वेदान्त जोड़ेगा आध्यात्म और विज्ञान को

September 1988

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ब्रह्म कलेवर की भिन्नता के कारण सर्व सामान्य की समझ यही है कि विज्ञान और अध्यात्म के आधारभूत सिद्धांतों में मौलिक अन्तर हैं। इस कारण उनका समन्वय कदाचित सम्भव न हो सकेगा। सामान्यजन ही नहीं मनीषीगण भी स्वीकारने लगे है कि विज्ञान दुराग्रही नहीं हैं। वह लगातार के प्रयोग-परीक्षण के बाद ही कसी तथ्य को स्वीकारता और उसे प्रामाणिक ठहराता है। इसी ठोस आधार पर सिद्धांत विनिर्मित होते है। इसके विपरित मान्यता यह है कि अध्यात्म श्रद्धा विश्वास के नाम पर तरह-तरह की धारणाएँ गढ़ता और उन्हें स्वीकारने-अपनाने की जोर जबरदस्ती करता है। तर्क-प्रमाण की इसमें कोई गुंजाइश नहीं। प्रयोग-परीक्षण जैसी बात को इस क्षेत्र से पूर्ण रूपेण बहिष्कृत कर दिया गया हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी पूर्व बनाई गई लोक मान्यताएं ही सब कुछ हैं। प्रचलनों के इसी गोल दायरे में कोल्हू के बैल की तरह आंखें बन्द किए लगातार घूमते रहने में ही धर्म भावना की यथार्थता समझी जाती हैं। ऐसी दशा में समन्वय का स्थापन कैसे हो? या तो विज्ञान अपने तथ्यों की प्रमाणिकता देने वाली प्रवृत्ति छोड़े अथवा धर्म को परम्परागत आग्रह अपनाए रहने से विरत किया जाय। तभी वह स्थिति बन सकेगी जिसके आधार पर दोनों साथ चलने अथवा सहयोगी बनने जैसी भूमिका निभा सकेंगे।

जन सामान्य का यह दृष्टिकोण धर्म और विज्ञान के तत्वदर्शन को न समझने के कारण ही हैं। दोनों की ही मूल प्रकृति को न समझने के कारण जिन अड़चनों की कल्पना की गई हैं, उसे उथले चिन्तन का ही परिणाम कहा जा सकता हैं। गहराई में उतरने पर धर्म और विज्ञान दोनों ही ऐसे तथ्यों पर आधारित दीखते हैं। जिन पर अविश्वास करने या मिल जुलकर साथ-साथ न चल सकने की आशंका करने का कोई कारण नहीं हैं।

विज्ञान और अध्यात्म का कार्य क्षेत्र अवश्य भिन्न हैं। पर कार्य पद्धति तथा उद्देश्य दोनों में साम्य हैं। दोनों ही सत्यान्वेषण की प्रक्रिया में अलग-अलग मार्गों से प्रगतिशील हैं। विज्ञान वेत्ता भी इस तथ्य को स्वीकारने लगे हैं। वस्तुतः विज्ञान आध्यात्म के तत्वदर्शन को नकारता

नहीं हैं, न ही आध्यात्म के मूलभूत सिद्धांत विज्ञान के विरोधी हैं। पर इस प्रकार की सामंजस्य प्रक्रिया वेदान्त दर्शन में ही दिखाई पड़ती हैं। बाकी जगह धर्म के नाम पर अपनी विलासिता की सामग्री जुटाने वाले ठेकेदार तो विज्ञान को पानी-पी-पी की गालियाँ देने में ही अपनी शान समझते हैं।

वेदान्त दर्शन के सुप्रसिद्ध व्याख्याता स्वामी विवेकानन्द ने 1973 में हुई शिकागो की धर्म महासभा में दिए गए व्याख्यान में कहा था। “रचना नहीं अभिव्यक्ति” वैज्ञानिकों की इस मान्यता को उपनिषदों के सूत्रकार पूर्व काल से ही बताते आ रहे हैं। सम्पूर्ण जगत चिदाकाश से अभिव्यक्त हुआ है।” फ्रेड हाँयल की यह बात प्रकारान्तर से ऋषि वाणी का ही प्रतिपादन हैं।

