जैव चेतना की सर्वोच्च शक्ति का सुनियोजन

September 1988

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प्राण ही जड़ जगत एवं चेतना जगत दोनों की सर्वोपरि शक्ति है। यही जीवन का सार और प्रगति का आधार है। शास्त्रकारों ने इसे आदि एवं अनन्त कहा है। सृष्टि उसी से उत्पन्न होती और प्रलय काल में उसी में विलीन हो जाती है। कठोपनिषद् में कहा गया है कि सृष्टि का प्रारंभ ही प्राण ऊर्जा के कम्पनों से होता है- “यदिदंिकच जगर्त्सवम् प्राण एजतिनिस्सृतम।” अर्थात् जो कुछ इस सम्पूर्ण संसार में हैं वह प्राणों के ही कम्पनों की अभिव्यक्ति हैं। अथर्ववेद में उसी को नमन करते हुए कहा गया हैं।

“ प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे। यो भूतः सर्वस्येश्वरो यस्मित्न सर्व प्रतिष्ठतम॥”

अर्थात् उस प्राण को नमस्कार है जिसके वश में समस्त संसार हैं। जो स्वयंभू हैं, सबका ईश्वर और जिसमें सब कुछ प्रतिष्ठित है।

शतपथ ब्राह्मण में प्राण तत्व को ही आदि ऋषि कहा गया है। प्रश्नोपनिषद् में उसके स्वरूप का वर्णन करते हुए ऋषि ने कहा हैं-

“स ईक्षाँचक्रे। कस्मिन्नहमुत्क्रान्त उत्क्रान्तो भविष्यामि। कस्मिन्वे प्रतिष्ठिते प्रतिष्ठास्यामीति॥”

अर्थात् परम पुरुष परमेश्वर ने महासर्ग के आदि में विचार किया कि ब्रह्मांड में ऐसा कौन-सा तत्व उत्पन्न किया जाय, जिसके निकल जाने पर मैं भी उससे निकल जाऊं और जिसके प्रतिष्ठित रहने पर मैं प्रतिष्ठित रह¡।

“स प्राणमसृजत, प्राणाच्छृद्वाँ खं वायुर्ज्योतिशपः पृथिवीन्द्रिय मनोडन्नम॥”

अर्थात् ऐसा विचार कर उस परम सत्ता ने प्राण तत्व उत्पन्न किया। फिर प्राण से श्रद्धा-बुद्धि तथा आकाश, वायु, ज्योति, जल एवं पृथ्वी में पंचभूत तत्व इंद्रियां, मन एवं अन्न की उत्पत्ति हुई हैं।

इससे स्पष्ट है कि सृष्टि का प्राथमिक तत्व प्राण हैं। वैज्ञानिक जानते है कि जड़ जगत में फोटोन, टैक्योन जैसी आधारभूत ऊर्जा तरंगें और इलेक्ट्रान, प्रोटान, मेसान, न्यूक्लियान जैसे तरंगमय मूल कण, जिनका शास्त्रीय नाम पंचमहाभूत है, उसी प्राण ऊर्जा के परिणाम हैं। चेतन जगत में इच्छा, क्रिया एवं ज्ञान के रूप में वहीं संव्याप्त है। सजीवता, सजगता और सक्रियता उसी के कारण है। जीवन तत्व वही हैं। समस्त विश्व ब्रह्मांड में संव्याप्त विभु सत्ता वह प्राण ही है। वही चेतना कहलाती हैं। जिसमें प्राण तत्व हैं। वही प्राणी कहलाता है। प्राण तत्व निकल जाने पर प्राणी निष्प्राण हो जाता हैं। तैत्तरीय उपनिषद् में कहा गया हैं - “ प्राणी हि भूतानामायुः तस्मात्सर्वायुषमुच्यते” अर्थात् प्राण ही प्राणियों की आयु है। इसीलिए इसे ‘सर्वायुष’ कहा जाता हैं।

