नैतिकी एवं परिस्थितिकी परस्पर अन्योन्याश्रित

September 1988

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मानव जीवन आन्तरिक एवं बाह्यतः सुखी समुन्नत एवं शाँति पूर्ण संचालित होता रहे, इसके लिए आवश्यक है कि वह औचित्यपूर्ण नीतियों तथा मर्यादाओं का नियंत्रण एवं संरक्षण स्वीकार करे। यह नियम दैनंदिन जीवन में घटित होते देखा जा सकता है। पटरी का अनुशासन तथा राह की सावधानियों की मर्यादाओं का पालन करने वाली रेलगाड़ी ही अपने गन्तव्य पर सकुशल पहुंचती है। इन मर्यादाओं का उल्लंघन उसे मात्र राह से ही विचलित नहीं करता अपितु नष्ट भी कर देता है। ठीक यही तथ्य मानव विशेष तथा मानव समुदाय पर घटित होता है। यदि कोई व्यक्ति अकेला मर्यादाओं व नीतियों का उल्लंघन करे तो इससे होने वाली हानि उसके स्वयं के जीवन को नष्ट करने के साथ परिवेश को क्षति पहुंचाने वाली होती है। पर यदि मानव समुदाय ही मर्यादाओं नीतियों का उल्लंघन करने पर उतारू हो जाय तो परिणाम स्वरूप उत्पन्न होने वाली भयावह स्थिति की कल्पना भी दुयकर होगी।

वर्तमान समय लगभग ऐसी ही स्थिति से गुजर रहा है। बुद्धिवाद के युग में तथा मात्र वर्तमान की सोचने की अदूरदर्शिता ने स्थिति को जटिल बना दिया है। आज मनुष्य अपनी बुद्धि को इसी दिशा में प्रयुक्त कर रहा है कि अधिक से अधिक सुख सुविधाएं कैसे जुटाई जाये। वह तकन की ज्ञान तथा उसका उपयोग कैसे सम्भव बन पड़े, जो जादुई छड़ी की तरह सारी वासनाओं की पूर्ति करने के साथ मालामाल कर दे। प्रचलित अर्थों में आज की बुद्धि इसे ही सृजनात्मकता या रचनात्मकता का नाम दिया है।

बुद्धि के इस स्वरूप को देखकर सुप्रसिद्ध दार्शनिक डे वुड हूम की वह उक्ति सटीक प्रतीत होती हैं जिसे उसने अपने चिन्तनीय ग्रन्थ “ट्रीटाईज ऑन हूमन नेचर” स्कध्न्ध दी के भाग द्वितीय के तीसरे अनुभाग में उल्लेखित करते हुए कहा है कि “ बुद्धि वासनाओं की दासी है।”

किन्तु यदि यह बुद्धि वासनाओं के जाल-जंजाल में फस कर मानव समुदाय के अस्तित्व को ही विनष्ट करने पर उतारू हो जाए तो उसे क्षम्य तो नहीं माना जा सकता।

अस्तित्व के विनाश की स्थिति अद्यतन समय मानव और पर्यावरण के मध्यवर्ती संबंधों को देख सहज अनुमानित की जा सकती है। “सिस्टमैटिश-जियोबार्टेनिशेज इन्स्टीट्यूट देर यूनिवर्सिटेट गोटिन जेन” के प्राध्यापक जर्मन अध्येता डॉ. हेन्ज एलनवर्ग ने इन बिगड़ते जा रहे संबंधों तथा पर्यावरण नीति में अवमूल्यन के कारण उत्पन्न स्थिति की एक झलक दिखाते हुए “ब्रिटिश इकोलाजिकल सोसाइटी” में पढ़े गए शोध पत्र “मेन्स इन्फ्लूयेन्स ऑन ट्रापिकल माउन्टेन इफोसिस्टम्स इन साउथ अमेरिका” में बताया हैं “ पेड़–पौधे हमारे स्वाभाविक मित्र है वे हमसे भी अपनी ही जैसी मित्रता की अपेक्षा करते है। “उन्होंने आगे स्पष्ट करते हुए कहा कि मनुष्य ने स्वार्थ परता की अति के कारण पर्यावरण संबंधी जो परिवर्तन किए है और करता जा रहा है उसे निसंदेह घातक ही मानना चाहिए। परिस्थिति की तन्त्र में जल असन्तुलन, खनिज सम्पदा का असाधारण दोहन तथा प्राणियों, पादपों तथा सूक्ष्म जीवों की जनसंख्या गति का निरन्तर कम होना मानवीय भविष्य को खतरे में ही डालने वाला सिद्ध होगा।

उन्होंने पेरु, न्यूजीलैण्ड, अफ्रीका, अमेरिका आदि अन्य देशों में किए सर्वेक्षण के आधार पर बताया कि मात्र वन-सम्पदा ही नष्ट नहीं हुई, पादपों के साथ जन्तुओं का का विनष्टीकरण भी हुआ। स्थिति को स्पष्ट करते हुए वे बताते हैं कि कई वन तो नाम मात्र ही बन थे। क्योंकि उनमें वृक्षों एवं जन्तुओं की स्थिति दयनीय थी।