वेदान्त की वैज्ञानिकता को टेलीहार्ड दे चार्डिन, ज्लियन हक्सले तथा थाँमस हक्सले भी अपनी कृतियों में स्वीकारते हैं। इन विज्ञान विदों का मानना है कि अध्यात्म अपने स्वस्थ रूप तो तभी उभर कर आएगा, जब उसमें घुस आई विकृतियों मूढ मान्यताओं, लोक-प्रचलनों के प्रति हठवादिता पूर्ण दृष्टिकोण से छुटकारा पाया जाय।

स्वामी विवेकानन्द ने इसी को स्पष्ट करते हुए कहा था कि - धर्म के उन ठेकेदारों को विज्ञान की प्रगति से ईर्ष्या होना स्वाभाविक है जो ईश्वर को सातवें आसमान में शाही ठाठ से बैठे हुक्म चलाते सामन्तवादी के रूप में बताते हैं। यही नहीं ये तथाकथित ईश्वर के एजेन्ट मरने के बाद स्वर्ग में फ्लैट की सुविधा, रूप लावण्यमयी परियाँ सुस्वादु भोजन तथा उत्तम कोटि की मदिरा दिलवाने के नाम पर भोले भाले धर्म भीरुओं से सैकड़ों-हजारों रुपये ठग लेते हैं।

स्वामी जी ने विदेशों में व्याप्त-धर्म के इस विकृत रूप को देखकर कहा था, जो धर्म वैज्ञानिकता से घबराता है, तर्क तथ्य-प्रमाणों का नाम सुनकर जिसकी नानी मरती है, उसका नष्ट हो जाना ही उचित हैं। उन्होंने आगे स्पष्ट करते हुए कहा था कि वेदान्त के चिन्तकों को विज्ञान का स्वागत करने के लिए तैयार रहना चाहिए। उनके लिए ऋषियों ने अभय का सूत्र दे रखा हैं। वेदान्त का ब्रह्म किसी ऑफिस में बैठकर आदेश नहीं चलाता। जिसकी कुर्सी उलटने की सम्भावना बन पड़े। वह तो सर्व व्याप्त हैं। प्रकृति के कण-कण में साथ ही आस्तिकों, नास्तिकों, वैज्ञानिकों, सभी के हृदय में समान रूप से उसकी उपस्थिति है।

आज से लगभग 100 वर्ष पूर्व अपने वक्तव्य में स्वामी जी ने स्पष्ट किया था- कि विज्ञान कुछ नहीं अपितु एकता ढूंढ़ रहा हैं। जैसे ही एकता की उपलब्धि हुई। विज्ञान अध्यात्म में मिल जायेगा। क्योंकि यही इसका ध्येय हैं। रसायन विज्ञान की चरम प्रणति मूलतत्व की खोज में हैं। इस मूलतत्व से ही सारे तत्व अभिव्यक्त हुए हैं। यही इसका चरतादर्श होगा। ठीक इसी तरह से भौतिक शास्त्र की पूर्णता-पदार्थ नहीं सर्व व्याप्त ऊर्जा की खोज में होगी। विज्ञान की सरित इस प्रकार अपने बहाव की परिसमाप्ति पर अध्यात्म के सागर में लीन हो जायेगी।

विज्ञान-अध्यात्म के समन्वय के मंत्र द्रष्टा एक ऋषि का भविष्य कथन उनके दिये गए वक्तव्य के ठीक चालीस वर्ष बाद तब पूरा हो गया, जब क्वाँटम फिजिक्स के जन्मदाता मैक्स प्लैंक उन्हीं के कथन को दोहराने लगे। इस सुप्रसिद्ध भौतिक शास्त्री ने बताया कि विज्ञान लगातार बिना रुके प्रगति करता चला जा रहा हैं। इसका उद्देश्य एकतत्व मूलतत्व की प्राप्ति हैं। इस लक्ष्य की प्राप्ति अन्त प्रज्ञा से ही होगी बौद्धिक विवेचना से नहीं। क्वाँटम थ्योरी के प्रवेश के बाद अब एकतत्व का मार्ग प्रशस्त हो गया हैं। जिसे “ग्राण्ड सूनिफिकेशन ऑफ फोर्सेस” कहा जाता हैं।

