हमीं आमंत्रित करते हैं इन विपत्तियों को

September 1988

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प्रकृति गौमाता की तरह उपकारी भी है और आक्रामक सिंहनी की तरह खूँखार भी। गाय को ठीक तरह पालने वाले उससे दूध, बछड़े आदि के रूप में बहुत कुछ प्राप्त करते हैं। किन्तु जो सिंहनी की माँद पर पत्थर फेंक कर उसे छेड़ने पर उतारू होता है उन्हें बदले में ऐसा दंड भी सहना पड़ता है, जिसे देखने वाले तक कुछ नसीहत ग्रहण कर सकें। दर्पण में अपना ही मुँह दीखता है। गुम्बज में अपनी ही आवाज गूँजती है। छाया दिशा का अनुगमन करती है जिसे चलने वाला अपनाये हुए होता है। प्रकृति व्यवस्था और उसकी रीति नीति भी इसी प्रकार की है।

विषपान जैसे उद्धत आचरण करने वाले मौत के मुँह में जाते रहते हैं। जिन्हें आरोग्य से प्रेम है वे बलिष्ठ बनने के लिए आवश्यक संयम व्यायाम अपनाते और कुछ ही दिनों में पहलवान बन जाते हैं। क्रिया की प्रतिक्रिया का यह नियम सर्वत्र सर्वदा चलता रहता है। भोजन पकने भी कुछ देर तो लग ही जाती है। आवे में कुम्हार के बर्तन तत्काल ही कहाँ पकते हैं? बीज को वृक्ष बनने में भी देर लगती है। इस विधा को गंभीरता पूर्वक न समझ पाने वाले आतुर लोग ही ऐसा सोचते हैं कि कोई कुछ भी मन-मर्जी का करते रह सकता है और अपनी चतुराई के बल पर परिणति की सुनिश्चित विधा से बचा रह सकता है। पर अदूरदर्शी समझ प्रायः गलत ही निकलती है।

निजी जीवन में किये गये भले बुरे कृत्यों का परिणाम व्यक्तिगत रूप से भुगतना पड़ता है पर जो गतिविधियाँ सामूहिक प्रचलन के रूप में चल पड़ती हैं, उनका प्रतिफल समूचे समाज में संसार को भुगतना पड़ता है। कारण कि हर मनुष्य एक समग्र समाज का अविच्छिन्न अंग है। उसका कर्तव्य बनता है कि न केवल स्वयं सही रीति नीति को अपनाये वरन् दो कदम आगे बढ़ कर अन्यान्यों को भी अनीति छोड़ने एवं नीति अपनाने के लिए प्रभावित एवं बाधित करे। जो अपनेपन की परिधि निजी जीवन तक ही सीमित करना चाहते हैं, वे भूल करते हैं। जब उनका निर्वाह और विकास सार्वजनिक सहयोग के आधार पर चलता है तो कोई कारण नहीं कि सामाजिक गतिविधियों की उपेक्षा की जाय। छत की मजबूती देखना और समय रहते संभालना उन सभी का कर्तव्य था जो कि उसके नीचे बैठकर ऋतु प्रवाह से बचने का लाभ उठाते थे। सावधानी मात्र अपने संबंध में ही बरती जाय यह पर्याप्त नहीं। समुदाय के एक अविच्छिन्न अंग होने के नाते हर किसी का यह कर्तव्य बनता है कि अन्यान्यों की गतिविधियों का भी पर्यवेक्षण का और समर्थन देने या विरोध करने का निश्चय करे।

इन दिनों प्रकृति मनुष्य समुदाय से रुष्ट है। जो कुछ चल रहा है उसे देखते हुए लगता है कि वह अगले दिनों आपे से बाहर होने स्तर का क्रोध व्यक्त करेगी। इस संभावना के संबंध में सूक्ष्मदर्शी लोग बुरी तरह आशंकित और आतंकित हैं। अदृश्य जगत में चल रही गतिविधियों का गंभीर पर्यवेक्षण करने वालों का कथन है कि वातावरण का तापमान “ग्रीन हाउस प्रभाव “ के कारण तेजी से बढ़ रहा है। यही क्रम चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब ध्रुवों की बर्फ तेजी से गलेगी और समुद्र के पानी की सतह मीटरों ऊँची उठ जायेगी जिससे समुद्र तट पर बसे हुए नगर तथा नीचे बसे भू भागों में इतना पानी भर जायगा जिसमें वर्तमान आबादी और सम्पदा का बहुत बड़ा भाग उस विपत्ति के गर्भ में चला जाएगा।

