एक मूर्तिकार था। वह मिट्टी की सुन्दर मूर्तियां बनाया करता था। हस्तकौशल की प्रवीणता के कारण वे औरों की अपेक्षा सुन्दर भी होती थी। अच्छे दाम में बिक जाती और मूर्तिकार का निर्वाह भी ठीक प्रकार चल जाता था।
मूर्तिकार का एक ही लड़का था। वह उसे भी उसी कला में प्रवीण बनाना चाहता था। सो स्वतः उसका शिक्षण शुरू कर दिया। बालक ने भी मूर्त प्रत्यक्षीकरण की इस विद्या में रुचि दिखाई और वह इस कला की बारीकियों को समझने तथा उत्साहपूर्वक उस अभ्यास में निरत रहने लगा।
लड़का बड़ा हुआ तो उसे अपने कार्य में अच्छी सफलता मिलने लगी। इस सीमा तक की उसकी मूर्तियां पिता की तुलना में अधिक दाम में बिकने लगी। स्वाभाविक भी था। एक तो सीखने की उत्कंठा, दूसरे बच्चे की जन्मजात प्रतिभा। क्रमशः निखार आता गया एवं ख्याति बढ़ने लगी।
लड़का रोज अपनी कृतियों को पिता को दिखाता और उसके गुण-दोष पूछता। उनकी विक्रय राशि दिखाता व पिता से प्रशंसा की अपेक्षा करता। पिता उसकी लगन की प्रशंसा तो करता पर साथ ही उनमें जो-जो कमी रह गई होती, उन्हें भी बताता।
नित्य अपनी कमियाँ सुनने पर लड़के को बुरा लगने लगा। उसने एक दिन झुँझलाकर पिता से कह दिया-”इतना प्रयत्न करता हूँ, तो भी आप कुछ न कुछ कमी बता ही देते हैं।आप की तुलना में तो मेरी मूर्तियाँ अभी भी अधिक दाम में बिकती हैं। फिर दोष क्यों ढूंढ़े जाते हैं? मुझे कारण समझ में नहीं आ रहा कि आपको दोष व कमियाँ ही दिखाई देती हैं, अच्छाई नहीं।”
पिता चुप हो गया। पर उसके मन में दुख बहुत हुआ। लड़के के बाजार चले जाने पर वह दुखी मन से लेटा रहा। उस दिन उसके गले भोजन भी न उतरा।
लड़का जब बाजार से लौटा तो उसे पिता के दुखी होने की जानकारी मिली। अपने क्यों किया? वह पिता के समक्ष गलती की माफी मांगने व भोजन का अनुरोध करने पहुंचा।
पिता ने रुद्ध कण्ठ से कहा -”प्रश्न यह नहीं है कि तुमने क्या कहा और मुझे कैसा लगा? असल बात यह है कि यदि तुम समीक्षा का बुरा मानोगे तो कृतियों में जो सुधार की थोड़ी बहुत गुंजाइश है, तुम्हारी और अधिक ख्याति होने और अधिक कीमत मिलने की जो संभावना हैं, वह समाप्त हो जाएगी। समीक्षा ही सुधार का द्वार खोलती हैं, वह यदि बन्द हो गया तो प्रगति का पथ भी अवरुद्ध हो जाता हैं।
पिता की बात सही थी। अहंकार आने पर, सर्वांगपूर्णता की अनुभूति होने पर मनुष्य अपने दोष ढूंढ़ना तो दूर, उन्हें बताने पर उलटा क्रुद्ध हो जाता हैं। फलतः उसकी प्रगति भी वही रुक जाती हैं।
लड़के ने वस्तुस्थिति को समझा और नित्य अपनी कृतियों के संबंध में पिता से ही नहीं, खरीददारों तथा परिचितों से भी विनम्र पूछताछ करने लगा। गलती पूछने तथा सुधारने के क्रम ने उसे अपने क्षेत्र का सर्वोत्तम मूर्तिकार बना दिया।
प्रगति जिस भी क्षेत्र में, जिसे भी अभीष्ट हो, यही एक मात्र राजमार्ग हैं। चाहे आत्म समीक्षा की जाय अथवा दूसरों से मार्गदर्शन माँगा जाय, हर दृष्टि से यह रीति-नीति दूरदर्शितापूर्ण सिद्ध होती हैं। अपनी उपलब्धि पर व्यक्ति जिस दिन पूर्णतः संतुष्ट होने लगता हैं, अहंकार का आवरण भी साथ-साथ चढ़ने लगता हैं, तथा प्रगति के मार्ग में अवरोध आ जाते हैं। अच्छे-अच्छे व्यक्ति जो प्रतिभावान थे, इसी तरह असफल होते रहे हैं। दूसरों द्वारा समीक्षा की चर्चा “निंदक नियरे राखिये” प्रसंग में भी की गई हैं। समीक्षा के लिए सतत् उद्यत रह सुधार परिष्कार जो करता रहता हैं, वह निश्चित ही सफलता हस्तगत करता हैं।