प्रख्यात विज्ञान वेत्ता ग्रे जुकाव ने अपने ग्रन्थ दि वु लाई मार्स्टस में “ विज्ञान का अन्त” शीर्षक में बताया हैं, विज्ञानवेत्ताओं की जननी पश्चिमी सभ्यता विज्ञान की संकीर्ण परिधि लांघ कर मानवीय अनुभूतियों के उन आयामों में प्रवेश कर रही हैं।

वेदान्त के उत्कृष्ट चिन्तन से प्रभावित प्रो. विलियम जेम्स ने कहा था-वैज्ञानिकों को वेदान्त के चिन्तन से दिशा मिल सकती हैं। उनने बताया कि विज्ञान का लक्ष्य वेदान्त में ही हैं भौतिकी विद् वारनर हाइजेन वर्ग ने अपने ग्रन्थ “दि पार्ट एण्ड होल” में इस कथन को महत्वपूर्ण बताते हुए कहा है कि वैज्ञानिक जगत में इसकी महती आवश्यकता हैं।

वारनर हाईजेन वर्ग का कथन मात्र वाग्विलास हो, ऐसा नहीं हैं। उनने अपने एक संस्मरण में लिखा है कि इंग्लैण्ड में मेरी मुलाकात श्री रवीन्द्र नाथ टैगोर से हुई। उनसे हुई वेदान्तिक चर्चा ने ही शोध कार्य में मेरा मार्ग प्रशस्त किया।

उनने आगे बताया है कि “क्वाँटम फिजिक्स में कार्य प्रारम्भ करने के बाद-लेक्चर टूर के लिए भारत आने पर मैं उनका अतिथि हुआ-तथा उस समय उनसे हुई विशद् वेदान्तिक विवेचना ने रहे सहे सन्देह दूर कर दिए और मैं विज्ञान जगत को एक नई शोध देने में समर्थ हुआ।”

वेदान्त की वैज्ञानिकता से मात्र हाइजेनवर्ग ही नहीं स्क्रीडिंगर, नील्स बोर, जेरमी, ब्रेन स्टेन आदि बहुत अधिक प्रभावित हुए। स्क्रोडिंगर ने वेदान्त औंर क्वाँटम फिजिक्स के अन्तर सम्बन्धों के वैज्ञानिक आध्यात्म वाद पर डपदक दक उंजजमत (मन व पदार्थ) तथा डल अपमू विजीम वतसक (संसार के प्रति मेरा दृष्टिकोण) जैसे उत्कृष्ट ग्रंथ भी लिखे हैं।

इन वैज्ञानिकों द्वारा प्रस्तुत की गई विवेचनाओं का अध्ययन करने पर स्पष्ट होता है कि विज्ञानवेत्ता बुद्धिवाद तथा जड़वाद की संकीर्ण सीमाओं को तोड़ने के लिये प्रयत्नशील हैं। अध्यात्मवेत्ताओं का कर्तव्य हैं कि वे भी लोक मान्यताओं, चित्र-विचित्र प्रचलनों की विडम्बनाओं में मुक्त हों, तभी इसमें सही ढंग से निखार आ सकेगा। इस कार्य को यदि वेदान्तिक चिन्तन को आदर्श मान कर कार्यान्वित किया जाय तो उचित दिशा−दर्शन के साथ समुचित सफलता मिल सकेगी।

विज्ञान आध्यात्म का यह समन्वय सहयोग समूची मानव जाति को भौतिक समृद्धि तथा आत्मिक प्रगति प्रदान करने वाला सिद्ध हो सकेगा। यह एक प्रकार का ऐसा समुद्र मंथन होगा जिसकी उपलब्धियाँ मानव जाति को गौरवान्वित करेंगी, ऐसे अजस्र अनुदान भी प्रदान करेंगी जिससे मानव कृतकृत्य हो सके।