नदियों-जलाशयों में औद्योगिक कारखानों का कचरा तथा उस क्षेत्र के निवासियों द्वारा उत्पन्न होते रहने वाली गंदगी गिरते रहने का अनुपात निरन्तर बढ़ रहा है। फल यह होता है कि इन जलाशयों में रहने वाले जीव जन्तु मर जाते हैं और गंदगी की सफाई के जिस कार्य को वे निरन्तर करते रहते थे वह समाप्त हो जाएगा। उस जल को समुद्री पानी की तरह न तो सिंचाई में काम लिया जा सकेगा और जो उसे पीकर जीवित रहते हैं, न उनके जीवित रहने का कोई आधार बचेगा। उस स्थिति में कितने लोग स्वस्थ रह सकेंगे कितने जीवित बचेंगे यह कहा नहीं जा सकता। जापान की “मिनी माता “ बीमारी की विभीषिका अभी तक सबको भली भाँति स्मरण होगी। यह अपने ढँग की अनोखी विपत्ति है जो इन दिनों के औद्योगीकरण से पूर्व कभी भी सामने नहीं आई। इससे किस प्रकार विश्वस्तर पर निपटा जा सकेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। सरिता, समुद्रों एवं जलाशयों को विषाक्त करने के मूल्य पर बढ़ाई जा रही सुविधा और सम्पदा तब कितनों के लिए कितने काम आ सकेगी? इसकी भयावह कल्पना कर सकना किसी के लिए भी कुछ कठिन नहीं होना चाहिए।

आहार, जल और वायु यह तीन जीवन की प्रारम्भिक आवश्यकताएँ हैं। आहार में कमी इसलिए पड़ती जा रही है कि धरती की उर्वरता जितना उत्पादन कर सकती है उसकी एक सीमा है। पर खाने वाली जनसंख्या तो दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ती जा रही है। उन सबके लिए खुराक आयेगी कहाँ से? शहरों की तेजी से अभिवृद्धि और कारखाने, निवास आवासों का विस्तार भी उपजाऊ जमीन को निरन्तर हड़पता जा रहा है। शेष जितनी भूमि बचती है, वह बढ़ी हुई आबादी के लिए निश्चित रूप से अपर्याप्त होगी। उससे इतना उत्पादन कहाँ हो सकेगा जिसके आधार पर हर किसी का पेट भर सकेगा। यह भुखमरी की पूर्व तैयारी है जिसे उत्साहपूर्वक अपनाया जा रहा है। इसे वर्तमान में इथियोपिया के भीषण अकाल एवं यू. एस. ए. के मध्य व दक्षिणी भाग में छाए अभूतपूर्व सूखे के रूप में देखा जा सकता है।

अधिक उत्पादन की आवश्यकता को देखते हुए ऐसे तात्कालिक लाभों को ही सब कुछ मान बैठने की नीति अपनाई जा रही है। भले ही उसका दुष्परिणाम अगले दिनों कितने ही भयंकर रूप में सामने क्यों न आ खड़ा हो? इस संदर्भ में उर्वरता बढ़ाने के लिए रासायनिक खादों का और फसलों को बचाने के लिए कीट नाशक दवाओं का अन्धाधुन्ध प्रयोग चल पड़ा है। रासायनिक खाद अपना जादुई चमत्कार दिखाकर कुछ दिनों उत्पादन तो अधिक कर सकती है पर उनके कारण धरती की भौतिक उर्वरता नष्ट होने पर भविष्य में ऊसर बंजर के रूप में खेतों के परिणति हो जाने का खतरा नजर अन्दाज ही किया जा रहा है। इसी प्रकार कीट नाशक औषधियाँ उस खाद्य का अंग बनती हैं जिसे इन विषों के माध्यम से बचाया गया था। विषैली वनस्पतियों की फसल मनुष्यों, पशु, पक्षियों को तो हानि पहुँचाती है। इन प्राणियों के तथा जलाशयों के माध्यम से वे मनुष्यों के शरीरों में भी जा पहुँचती है। एक अध्ययन के अनुसार यह मात्रा 01 से 03 पार्ट पर मिलियन (पी. पी. एम.) तक पायी गयी है।

