सतयुगी व्यवस्था का मेरुदण्ड- ऋषि सत्ता

September 1988

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आज से कई शताब्दियों पूर्व के सतयुग का वर्णन हम पुराण - कथा गाथाओं में सुनते आए हैं। आज जो परिस्थितियाँ हैं, उन्हें दृष्टिगत रख सतयुग की वापसी कैसे होगी, यह महत्वपूर्ण प्रश्न सामने आता हैं। विगत सतयुग के आरंभ में प्रत्येक वरिष्ठजन की महत्वाकांक्षा एक ही होती थी कि वह उत्कृष्ट आदर्शवादिता की कसौटी पर खरा उतरे। श्रेष्ठता को अपनाए और इस स्तर तक परिपक्व करें कि उसकी गरिमा हर किसी को प्रभावित करे और अनुकरण की ऐसी परम्परा चल पड़े जो समूचे वातावरण को नन्दनवन की तरह सुगंधित-सुसंस्कृत बना दे। यह कैसे संभव हो सकेगा, यही सबसे ऊहापोह मन के सामने हैं।

प्रागैतिहासिक काल की श्रुति और स्मृतियों के आधार पर प्रमाणित सतयुग ऋषि परम्परा के कारण बीज रूप में अंकुरित और वट वृक्ष की तरह फला-फूला था।उसकी छत्रछाया में प्रायः समूची मानव जाति ने आश्रय प्राप्त किया था। बीज के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह जिस वृक्ष पर परिपक्व हुआ हैं, वह अपने भावी निवास की बात सोचे, वहीं जमकर रह जाय। उसे अन्यत्र चले जाने का उत्साह भी होता है और नियति प्रवाह भी।

उस काल के ऋषियों ने संकीर्णता से मुक्त हो विस्तार की बात सोची। विश्वभर में जहाँ भी पिछड़ापन देखा, वहीं उससे निपटने के लिए दौड़ते चले गए। अकाल, बाढ़, बीमारी, दुर्घटना, विपत्ति, अग्निकाण्ड, भूकम्प, आदि कारणों से जहाँ विपत्ति उभरती हैं, वहीं उनसे निपटने के लिए उदारचेता बिना किसी आमंत्रण की प्रतीक्षा किये स्वयं ही अनायास पहुँचते हैं। विश्व वसुधा को ऋषियों ने अपना कार्यक्षेत्र बनाया था। यों वे उपजे भारत की देव भूमि में ही थे। मानसरोवर में जन्मने वाले हंस सुन्दर आकाश में उड़ते और समूचे संसार की शोभा बढ़ाते हैं।

ऋषि परम्परा दो भागों में विभाजित होती हैं। एक पुरोहित दूसरे परिव्राजक। पुरोहित वे जो एक स्थान पर रह कर आश्रम परिपाटी चलायें। निकटवर्ती क्षेत्रों में जन जागृति का धर्म धारणा का उत्तरदायित्व संभाले। छात्रों का प्रशिक्षण गुरुकुल पद्धति से चलाये। साहित्य सृजें। चिकित्सालय क्रम चलायें। आध्यात्म क्षेत्रों की शोधों की प्रयोगशाला हेतु तत्पर रहें। पुरोहितों का विवाहित रहना आवश्यक समझा गया था। ताकि अर्धांगिनी की सहायता से आश्रम की भोजन आदि की क्रम व्यवस्था चलती रहे। परिव्राजक वे जो सदा भ्रमण करते रहें। जन संपर्क साधें। प्रतिभाओं को उभारें उन्हें बादलों की तरह बरसना पड़ता था। जब कि ब्राह्मण स्थान विशेष पर रह कर सरोवर की तरह क्षेत्रीय अभ्युदय का सूत्र संचालन करते थे। दोनों के कार्यक्रमों में थोड़ा अन्तर दिखाई पड़ता हैं पर लक्ष्य सर्वथा एक था, उन्हें एक दूसरे का पूरक समझा जाना चाहिए।