मानव शरीरगत - प्राण ब्रह्मांड व्यापी महाप्राण का एक घटक हैं। यही चेतन प्रवाह अपनी प्रचंडता और उत्कृष्टता के आधार पर स्तर-भेद और रूप-भेद से विभिन्न प्रतिभाओं एवं ऋद्धि-सिद्धियों का उद्गाता सिद्ध होता हैं। इन्द्रियों की क्रियाशीलता, मन की सजगता और संकल्पशीलता, बुद्धि की प्रखरता तथा अंतःकरण की उदात्तता का आधार प्राण शक्ति है। प्राण की न्यूनाधिकता से ही व्यक्ति-व्यक्ति के बीच अन्तर पाया जाता है। विभिन्न शारीरिक-मानसिक क्रियाओं के संचालन का कार्य इसके द्वारा ही सम्पादित होता है। शरीर के पाँच प्रमुख भागों में अवस्थित होने से उसको पाँच प्राणों के नाम से सम्बोधित किया जाता हैं। इसके पाँच भेद हैं- प्राण, उदान, समान, अपान और व्यान। पाँच उप प्राण भी है। जिन्हें देवदत्त, कृकल, कूर्म, नाग और धनंजय के नाम से जाना जाता है। ये पाँच प्रमुख प्राणों के सहायक घटक हैं। कुछ वैज्ञानिक इसे “क्लाउड ऑफ आयन्य” अर्थात् आयनों का बादल कहते हैं। शरीर विज्ञानी इसी को ‘बायोप्लाज्मिक एनर्जी’ के नाम से संबोधित करते है। विभिन्न देशों में इसको भिन्न-भिन्न नामों से जाना समझा जाता हैं, जैसे चीन में ‘चीएनर्जी’ जापान में ‘की एनर्जी’ पाश्चात्य देशों में यूनीवर्सल एनर्जी, वाइटल फोर्स आदि। आइंस्टीन के सिद्धांतानुसार ऊर्जा का सम्मिलित स्वरूप ही पदार्थों के रूप में दिखाई देता हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय योग शास्त्रों में वर्णित ‘प्राण’ और ‘ऊर्जा’ एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। भौतिक ऊर्जा को किस प्रकार चुम्बकीय क्षेत्र या विद्युतीय क्षेत्र से आकृष्ट किया जाता है। उसी प्रकार प्राण ऊर्जा को मनःशक्ति के द्वारा भी प्रभावित आकर्षित किया जा सकता है।

प्राण तत्व का वायु से सीधा संबंध हैं। श्वास-प्रश्वास के माध्यम से शरीर के अन्दर इसका निरन्तर प्रवाह होता रहता है। चेतन ऊर्जा के इस प्रवाह को जैविक विद्युत प्रवाह के समतुल्य कहा जा सकता है। सूर्य एवं चन्द्र नाड़ी जिन्हें क्रमशः पिंगला तथा इड़ा नाड़ियां अथवा नासिका का दायाँ और बायाँ स्वर भी कहा जाता हैं, के द्वारा यह चेतन तत्व वायु के साथ अवागमन करता है। काया की सक्रियता इसी प्राण विद्युत की ऊर्जा, ताप एवं प्रकाश के सहारे संभव होती हैं। इसी को स्पायरोमेट्री स्कीन पोटेन्शियल, इलेक्ट्रोकार्डियो ग्राफी, तथा इलेक्ट्रो एनसिफैलो ग्राफी के माध्यम से प्रत्यक्ष देखा जाता है। यह जैव विद्युत ही जीवन का सार है। समस्त एन्द्रिक गतिविधियाँ और मस्तिष्कीय उड़ाने इसी प्रवाह के द्वारा सम्भव होती है। शारीरिक कोशिकाओं में यह विद्युत शक्ति के रूप में भरी होती है। प्राणायाम प्रयोगों में इसी चेतन ऊर्जा के व्यवस्थित विकास का अभ्यास किया जाता है। हिप्नोटिज्म, मैस्मेरिज्म, साइकिक हीलिंग आदि में भी इसी शक्ति का उपयोग किया जाता हैं। इससे सम्पन्न लोग ही ओजस्वी, तेजस्वी और मनस्वी कहे जाते हैं। साहस, शौर्य, उत्साह तथा स्फूर्ति के रूप में यही विशेषता अभिव्यक्त होती हैं।