आहार और जल के क्षेत्र का संकट अगले दिनों भयावह रूप में उत्पन्न होने जा रहा है इसका अनुभव सामान्यजनों को भले ही न लगे पर जो परिस्थितियों का विश्लेषण कर सकता है उन विशेषज्ञों के लिए यह तथ्य मानवी विकास के साथ दिन-दिन भयावह होता और निकट आ रहा स्पष्ट दीख पड़ता है।

अन्तरिक्ष में शुद्ध वायु की एक सीमित मात्रा है जिसे साँस द्वारा ग्रहण करके प्राणी जीवित रहता है। इस क्षेत्र में कारखाने का धुआं, अन्यान्य कामों में प्रयुक्त होने वाले ईंधन वायु मंडल में विकिरण की मात्रा निरन्तर बढ़ाते जा रहे हैं। उसके परिशोधन के लिए वृक्षों का अस्तित्व ही सबसे बड़ी ढाल रही है। अब वनों की कटाई भी बुरी तरह हो रही है। भारत में प्रतिवर्ष एक सौ तीस मिलियन टन (लगभग 13 करोड़ टन) लकड़ी काटी जाती है। ईंधन की, फर्नीचर की, इमारतों, खेतों तथा निवास की बढ़ती हुई आवश्यकता मात्र एक ही हल सुझाती है कि वृक्ष सम्पदा को तेजी से काटकर उपरोक्त तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जाय। लोग इस कारण होने वाले वर्तमान तथा भावी विपत्ति की विभीषिका को सुनते समझते तो हैं पर ऐसा कुछ कर नहीं पाते जिससे वनों का विनाश कारगर ढँग से रोका जा सके। भले ही यह मजबूरी हो, पर उसका परिणाम तो भुगतना ही पड़ेगा। साँस के काम आने वाली हवा निरन्तर दूषित और गरम होती जा रही है। फलतः प्राणी समुदाय की जीवनीशक्ति घटने से अनेकानेक चित्र-विचित्र रोगों का शिकार होना पड़ रहा है।

तेजी से बढ़ते हुए रेगिस्तान, उपजाऊ भूमि को बेदर्दी से उदरस्थ करते चले आ रहे हैं। लगातार बाढ़ें आती हैं। एक अनुमान के अनुसार प्रतिवर्ष छह से सात हजार मिलियन टन भूमि की ऊपरी उपजाऊ परत बहकर समुद्र में चली जाती है। जड़ों के कारण भूमि में जो नमी बनी रहती थी उसका, वृक्षों के अभाव का आधार न रहने से कुओं का पानी निरन्तर गहरा होता जाता है जिसे ऊपर खींचने में महंगी मेहनत तो लगती ही है साथ ही पानी भी कम मात्रा में मिलता है। एक ओर नये सुविधा साधनों के लिए पानी की मात्रा में असाधारण वृद्धि होती चले जाना और दूसरी ओर उसकी शुद्धता तथा मात्रा में कमी पड़ना ऐसा संकट है जिसका समाधान सहज नजर नहीं आता। ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत समय से जंगलों से ही लाकर लकड़ी प्राप्त कर ली जाती थी पर अब वे स्रोत समाप्त प्रायः होते जाने से गोबर के उपले जलाने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं पा रहा है। इसके कारण खेतों में उपयुक्त खाद न पहुँचने का जो विकट संकट खड़ा होने जा रहा है उससे किसी को भी बेखबर नहीं रहना चाहिए।