सतयुग में सम्पूर्ण धरातल पर मनुष्यों का निर्वाध आवागमन था। छोटे छोटे गणतंत्र शासन तो थे उनकी सीमाएं भी थी पर ऐसा कुछ न था जिससे आवागमन में बाधा पड़े अथवा वस्तुओं को कहीं से कही लाने ले जाने पर प्रतिबंध हो। नागरिकता ऐसी प्रतिबंधित न थी कि एक देश का व्यक्ति अपनी रुचि या सुविधा के अन्य किसी देश में क्षेत्र में निर्वाध रूप से बस न सके। आवागमन करता न रह सके। इसी मानव जीवन की सार्वभौम स्वतंत्रता ने यह अवसर प्रदान किया कि वीरान बसते और सरसब्ज होते चले गये।

आरंभिक मानवी उद्भव तथा विकास गंगा यमुना के दोआब में हुआ। इसी को आर्यावर्त ब्रह्मवर्त आदि नामों से पुकारा जाता था। जिसे प्रकार मध्य कालीन सामंतों को अपने राज्य बढ़ाने की महत्वाकांक्षा रहती थी। उसी प्रकार आरंभिक दिनों में कहीं मनुष्य समुदाय का एक अच्छा झुण्ड बना वहीं यह अभिलाषा उठी कि कहीं अन्यत्र चलकर वहाँ के वीरान स्थिति को सुविकसित बनाया जाय। उसमें बसने वाले वन्य मानवों को सभ्य बनाकर उत्पादन बढ़ाकर अभावग्रस्तता के संकट से उबारा जाय। इन्हें शिक्षित, सुसंस्कृत बनाया जाये। कृषि, उद्योग, व्यवसाय, पशुपालन आदि के अतिरिक्त नीतिमत्ता एवं समाज संरचना की व्यवस्था बनाकर उसे परम्परा के रूप में प्रचलित किया जाये। यही वह काम था जिसके लिए विकसित समूहों के लोग घर परिवार छोड़ कर बाहर निकल पड़ते थे और चुने हुए क्षेत्र को पूर्ण विकसित करने तक वहीं डटे रहते थे। पूर्ववर्ती स्वजन संबंधी भी उनका हाथ बंटाने के लिए जब वह पहुँचते रहते थे। सामयिक सहयोग करते अथवा वही जाकर बस जाते थे। इस प्रकार वहाँ फिर एक विकसित समुदाय बस जाता था। उसी में पशु पलते थे। खनिज खोदे जाते और उसके प्रयोग में आने वाले उपकरण बनते थे। इस प्रकार बिखरे हुए वनवासी एक केन्द्र पर केन्द्रित हो जाते थे और अपनी आयु तथा कार्य शैली का निश्चित विभाजन कर लेते थे। अपनी नियत जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए इतनी प्रवीणता प्राप्त करते थे कि अपनी सीमा में प्रवीण पारंगत समझे जाने लगे। वर्णाश्रम धर्म इसी का नाम था। इसे विभाजन नहीं अपने स्तर का कौशल कहना चाहिए। इससे पारस्परिक व्यवहार में कोई अन्तर नहीं पड़ता था। मनुष्य की एक ही जाति है। फिर जाति पाँति क्या? व्यावसायिक भिन्नता एवं क्रिया कौशल की प्रवीणता विकसित करने की दृष्टि सुवर्ण बन सकते हैं। पर ऐसे वर्ण नहीं बन सकते जिनके कारण पारस्परिक रोटी बेटी जैसे व्यवहारों में कोई अन्तर पड़े। उप दिनों क्रिया कलापों के आधार पर अनायास ही बन जाने वाले वर्ग वर्णों के नाम से पुकारे जाते थे। उन दिनों तक जन्म जाति के आधार पर इन दिनों दीख पड़ने वाली जाति बिरादरियों की किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। जल वायु की भिन्नता में विभिन्न क्षेत्रों के लोगों में आकृति प्रकृति का थोड़ा अन्तर अवश्य आता था। पर किसी कारण लोग विलगाव की बात नहीं सोचते। गर्म देशों की त्वचा काली और ठंडे क्षेत्रों के निवासी गोरे होने चाहिए। यह प्रकृतिगत अन्तर है। ऐसे भेद उपभेद तो पशु-पक्षियों तक में पाये जाते हैं। देश विशेष के कारण वहाँ रहने वाले प्राणियों में रंग रूप की भिन्नता आ जाती हैं। फूलों के स्वरूप और फूलों के स्वाद में भी इस आधार पर हुआ अन्तर देखा जा सकता है। पर यह मात्र प्रकृति संरचना का कौतूहल भर हैं। इससे जाति विभाजन नहीं होता। ऐसे में ऊंच–नीच के व्यवहार की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती।