अति निकट और अति दूर की उपेक्षा करना मानव का सहज स्वभाव है। यह उक्ति जीवन सम्पदा के हर क्षेत्र में लागू होती हैं। जीवन हम घड़ी जीते हैं, पर न तो उसकी गरिमा समझते और न सोच पाते हैं कि इसके सदुपयोग से क्या-क्या सिद्धियां उपलब्ध हो सकती है। प्राणी जन्म लेता और पेट प्रजनन की, प्राकृतिक उत्तेजनाओं से विक्षुब्ध होकर, निर्वाह की जरूरतें पूरी करते हुए दम तोड़ देता हैं। ऐसे क्षण कदाचित ही कभी आते हैं, जब यह सोच हो कि स्रष्टा की तिजोरी का सर्वोपरि उपहार मनुष्य जीवन हैं। जिसे अनुग्रह पूर्वक यह जीवन दिया गया हैं। उससे यह आशा की गई हैं कि वह उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग करेगा। अपनी अपूर्णता पूरी करके तुच्छ से महान बनेगा, साथ ही विश्व उद्यान को कुशल माली की तरह सीँचते-संजोते, यह सिद्ध करेगा कि उसे स्वार्थ और परमार्थ के सही रूप का ज्ञान हैं। स्वार्थ इसमें हैं कि पशु प्रवृत्तियों की कुसंस्कारिता से पीछा छुड़ाएं और सत्प्रवृत्तियों की आवश्यक मात्रा में अवधारणा करते हुए उस परीक्षा में उत्तीर्ण हों, जो धरोहर का सदुपयोग कर सकने के रूप में सामने प्रस्तुत हुई हैं। जो उसमें उत्तीर्ण होता है। वह देव मानव की कक्षा में प्रवेश करता हैं। अपना ही भला नहीं करता, असंख्यों को अपनी नाव में बिठाकर पार करता हैं। ऐसों को ही अनिन्दनीय, अनुकरणीय महामानव कहा जाता है। तृप्ति, तुष्टि-शान्ति के त्रिविध आनन्द ऐसों को ही मिलते हैं।

मनुष्य जीवन दिव्य सत्ता की एक बहुमूल्य धरोहर हैं, जिसे सौंपते समय उसकी सत्पात्रता पर विश्वास किया जाता हैं। मनुष्य के साथ यह पक्षपात नहीं है वरन् ऊंचे अनुदान देने के लिये यह प्रयोग परीक्षण है। अन्य जीवधारी शरीर भर की बात सोचते और क्रिया करते हैं, किन्तु मनुष्य को स्रष्टा का उत्तराधिकारी युवराज होने के नाते अनेकानेक कर्तव्य और उत्तरदायित्व निबाहने पड़ते हैं। उसी में उसकी गरिमा और सार्थकता हैं। यदि पेट प्रजनन तक, लोभ मोह तक उसकी गतिविधियाँ सीमित रहें तो उसे नर पशु के अतिरिक्त और क्या कहा जायेगा? लोभ-मोह के साथ अहंकार और जुड़ जाने पर तो बात और भी अधिक बिगड़ती हैं। महत्वकांक्षाओं की पूर्ति के लिये उभरी अहमन्यता अनेकों प्रकार के कुचक्र रचती और पतन पराभव के गर्त में गिरती हैं। अहंता से प्रेरित व्यक्ति अनाचारी बनता हैं और आक्रामक भी। ऐसी दशा में उसका स्वरूप और भी भयंकर हो जाता हैं। दुष्ट दुरात्मा एवं नर पिशाच स्तर की आसुरी गतिविधियाँ अपनाता हैं। इस प्रकार मनुष्य जीवन जहाँ श्रेष्ठ-सौभाग्य का प्रतीक था, वहाँ वह दुर्भाग्य और दुर्गति का कारण ही बनता हैं। इसी को कहते है वरदान को अभिशाप बना लेना। दोनों ही दिशाएं हर किसी के लिए खुली हैं। जो इनमें जिसे चाहता हैं। उसे चुन लेता हैं। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप जो हैं।