परामनोवैज्ञानिकों का कहना है कि चेतना के विभिन्न स्तरों में एक स्तर “आयर्नोप्लाज्मा” का होता है।जिसका हमारे मन और शरीर पर गहरा प्रभाव पड़ता है। वस्तुतः यह आयनोप्लाज्मा प्राण ऊर्जा ही हैं। जिसकी अभिवृद्धि के लिए पूर्वान्त दर्शन में प्राणयोग का सहारा लिया जाता हैं। इस विद्या में शरीर में प्रवाहित सूक्ष्म एवं शक्तिशाली प्राण चेतना को मन शक्ति के द्वारा श्रृंखलाबद्ध कर एक पंक्ति में प्रवाहित किया जाता है। जिससे मूलाधार से लेकर सहस्रार तक एक-एक का ‘बायोजेनरेटर’ स्पन्दित होने लगता हैं। इससे काया स्थित दक्षिणी ध्रुव-सहस्रार का मिलन संभव होता हैं। भौतिक समृद्धि एवं आत्मिक उन्नति का मूल यही हैं।

कनाडा के मूर्धन्य मनोविज्ञानी डॉ. हंसा सेल्ये के अनुसार मनुष्य की सर्वोच्च शक्ति-प्राण ऊर्जा का अधिकाँश भाग व्यर्थ के क्रिया–कलापों, कुकल्पनाओं एवं अचिन्त्य -चिंतन में ही समाप्त हो जाता है। मानसिक तनाव चिंता, अनिद्रा आदि भी प्राणशक्ति का असाधारण गति से क्षरण करते हैं। प्राणतत्व की यह न्यूवता ही अनेकानेक बीमारियों का कारण बनती हैं। इसकी कमी जीवन अवधि पूर्ण होने के पूर्व ही मनुष्य को काल का ग्रास बनने को बाध्य कर देती हैं।

योग विद्या विशारदों का कहना है कि प्राण विद्या के नियमों को जानने और अपनाने पर इस क्षरण को रोका जा सकता है और साथ ही व्यय हुए प्राणतत्व की क्षतिपूर्ति भी की जा सकती है। संयमित आहार-विहार एवं चिन्तन मनन में उत्कृष्टता का समावेश करके उस बहुमूल्य सम्पदा को कोष भी अंतरंग सत्ता में स्थापित किया जा सकता हैं। जो अपनी तथा दूसरों की विशेष आवश्यकताओं की पूर्ति में काम आता हैं।

प्राणशक्ति का अनावश्यक क्षरण रोकने, क्षरण से हुई क्षति की पूर्ति करते रहने तथा प्राणतत्व की अधिक मात्रा को आकर्षित कर अपना व्यक्तित्व अधिकाधिक समुन्नत, प्राणवान, परिष्कृत बनाये जाने की समग्र साधना पद्धति को ही प्राणविद्या या प्राणायाम साधना कहा गया है। इसी का अनिवार्य अंग संकल्प होता हैं। संकल्प शक्ति के सहारे उसी के चुम्बकत्व से ब्रह्मांड व्यापी समष्टिगत प्राणतत्व को आकाश से आकर्षित किया और श्रद्धा के बल पर उसे अपने में धारण किया जाता है। जो जिस सीमा तक समष्टिगत प्राण भी वशवर्ती हो जाता है और साधक प्राण जगत की अनेकानेक दिव्य क्षमताओं का स्वामी बन जाता हैं। यह मार्ग सभी साधकों के लिए समान रूप से खुला है।


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