इन दिनों प्रत्येक समर्थ और सुसंस्कृत व्यक्ति की महत्वाकांक्षा एक ही रहती थी कि वह वीरान क्षेत्रों को उर्वर कैसे बनाये? बिखरे हुओं को समेट कर एकता के समस्वरता के सूत्र में कैसे बाँधे? इसके लिये आवश्यक था कि पुराने जमे हुए निवास को बिना किसी प्रकार की क्षति पहुँचाये, कर्मठों को अन्यत्र चले जाने की, नये प्रदेशों को सुविकसित कर दिखाने की चुनौती को किस प्रकार योजनाबद्ध रूप से पूरा कर दिखाया जाये।

उन दिनों जीवन के प्रत्येक पक्ष की सुव्यवस्था धर्म के नाम से जानी जाती थी। इसी एक विद्या के अंतर्गत उपार्जन, निर्माण, उपभोग, स्वास्थ्य, शिक्षा, चिकित्सा, परम्परा, नीति न्याय आदि सभी विषय आते थे। इस सबका केन्द्र बिन्दु आस्तिकता को स्वीकारा गया था। उसकी सुविस्तृत परिधि में मानवी गरिमा से संबंधित सभी विषय आ जाते हैं। अस्तु जो भी निर्धारण किये जाते थे उनमें धर्म की मुहर लगती थी। जो कहा जाता था उसे धर्म की आस्तिकता की भूमिका में प्रस्तुत किया जाता था। यह सत्य भी था और प्रभावी भी। लोक का सम्मान सहयोग भी इसी आधार पर बनता था और लोक की स्वर्गीय सद्गति का भी निश्चय होता था और लोक की स्वर्गीय सद्गति कास भी निश्चय होता था। नरक, भवबंधन, योनियों में परिभ्रमण, रोग की दुर्गति का भय बना रहने को लोग सहज विश्वास के आधार पर कुकर्मों से बचते थे और जीवन को सर्वतोमुखी प्रगति सुव्यवस्था में जुटाये रहते थे। इस प्रकार धर्म धारण के सहारे लौकिक सुनियोजन भी सहज ही बन पड़ता था।

ऋषि युग के मनीषियों ने धर्मशास्त्रों की संरचना की। राजकीय अनुशासन शिथिल स्तर का रहने के कारण देवताओं का अदृश्य अनुशासन जन मानस पर प्रतिष्ठापित किया गया। देवताओं से वरदान मिलने और अप्रसन्न होने पर अभिशाप की प्रताड़ना करने का भय बना रहता था। यही वह आधार था जिसके कारण पुलिस, फौज, न्यायालय, जेल आदि के लिए प्रयत्न नहीं करना पड़ता। धर्म परायण व्यक्ति ऐसा कुछ करता ही नहीं जिसके लिए प्रताड़ना या रोकथाम का अनुबंध करना पड़े। धर्मशास्त्र उप दिनों का संविधान था जिसे श्रद्धा पूर्वक अपनाया और निष्ठा पूर्वक जीवन के हर पक्ष में उतरा जाता था। सतयुगी वातावरण इसी प्रकार बन पड़ा।