साधकों में भिन्नता देखी जाती हैं। उनके भिन्न-भिन्न इष्ट देव उपास्य होते हैं। उनसे अनुग्रह अनुकंपा की आशा की जाती है और विभिन्न मनोकामनाएं पूर्ण करने की अपेक्षा रखी जाती हैं। इनमें से कितने सफल होते हैं। इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता हैं, क्योंकि पराधीनता की स्थिति में स्वामी की इच्छा पर सब कुछ निर्भर रहता है। सेवक तो अनुनय विनय ही करता रह सकता हैं। किन्तु जीवन देवता के संबंध में यह बात नहीं है। उसकी अभ्यर्थना सही रूप में बन पड़ने पर, वह सब कुछ इसी कल्प वृक्ष के नीचे प्राप्त किया जा सकता है, जिसकी कहीं अन्य से पाने की आशा लगाई जाती है।

ब्रह्मांड का छोटा सा रूप पिण्ड परमाणु हैं। जो ब्रह्मांड में हैं वह सब कुछ पदार्थ के सबसे छोटे घटक परमाणु में भी विद्यमान हैं और सौर मंडल की समस्त क्रिया-प्रक्रिया अपने में धारण किये हुए हैं। इसे विज्ञानवेत्ता ने एक स्वर से स्वीकार किया हैं। इसी प्रतिपादन का दूसरा पक्ष यह है कि परम सत्ता ब्रह्मांडीय चेतना का छोटा किन्तु समग्र प्रतीक जीव हैं। वेदान्त दर्शन के अनुसार आत्मा ही परमात्मा हैं। तत्व दर्शन के अनुसार इसी काय कलेवर में समस्त देवताओं का निवास हैं। परब्रह्म की दिव्य क्षमताओं का समस्त वैभव जीवब्रह्म के प्रसुप्त संस्थानों में समग्र रूप से विद्यमान हैं। यदि उन्हें जगाया जा सके तो विज्ञात अतीन्द्रिय क्षमतायें और अविज्ञात दिव्य विभूतियाँ जाग्रत, संयम एवं क्रियाशील हो सकती हैं। तपस्वी योगी, ऋषि, मनीषी, महामानव सिद्ध पुरुष ऐसी ही विभूतियों से सम्पन्न देखे गये हैं। तथ्य शाश्वत और सनातन हैं। जो कभी हो चुका हैं। वह अभी भी हो सकता हैं। जीवन देवता की साधना से ही महान सिद्धियां प्राप्त होती हैं। कस्तूरी के हिरण जैसी बात है। बाहर खोजने में थकान और खीझ ही हाथ लगती हैं। शान्ति तब मिलती हैं जब जब उस सुगंध का केन्द्र अपनी ही नाभि में होने का पता चलता हैं। परमात्मा के साथ संपर्क स्थापित करने के लिए अन्यत्र खोजबीन करने की योजना व्यर्थ हैं। वह एक देश काल तक सीमित नहीं है, कलेवरधारी भी नहीं। उसे अति निकटवर्ती क्षेत्र में देखना हो तो वह अपना अन्तः करण ही हो सकता हैं। समग्र जीवन इसी की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति हैं।

गीताकार ने उस परब्रह्म को श्रद्धा में ही समाहित बताया हैं और कहा हैं कि जिसकी जैसी श्रद्धा हो वह वैसा ही हैं, जो अपने को जैसा मानता हैं वह वैसा ही बन जाता हैं। यदि अपने को तुच्छ और हेय समझा जाता रहा जायेगा तो व्यक्तित्व उसी ढांचे में ढल जायेगा।जिसने अपने अन्दर महानता आरोपित की है। उसे अपना व्यक्तित्व गरिमा से ओत-प्रोत दिखाई पड़ेगा।

