ध्यान धारणा का स्वरूप और उद्देश्य

September 1988

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ध्यान धारणा के अनेकानेक प्रकार और प्रयोग हैं। उनमें से किसी को अपनाने से पूर्व उसकी प्रक्रिया और परिणति के संबंध में गंभीरता पूर्वक विचार कर लेना चाहिए। अन्ध श्रद्धा से प्रेरित होकर किसी तथा कथित मार्गदर्शक के कथन, प्रोत्साहन को आंखें बन्द करके अपना नहीं लेना चाहिए। अन्यथा अनुपयुक्त चयन हानिकारक भी हो सकता है। जिस लाभ की कल्पना की गई थी। उसका मिलना तो दूर उलटे हानिकारक परिस्थितियों में फंसना पड़ सकता है।

ध्यान के प्रथम चरण में साधक को अपना समर्पण भाव इष्ट के साथ तादात्म्य करना पड़ता हैं। द्वैत को अद्वैत में बदलना पड़ता है। एकत्व को अछैत के स्तर तक पहुँचना पड़ता है। ईंधन आने को आग में झोंकता है तो वह कुछ ही देर में अग्नि रूप हो जाता है। इष्ट के साथ तादात्म्य स्थापित करने पर उस दिव्य केन्द्र की दिव्य-क्षमता का अवतरण साधक की समग्र सत्ता में होने लगता है। समर्पण की प्रतिक्रिया अवतरण है। रबड़ की गेंद जिस कोण से जिस स्थान पर जितने जोर से फेंकी जाती है। वह लक्ष्य से टकराने के बाद उतनी ही तेजी से उसी मार्ग से वापस लौटती है। ध्यान के साथ जुड़ी हुई श्रद्धा शक्ति बनकर प्रयोक्ता के पास शब्द बेधी बाण की तरह वापस लौटती है। लौटते समय वह अधिक परिष्कृत स्तर की होती है। उसमें इष्ट की विशेषता भी जुड़ी होती है। इसका प्रयोग किस हेतु किया जाय यह निर्णय करना साधक की अपनी विवेक बुद्धि पर निर्भर है। भागीरथ, पार्वती, दधीचि, विश्वामित्र वशिष्ठ आदि ने अपनी तपश्चर्या का प्रतिफल पुण्य प्रयोजनों के लिए किया था।

आमतौर से देवी देवताओं के ध्यान नहीं किए जाते है। आध्यात्मिक साधना में वही पुरातन प्रचलन है। पर देव वर्ग में से किसी को चुनने से पूर्व यह निरख–परख कर लेना चाहिए कि उपास्य की प्रकृति क्या है। अनेक देवी देवता तमोगुणी भी है। उनका स्वभाव, व्यवहार, प्रयास, चरित्र, जैसे पक्षों में अनैतिकताओं की भरमार होती है। इसमें से कई माँसभोजी, आक्रमणकारी युद्ध प्रिय होते हैं। उनकी उपासना साधक में उन्हीं दुर्गुणों का आविर्भाव करेगी। कुछ दिन में उसकी प्रकृति में उन्हीं दुर्गुणों की भरमार होने लगती है। तंत्र साधना में यही होता है और उस आधार पर मिले अनुदानों को मारण, उच्चाटन, वशीकरण, स्तंभन जैसे हेय प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त किया जाता है। कर्म अपना प्रतिफल निश्चित रूप से देते हैं और लौट आते है। किसी का अनिष्ट करने वाले स्वयं भी उस कुकृत्य के दुष्परिणाम से बचे नहीं रह सकते। इस तथ्य को समझते हुए प्रारंभिक चयन में समुचित सावधानी बरती जानी चाहिए। सात्विकता का अवलम्बन ही श्रेयस्कर समझा जाना चाहिए। आदर्शवादी उदारचेताओं में हनुमान, नारद, बुद्ध जैसों की गणना होती है और देवियों में सरस्वती, पार्वती, गायत्री जैसे इष्टों को उच्चस्तरीय माना जाता है। उनमें आदर्शवादी विभूतियों की विशिष्टता गिनी जाती है।