प्रकृति के साथ असाधारण रूप में की गई छेड़ छाड़ उसे दबाने दबोचने जैसा है। मनुष्य को जितना अधिकार और हिस्सा सहज रूप से मिला है, उतने से संतुष्ट न रह का अन्य सम्पदा प्रयोजनों के लिए प्रकृति के गर्भ में छिपा कर रखी गई सम्पदा का असाधारण उत्खनन हो रहा है। कोयला, गैस, तेल आदि को धरती की नीची परतों से उखाड़ कर ऊपर लाया जा रहा है। धातुओं की बढ़ती आवश्यकता भू-गर्भ के असाधारण उत्खनन से ही उपलब्ध की जा रही है। यह सीमित भण्डार एक शताब्दी तो दूर पच्चीस वर्षों से भी कम समय तक काम आ सकने योग्य बना है। उसके समाप्त हो जाने पर याँत्रिक सभ्यता ऊर्जा साधनों के अभाव में बेमौत मरेंगी और फिर मानवी श्रम तथा पशु श्रम पर ही उन कार्यों का आधार शेष रहेगा जा इन दिनों विशालकाय कारखाने द्रुतगामी वाहनों विशाल जलयानों द्वारा पूरा किया जाता है। सब कुछ विषाक्त कर लेने के उपरान्त भी यदि वैकल्पिक व्यवस्था स्थायी रूप से न बन पड़ी तो इसे शीत निवारण के लिए घर की झोंपड़ी जला लेने जैसी अदूरदर्शिता ही कहा जायगा।

क्रुद्ध प्रकृति, बाढ़, भूकम्प, भूविस्फोट, तूफान महामारी, सूखा, दुर्भिक्ष जैसे संकट महाविनाश की विभीषिका लेकर सामने आ खड़ी हुई है। अन्तरिक्ष की ओजोन परत में छेद हो जाने के कारण लगता है कि ब्रह्माँडीय किरणों की बौछार धरती पर होगी और उनके कारण प्रचलित व्यवस्था में भारी गड़बड़ी होगी। एक दूसरे प्रकार के वैज्ञानिक सर्वेक्षण ने यह निष्कर्ष निकाला है कि अब हिमयुग अति निकट है। पिछली जल-प्रलय, हिम-प्रलय अपनी-अपनी अवधि में धरती का नक्शा ही बदल कर रख गई हैं और उनके कारण ऐसा कुछ हो गया है कि इससे पूर्व की दुनिया और आज की दुनिया में असाधारण रूप से अन्तर उत्पन्न हो गया है। अगले दिनों भी कुछ इसी प्रकार की उथल पुथल हो तो किसी को आश्चर्य नहीं मानना चाहिए।

मनुष्य-कृत सामूहिक दुष्कर्मों का एक बड़ा पाप युद्धोन्माद है। अपना वर्चस्व आधिपत्य बढ़ाने के लिए समर्थ राष्ट्र कोई न कोई बहाना ढूँढ़ कर ऐसा युद्ध मनुष्य समुदाय पर लादने की तैयारी कर रहे हैं जिनके दुष्परिणामों में आक्रामक भी अछूता न बच सके। आयुधों में बढ़ चढ़ कर प्रमुखता प्राप्त करने और उन्हें दिग्भ्रान्त कर उकसाकर खरीदने के लिये बाधित करने वाला दुष्चक्र कम तेजी से नहीं घूम रहा है। महायुद्ध भले ही दूर हो पर छुट पुट क्षेत्रीय युद्ध तो अनेक स्थानों पर आये दिन चलते ही रहते हैं। इनके स्थानीय कारण भी हो सकते हैं पर प्रमुख कारण है आयुधों के निर्यात की मंडी खोजना। वर्चस्व स्थापित करके नयी मण्डियों को अपने प्रभाव क्षेत्र में लेना। इस निर्माण के कारण भी विकिरण पैदा होता है व उसे देखते हुए लगता है कि रासायनिक एवं आणविक आयुध संग्राम में प्रयुक्त न होने पर भी अपने निर्माण एवं भण्डार के हेतु ही अपार धन−जन का, कौशल एवं साधनों को विनाश कर चुके होंगे। यह मानवता के प्रति अपराध है। इसे रोकने के लिए उन्हें आगे बढ़कर प्रयत्न करना चाहिए जा विश्व शाँति की उपयोगिता एवं आवश्यकता समझते हैं।

उपरोक्त विनाश विभीषिकाएँ काल्पनिक नहीं, वास्तविक एवं तथ्यों पर आधारित हैं। इनको रोकने के लिए प्रकृति प्रकोप को शान्त करना होगा। इसका उपाय एक ही है कि उस मन स्थिति को बदलने का समर्थ एवं व्यापक प्रयत्न किया जाय जो अनाचार को प्रश्रय देती और विनाश संकट को न्यौत-न्यौत कर बुलाती है। इस समाधानकारक उपाय का नाम ही है- “विचार क्रान्ति अभियान।” जिसमें हर विचारशील को सम्मिलित होना चाहिए।


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