बहिष्कार करने के लिये नये सिरे से नये-नये प्रयत्न करने की आवश्यकता पड़ेगी। प्रचलित चिन्तन को असाधारण मोड़ देना पड़ेगा।

आस्था क्षेत्र का दूसरा संकट हैं- अनौचित्य को सहन करते और अपनाते रहना। प्रचलित मान्यताओं, प्रथा, परम्पराओं में से अधिकाँश ऐसी है जो न्यायानुमोदित नहीं हैं। उनके पीछे तर्क, तथ्य, प्रमाण के ऐसे आधार नहीं हैं जिनके सहारे उन्हें अनुचित ठहराया जा सके। फिर भी अभ्यास में आने के कारण न केवल उन्हें सहन किया जाता रहता हैं वरन् उचित जैसी लगने के कारण आग्रह पूर्वक समर्थन भी किया जाता रहता हैं। कितनी ही मूढ़ मान्यताएं ऐसी ही हैं। अन्य विश्वासों की कोई गणना नहीं। कुरीतियों की हानियां सुनते समझते रहने पर भी लोग उनके साथ बुरी तरह लिपटे रहते हैं। तर्क, तथ्य प्रमाण, उदाहरण उनका समर्थन नहीं करते फिर भी परम्परा इसी को अपनाये रहने की आदत आवश्यक परिवर्तन को भी अंगीकार करने के लिए सहमत नहीं होती।

उदाहरण के लिए जाति-पाँति के आधार पर चलने वाली ऊंच-नीच मान्यताएं का न तो तर्कों के आधार पर समर्थन हो सकता हैं और न न्याय की कसौटी पर वह प्रथा सही सिद्ध हो सकती हैं। फिर भी जाति उपजातियों के आधार पर चलने वाली ऊंच-नीच की मान्यता उन लोगों के भीतर भी किसी कदर जमी होती हैं। जो प्रत्यक्षतः उसे अमान्य ठहराने के लिए बड़ी-बड़ी बातें कहते रहते हैं। जातिवाद ने राजनीति से लेकर अर्थनीति तक में अपनी जड़े जमा ली हैं। सामाजिक बुराई तो वह है ही उसे विघटन का एक बड़ा कारण माना जा सकता है। और प्रगति पथ पर अड़ा हुआ एक भारी चट्टान जैसा अवरोध।

नर वशिष्ठ और नारी कनिष्ठ मानने की मान्यता भी ऐसी ही हैं। जिसका कोई औचित्य नहीं। आधी जनसंख्या को इसी आधार पर शोषित और गुलाम बनकर रहना पड़ता हैं। आधी जनसंख्या अपने को उनका अधिपति मानती और मनमाने दुर्व्यवहार करते रहने को अपना अधिकार जताती है। मनुष्य जाति के दोनों पक्ष अविच्छिन्न रूप से एकता और समता की धुरी से जुड़कर गाड़ी के दो पहियों की तरह सच्चे अर्थों में प्रगति पथ पर अग्रसर होते हैं पर देखने में कुछ और भी आता हैं। उनके बीच अघोषित शोषक और शोषित का स्वरूप ही प्रथा प्रचलन में सम्मिलित हैं।

मुहूर्तवाद, भाग्यवाद, ज्योतिष, फलादेश, जादूटोना, देवदर्शन, चित्र-विचित्र, कर्मकांडों का कोई तथ्यपूर्ण आधार नहीं बन पड़ता फिर भी अधिकाँश लोग उसको अपनाकर ही चलते देखे जाते हैं। आहार-विहार के क्षेत्र में हमारी अधिकांश आदतें ऐसी हैं जिन्हें स्वास्थ्य संतुलन और अर्थ व्यवस्था की दृष्टि से हानिकारक ही माना जाएगा। नशेबाजी, माँसाहार, कपड़ों से लदे रहने, सौंदर्य प्रसाधनों पर समय और धन खर्चने जैसी बातों को यदि उपयोगिता की कसौटी पर कसा जाय तो व सर्वत्र निरर्थक ही सिद्ध होती हैं। फिर भी आदत से मजबूर होकर किसी न किसी प्रकार उन्हें अपनाते रहते हैं। सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद आदि के नाम पर चलने वाले विभेदों, विग्रहों के पीछे भी कोई तथ्य पूर्ण आधार का कारण नहीं खोजा जा सकता।

इन दिनों मानव जीवन बुरी तरह अवाँछनीयता और कृत्रिमताओं से जकड़ा हुआ हैं। उनमें न्याय नीति के प्रति भी अवमानना और उपेक्षा का भाव देखा जाता है। शिष्टाचार छोड़ा और स्वेच्छाचार अपनाया जा रहा हैं। दूसरों के साथ व्यवहार करते समय यह भुला दिया जाता है कि अपने को यदि दूसरे की स्थिति में रहना और वह सब सहन करना पड़ता तो कैसा लगता? अधिकाँश अनाचार इसीलिए पनपते हैं कि लोग अपने लिए मनमर्जी बरतने की छूट चाहते है और दूसरों के अधिकारों के हनन की जरा भी परवाह नहीं करते। पशु पक्षियों के साथ हमारा व्यवहार प्रायः ऐसे ही अनाचार पर अवलम्बित होता हैं। माँसाहार के अपनाने के लिए असाधारण स्तर की निष्ठुरता भी अपनानी पड़ती हैं। कोई यह नहीं सोचता कि वध किये जाने वाले प्राणी के स्थान पर यदि हम रहे होते तो कैसा लगता। चोरी, ठगी, प्रपंच, अन्याय, शोषण पर आधारित अनेकानेक अपराधों के पीछे अनौचित्य को सहन समर्थन करने अपनाने का भव ही काम करता रहा है। इस कारण सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक क्षेत्र में अनेकानेक दुष्प्रवृत्तियां उपजी और आँधी तूफान की तरह बढ़ी हैं।

युग विभीषिकाएं एकता और समता पर आधारित सद्भावनाओं का परित्याग करने से ही उत्पन्न हुई है। इसी प्रकार “व्यक्तिवाद” और “अनौचित्य” को प्रश्रय देने में दुष्प्रवृत्तियों का विस्तार हुआ हैं। जो हर किसी के लिये हर प्रकार दुष्परिणाम ही प्रस्तुत करता हैं। इन्हीं के कारण वायुमंडल और वातावरण विषाक्त हुआ हैं। प्रकृति को कुपित होकर सर्वनाशी संकट उत्पन्न करने के लिए बाधित किया हैं। मानवी चिंतन साँसारिक व्यवस्था को ही नहीं प्रकृति संतुलन को भी बिगाड़ती हैं। इस समय के प्रस्तुत घटाटोप से बचना हो तो उनके मूल कारण मानव चिन्तन और व्यवहार में क्रान्तिकारी परिवर्तन करने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं।


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