जिन्हें देवी देवताओं में रुचि नहीं वे किन्हीं आदर्शों को अपने में विकसित करने के लिए उनका प्रतीक कमल पुष्प भी मान सकते हैं, इस मान्यता में मात्र छवि का ही ध्यान नहीं करना चाहिए वरन् उन पर आरोपित विभूतियों का भी समन्वय रखना चाहिए। यह तथ्य प्रत्येक ध्यान-केन्द्र के संबंध में लागू होता है। यदि मात्र छवि को ही आधार माना गया है और साथ अभीष्ट गुणवत्ता का आरोपण नहीं किया गया तो छवि दर्शन मात्र कौतूहल की ही पूर्ति करता है। साधक को वह अनुदान प्रदान नहीं कर सकता जो गुणवत्ता का समन्वय रखे रहने पर मिल सकता था।

महामानवों को भी इष्ट मानकर चला जा सकता है और उनके अनुकरण के लिए आतुर रहा जा सकता है। विवेकानन्द, दयानन्द, गाँधी, बिनोवा जैसे आदर्शों के धनी भी यदि अपनी ध्यान धारणा का केन्द्र रहे तो हर्ज नहीं। गाय जैसे पशु, हंस जैसे पक्षी, पीपल जैसे वृक्ष को भी आराधना के केन्द्र रखने पर अपनी सत्ता में समाहित विशेषताएं साधक को प्रदान करते रह सकते हैं।

वेदान्त दर्शन में अन्तरात्मा की उत्कृष्टता को ही परब्रह्म माना गया है। सोऽहम्, शिवोऽहम्, सच्चिदानंदोऽहम्, तत्वमसि, अयमात्मा ब्रह्म जैसे सूत्रों में आत्मा और परमात्मा की एकता का सिद्धांत स्वीकारा गया है। पर यहाँ यह ध्यान रखने योग्य है कि आत्मा का शुद्ध, श्रेष्ठ, उत्कृष्ट स्तर ही इस प्रतिपादन के अनुरूप बनता है। यदि दोष दुर्गुणों, दुर्व्यसनों के कीचड़ से सनी हुई चित्त चेतना को अपना स्वरूप मानने की भूल की गई तो जुड़े हुए दुर्गुण भी परब्रह्म के स्वरूप बन जायेंगे और साधक अपनी निकृष्टता को भी अपनाए रहेगा और उनके निराकरण की आवश्यकता ना समझेगा। वेदान्त का वास्तविक प्रतिपादन आत्मा में समाहित परमात्मा के दिव्य चेतना के साथ ही संबंध साधना है। उनके साथ माया जाल की तरह गुंथ गई निकृष्टता के प्रति तो तिरस्कार एवं परिशोधन का भाव रखना ही है। स्मरण रहे दृष्प्रवृत्तियों बिना संघर्ष के हटती नहीं है। इसके लिए तप तितीक्षा भी, संयम साधना और परमार्थ परायणता के त्रिविध अभ्यास भी अनिवार्य रूप से करने होते है।

सोऽहम् साधना यों प्राणायाम के माध्यम से भी चलती है। श्वांस खींचने के साथ “सौ” और छोड़ते समय “अहम्” की ध्वनि पर ध्यान एकाग्र करने के साथ ही यह भाव भी सघन रखना पड़ता है कि वह (परमात्मा) अहम् (आत्मा) दोनों के बीच सघन समन्वय और आदान-प्रदान का जो उपक्रम चलता है उसे अधिक स्पष्ट रूप से अनुभव किया जाये। इस प्रकार प्राणयोग द्वारा भी अद्वैत एकात्मकता की साधना हो सकती है। जप काल में इष्ट प्रतिमा को अन्तरात्मा के साथ अपनी आत्मा का समर्पण, विलय अनुभव करते रहने से भी यही परिणाम उपलब्ध किया जा सकता है।