परमात्मा सब कुछ करने में समर्थ हैं। उसमें समस्त विभूतियाँ विद्यमान हैं। इसी शास्त्र वचन को यों भी कहा जा सकता है कि उसका प्रतीक प्रतिनिधि-उत्तराधिकारी युवराज भी, अपने सृजेता की विशेषताओं से सम्पन्न हैं। कठिनाई तब पड़ती है। जब आत्म-विस्मृति का अज्ञानान्धकार अपनी सघनता से वस्तु स्थिति को आच्छादित कर लेता हैं। अंधेरे में झाड़ी को भूत और रस्सी को साँप के रूप में देखा जाता हैं। जिधर भी कदम बढ़ाया जाये उधर ही ठोकरें लगती हैं, किन्तु यदि प्रकाश की व्यवस्था बन जाये तो सब कुछ यथावत दिखाई पड़ेगा। आत्मबोध को उस प्रकाश का उदय माना जाता है, जिसमें अपने सही स्वरूप का आभास भी मिलता है और मार्ग ढूंढ़ने में भी विलम्ब नहीं लगता।

भेड़ों के झुण्ड में पले सिंह शावक की कथा सर्वविदित हैं। अपने इर्द-गिर्द का वातावरण और प्रचलन मनुष्य को अपने ही समूह में घसीट ले जाता हैं। पर जब आत्मबोध होता हैं तब पता चलता हैं कि आत्म सत्ता “शुद्धोडसि-बुद्धाकडसि-निरजंनोडसि” के सिद्धांत को अक्षरशः चरितार्थ करती हैं। “मनुष्य भटका हुआ देवता हैं” इस कथन में उसका सही विश्लेषण देखा जा सकता हैं। यदि भटकाव दूर हो जाये तो समझाना चाहिए कि समस्त समस्याओं का हल निकल आया, समस्त भवबंधनों से छुटकारा मिल गया। मोक्ष और कुछ नहीं अपने संबंध में जो अचिन्त्य-चिन्तनवश भूल हो गई हैं, उससे त्राण पा लेन का परम पुरुषार्थ है। मकड़ी अपने लिए जाला अपने भीतर का द्रव निकाल कर स्वयं ही बुनती हैं, स्वयं ही उसमें उलझती और छटपटाती हैं, किन्तु देखा गया हैं कि जब उसमें उमंग उठती है तो उस जाले को समेट बटोर कर स्वयं ही निगल भी जाती हैं। हेय जीवन स्वकृत हैं। जैसा सोचा गया, चाहा गया, माना गया, वैसी ही परिस्थितियाँ बन गई। अब उस बदलने का मन हो तो मान्यताओं आकांक्षाओं और गतिविधियों को उलटने की देर है। निकृष्ट को उत्कृष्ट बनाया जा सकता हैं। क्षुद्र से महान बना जा सकता हैं।

“साधना से सिद्धि” का सिद्धांत सर्वमान्य हैं। देखना इतना भर है कि साधना किसकी की जाय। अन्यान्य इष्ट देवों के बारे में कहा नहीं जा सकता कि उनका निर्धारित स्वरूप और स्वभाव वैसा है या नहीं, जैसा कि सोचा जाना गया हैं। इसमें संदेह होने का कारण भी स्पष्ट हैं। समूची विश्व व्यवस्था एक है। सूर्य, चन्द्र, पवन आदि सार्वभौम हैं। ईश्वर भी सर्वजनीन है, सर्वव्यापी भी। फिर उसके अनेक रूप कैसे बने? अनेक आकार-प्रकार और गुण स्वभाव का उसे कैसे देखा गया? मान्यता यदि यथार्थ हैं तो उसका स्वरूप सार्वभौम होना चाहिए। यदि वह मतमतान्तरों के कारण अनेक प्रकार का होता है, तो समझना चाहिए की यह मान्यताओं की ही चित्र-विचित्र अभिव्यक्तियाँ हैं। ऐसी दशा में सत्य तक कैसे पहुँचा जाये? प्रश्न का सही उत्तर यह है कि जीवन को ही जीवित जाग्रत देवता माना जाये। उसके ऊपर चढ़े कषाय-कल्मषों का परिमार्जन करने का प्रयत्न किया जाय। अंगार पर राख की परत जम जान पर वह काला कलूटा दिख पड़ता हैं, पर जब वह परत हटा दी जाती है तो भीतर छिपी अग्नि स्पष्ट दिखने लगती है। साधना का उद्देश्य इन आवरण आच्छादनों को हटा देना भर है। इसे प्रसुप्ति को जागरण में बदल देना ही कहा जा सकता हैं।