सूर्य पूर्व से उदय होता है। उसकी एक दिशा नियत प्रतीत होती है। उषा अवतरण और अरुणोदय सदा एक ही क्षेत्र से उदीयमान होता हैं। ठीक ऐसी ही प्रक्रिया देवमानवों का समुदाय उभरने, विकसित होने, समर्थ बनने के संबंध में भी हैं भारत भूमि को भूमंडल का पूर्व समझा जा सकता है। यहाँ की मृत्तिका की यह विशेषता रही है उसमें नंदनवन उगते रहे हैं, नंदनवन लहलहाते रहे हैं। चन्दन तरुवरों से मलयानिल प्रवाहित होती रहती है। चन्दन अपने समीपवर्ती झाड़–झंखाड़ों को भी सुवासित करता है। भारत भूमि पर उत्पन्न हुए नर-नारायणों ने भी ऐसा ही कर दिखाया और अपनी गतिविधियों से इस धरित्री को सर्वोपम कहलाने का श्रेय सौभाग्य दिलाया। सतयुग में जनसंख्या सीमित थी। पर उनके सामने समस्त धरातल को समुन्नत सुसंस्कृत बनाने का लक्ष्य था। सर्वतोमुखी प्रगति की सुव्यवस्थित योजना उन्हें बनानी थी। इस दायित्व को उन्होंने ईश्वरीय आदेश अनुशासन समझा और उसे पूरा करने में प्राणपण से लगे रहे। इस दिशा को अपनाने के लिए यह आवश्यक होता हैं कि मार्ग दर्शन करने वाले नेतृत्व के निमित्त कदम बढ़ाने वाले अपने आपको अन्यान्यों की अपेक्षा अधिक सुसंस्कृत बनायें कर्मठता की कसौटी पर पूरी तरह खरे उतरें। साँचा सही होने पर ही उसमें खिलौने पुर्जे सही ढलते है। नेतृत्व यदि अपने चरित्र व्यक्तित्व को आदर्श बनाकर उसे अनुकरण के निमित्त प्रस्तुत करे तो ही उपदेश का सही प्रभाव पड़ता हैं। तो ही उसके अनुगमन का क्रम जन साधारण द्वारा अपनाया जाता हैं। चूंकि जड़ धरित्री पर सुसंस्कृत स्तर के सचेतन तत्वों को उगाया बढ़ाया, फैलाया जाता था। इसका दायित्व नर-नारी नारायणों को देवमानवों को संभलना था। अस्तु सृजेता को उपार्जक-संयोजक की भूमिका निभानी थी। इसलिए आवश्यक समझा गया कि दायित्वों को ओढ़ने वाले सर्वप्रथम अपनी वरिष्ठता विकसित करें या इस प्रयोजन की पूर्ति तप साधना से ही हो सकती थी। इसलिए वरिष्ठों को अपनी प्रतिभा बढ़ाने के लिए सर्वप्रथम अपने आपको ही तपाना पड़ा। हर कसौटी पर खरा सिद्ध हो सकने योग्य बनाना पड़ा। आत्म निमार्ण, आत्म विकास ही अध्यात्म तत्वज्ञान का सार संक्षेप है। इस तथ्य एवं रहस्य को समझने वाले महा मनीषियों ने अपना विवेक विकसित किया। तत्वज्ञान का गहन मंथन किया। अन्त करण को देच उद्यान स्तर का बनाने के लिए आकाँक्षाओं भावनाओं, मान्यताओं, विचारणाओं, क्रिया–कलापों को आदर्शों से सरोवर बनाया। संयम बरतने और परमार्थ में संलग्न रहने की दिशा-धारा को अपनाया। इसके लिए भजन पूजन से लेकर व्रत नियम पालन करने में सहायता देने वाले कर्मकाण्ड भी अपनाने जरूरी थे। सो उनके अपनाने अभ्यास में उतारने के लिए भी संकोच न किया गया। हजारों सोने जैसे तराशे हुए हीरे जैसे चमकदार बहुमूल्य व्यक्तियों का नाम ही ऋषि था। वे ही अथक प्रयासों में संलग्न रहकर धरती पर सतयुग उतारने की कठिन अग्नि परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। आज भी वही ऋषि सत्ता सतयुग को पुनः धरती पर अवतरित करने में सफल हो सकेगी।


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