छाया पुरुष या दर्पण साधना के पीछे भी यह उद्देश्य जुड़ा हुआ है। धूप में या प्रकाश की और पीठ करके खड़ा होने पर शरीर की छाया सामने आ जाती है। उसे अपना शुद्ध स्वरूप सामने उपस्थित समझा जा सकता है। इससे भी अधिक सुगम दर्पण साधना है। समस्त शरीर का प्रतिबिम्ब दिखा सकने वाला आदमकद दर्पण हो तो उत्तम। अन्यथा उसका साइज इतना ता होना ही चाहिए, जिसमें बैठने पर चेहरे की प्रतिछाया समान आकार में दीख पड़े। इसको विशुद्ध आत्मसत्ता की प्रत्यक्ष छवि माना जाय। उसमें दिव्य सद्गुणों का सघन समावेश अनुभव किया जाय। साथ ही उसके दुर्गुण, कषाय−कल्मष हिम-ऋतु में झड़ने वाले पत्तों की तरह झड़ते जाने की मान्यता को अधिकाधिक प्रखर किया जाये। यह आत्मदर्शन है।

इसकी महिमा भी देव दर्शन के समतुल्य है।

छवि निर्धारण, एकाग्र समर्पण की अवधारणा एवं उत्कृष्टता का आरोपण इन तीनों का समन्वय होने पर ही ध्यान की पूर्णता बनती है। मात्र छवि पर कल्पना को केन्द्रित करने से अध्यात्म प्रगति का उद्देश्य पूरा नहीं होता। उतने भर से तो मात्र एकाग्रता सम्पादन से थोड़ी सहायता भर मिलती है। यों एकाग्रता साधना भी भौतिक और आत्मिक प्रगति के काम आने वाली आवश्यक उपकरण जैसी उपलब्धि ही है। पर उतने तक सीमित रहकर आत्मोत्कर्ष का महान प्रयोजन पूरा नहीं होता।

परब्रह्म को सत्प्रवृत्तियों का समुच्चय मानना और उन विभूतियों का भक्ति भावना के माध्यम से जीवनचर्या में समावेश होना यहीं है। ध्यान धारणा का वास्तविक स्वरूप यहीं है। देव अनुग्रह और आध्यात्मिक प्रगति का स्पष्ट चिन्ह। इसी स्थिति को प्राप्त करने के लिए अनेक आकार प्रकार की विविध विधि ध्यान धारणाएं की जाती है। इस तथ्य को कभी भी विस्मृत नहीं करना चाहिए।

सर्वथा निराकार का ध्यान जिन्हें अभीष्ट हो वे नादयोग की साधना कर सकते है। कानों को बन्द करके अनाहत दिव्य ध्वनियाँ सुनी जाती है। गहराई में उतरने और अन्तराल में उठती दिव्य ध्वनियों के साथ संबंध जोड़ने पर कई प्रकार के चित्र विचित्र शब्द सुनाई पड़ते है। शंख, घंटा, घड़ियाल, मृदंग, नफीरी, गर्जन, वंशी, आदि से मिलते जुलते वे शब्द होते है। आरंभ में ध्वनियाँ अतीव मन्द होती है। और रुक-रुक कर सुनाई पड़ती है। पर अभ्यास करते रहने से उनमें स्पष्टता, समस्वरता आती जाती है। यह शब्द श्रवण भी श्वास में सोऽहम् की अनुभूति होने के सदृश्य है। छवियों का नेत्र बन्द कर लेने पर भी अभ्यास होते रहने में भी इसी तथ्य का समावेश है। इस स्तर की कोई भी साधना क्यों न हो उनके साथ उत्कृष्टता के पक्षधर भाव संवेदनाओं का जुड़ा रहना आवश्यक है। क्योंकि आत्म परिष्कार की बात इसी समन्वय के आधार पर बनती है। आत्म परिष्कार प्रवृत्ति दो स्वरूप धारण करती है। एक प्रत्यक्ष और परोक्ष दुष्प्रवृत्तियों का निराकरण और आदर्शवादी दिव्य सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन। परम कल्याण का, ईश्वर साक्षात्कार का स्वर्ग मुक्ति कस यही आधार है। इस गन्तव्य तक पहुँचने के लिए ही अनेक स्तर की ध्यान धारणाओं में से किसी का या किन्हीं का चयन किया जाता है।


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