आध्यात्म विज्ञान तत्ववेत्ताओं ने अनेक प्रकार के साधना उपचार बताए हैं। यदि गंभीरतापूर्वक उनका विश्लेषण विवेचन किया जाये तो प्रतीत होगा कि यह प्रतीक पूजा और कुछ नहीं मात्र आत्म परिष्कार का ही बाल बोध स्तर का प्रतिपादन हैं। पात्रता और प्रखरता का अभिवर्धन ही योग और तप का लक्ष्य हैं। पात्रता एक चुम्बक है जो अपने उपयोग की वस्तु-शक्तियों को अपनी और सहज ही आकर्षित करती रहती है। मनुष्य में विकसित हुए देवत्व का चुम्बक संसार में संव्याप्त शक्तियों और परिस्थितियों को अपनी और आकर्षित करता रहता हैं। जलाशय गहरे होते हैं। सब और से पानी सिमटकर इकट्ठा होने के लिए उनमें जा पहुँचता हैं। समुद्र में सभी नदियाँ जा मिलती हैं। यह उसकी गहराई का ही प्रतिफल है। पर्वत की चोटियों पर यदि शीत की अधिकता से बर्फ जम जाये तो गर्मी पड़ते ही पिघल जाता है और नदियों से होकर समुद्र में पहुँच कर रुकता हैं। इसी को कहते हैं “पात्रता”। पात्रता का अभिवर्धन ही साधना का मूलभूत उद्देश्य हैं। ईश्वर को न किसी की मनुहार चाहिए और न उपहार। वह छोटी मोटी पेट पूजाओं से या स्तवन गुणगान से प्रसन्न नहीं होता। ऐसी प्रकृति तो क्षुद्र लोगों की होती है। भगवान का ऐसा मानस नहीं। वह न्यायनिष्ठ और विवेकवान हैं। व्यक्तित्व में उत्कृष्ट आदर्शवादिता का समावेश होने पर जो गरिमा उभरती है। उसी के आधार पर वह प्रसन्न होता और अनुग्रह बरसाता हैं। उसे फुसलाने बरगलाने का प्रयास करने वालों की बाल क्रीडा निराशा ही प्रदान करती है।

ऋषि ने पूछा- “कस्मै देवाय हविषा विधेम” अर्थात् “हम किस देवता के लिए यजन करें” उसका सुनिश्चित उत्तर है, आत्म देव के लिए। अपने आप को चिन्तन, चरित्र और व्यवहार की कसौटियों पर खरा सिद्ध होना ही वह स्थिति है, जिसे सौ टंच सोना कहते है। पेड़ पर फल-फूल ऊपर से टपक कर नहीं लदते, वरन् जड़ें जमीन से जो रस खींचती हैं उसी से वृक्ष बढ़ता है और फलता-फूलता है। जड़े अपने अन्दर हैं, जो समूचे व्यक्तित्व को प्रभावित करती हैं। इसी प्रखरता के आधार पर वे सिद्धियां-विभूतियाँ प्राप्त होती हैं। जिनके आधार पर अध्यात्मिक महानता और भौतिक प्रगतिशीलता के उभय पक्षीय लाभ मिलते है। यही उपासना, साधना और आराधना का समन्वित स्वरूप है। यही वह साधना है जिसके आधार पर सिद्धियां और सफलताएं सुनिश्चित बनती हैं। दूसरे के सामने हाथ पसारने गिड़गिड़ाने भर से पात्रता के अभाव में कुछ प्राप्त नहीं होता। भले कही वह दानी परमेश्वर ही क्यों न हों। कहा गया हैं कि ईश्वर केवल उनकी सहायता करते हैं, जो अपनी सहायता करने को तत्पर है। आत्मपरिष्कार, आत्मशोधन, यही जीवन साधना है। इसी को परम पुरुषार्थ कहा गया है। जिनने इस लक्ष्य को समझा, जानना चाहिए कि उनने अध्यात्म तत्व ज्ञान का रहस्य और मार्ग हस्तगत कर लिया, चरम लक्ष्य तक पहुंचने का राजमार्ग पा लिया।


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