अन्य देशों की तरह यही स्थिति स्वयं भारत की भी है। वन सम्पदा तथा सुखद पर्यावरण के लिए अपना विशिष्ट स्थान रखने वाले इस देश में लगातार बढ़ते शहरीकरण तथा शहरीकरण तथा औद्योगीकरण ने वनों को कुल भूमि के मात्र 119 प्रतिशत वें भाग में समेट दिया है। कृषि के लिए उपजाऊ भूमि भी मात्र 1479 लाख हेक्टेयर या 49 प्रतिशत ही बची है। बढ़ता शहरीकरण तथा उद्योग इसको भी विनष्ट करने पर उतारू हैं।

मानवीय चिन्तन जब संकीर्णता तथा स्वार्थपरता में फस जाता है तो उसे यही यथार्थ व औचित्यपूर्ण भासने लगता है। इसी आभास के कारण विचलित और दिशाहीन बुद्धि तरह-तरह के ऐसे चित्र-विचित्र सिद्धांत गढ़ने प्रारम्भ करती है, जो किए गए कार्यों का समर्थन करें। जे0 बेन्थम प्रिन्सिपल ऑफ मारल्स एण्ड लेजिस्लेशन में ऐसे ही सुखवाद का सिद्धांत प्रतिपादित करते है। उनके अनुसार प्रत्येक वस्तु सुख का साधन मात्र है। सुख ही हमारा स्वाभाविक लक्ष्य हैं, इसे पूरा किया ही जाना चाहिए। सिरेक्स, एपीक्यूसिस, मिल खुले हृदय से इसका समर्थन करते है। उपरोक्त सिद्धांत की समीक्षा करते हुए जे0 सेथ का “ए स्टडी ऑफ इथिकल प्रिन्सिपल” में कहना है बेपरवाह, विचारहीन जीवन ही इनका आदर्श है। कर्लाअल ने इसी कारण इसको च्पह च्ीपसवेचील या शूकर दर्शन कहा है।

आज पृथ्वी के प्रत्येक भू-भाग में इसी शूकर दर्शन को व्यवहार में लाया जला रहा है। जिन्होंने तटस्थ भाव इसके विपरित औचित्यपूर्ण कहने का प्रयत्न किया, उसकी बात को कठोरतावाद का नाम देकर उपहास किया गया। यूनान के प्रख्यात विचारक एण्टीस्थीनीज ने ऐसे सुखों को मूर्खता का जीवन माना है। नीति-शास्त्री तथा आदर्शवादी जीवन के प्रवक्ता काण्ट ने सदिच्छा को शुभ तथा ईश्वर के लिए जीवन जीने को श्रेष्ठ माना है। वह पारस्परिक सहयोग की नीति को उच्च मानता है।

सुखों के पीछे भागते मनुष्य समुदाय को आदर्शवादी बाते समझ में आने से रही। उसे तो नीत्शे का कथन “तथ्य नैतिक नहीं होते” ही भाता है। उसे तो जगत की प्रकृति भी अनैतिक प्रतीति होती है।

यही निषेधात्मक चिन्तन अन्य भागों की तरह साँख्य एवं वेदान्त के प्रवर्तक भारत में भी व्यवहार में लाया जा रहा हैं। इसी चिन्तन में ओत-प्रोत हो जाने के कारण प्रकृति का संरक्षण

तथा उसके साथ सामंजस्य का तथ्य पूरी तरह विरुमृत ही नहीं अनौचित्यपूर्ण भी लगता है।

श्रसियन चिन्तक अन्टोली गोरेलोव तथा अलेक्जेन्डर शातालोव मानव की समझ पर तरस खाते हुए “प्राब्लम्स ऑफ द कन्टेम्पारेरी वर्ल्ड” नामक पुस्तक में “मैन एण्ड दि इनवायरमेण्ट मेथडोलाजिकल एस्पेक्टस ऑफ दि प्राब्लम” शीर्षक के अंतर्गत कहते है प्रकृति का सौंदर्य नष्ट करने के साथ मनुष्य अपने वर्तमान और भविष्य को भी नष्ट कर रहा है। पर्यावरण संरक्षण के औचित्य की महत्ता व आवश्यकता बताते हुए वे कहते हैं-वह तकनीकी एवं वैज्ञानिक प्रगति जो पर्यावरण का विनाश करती हैं, पूर्णतया अनैतिक है।

इसके अनुसार मनुष्य के और प्रकृति मध्य संबंधों की समस्या भौतिक न होकर दार्शनिक और नैतिक है। प्रकृति को पूर्णतया जड़ न मानकर इसके भावनात्मक स्वरूप और संबंध का भी ध्यान रखना चाहिए। मास्को से प्रकाशित “फ्रामअर्ली वर्क्स” में के0 मार्क्स व एक एन्जेल्स भी स्पष्ट करते है मनुष्य प्रकृति के द्वारा जीता है। इस कारण उसे मृत्यू की अपेक्षा जीवन का भरण करने के लिए अपने एवं प्रकृति मध्य संबंधों को मधुर बनाना चाहिए।

गोरेलोव और शातालोव बताते है कि मानव व्यक्तित्व मात्र जैविक एवं सामाजिक आयामों में ही नहीं सिमटा हैं, उसका एक इकोलाजिक आयाम भी है। इसकी स्वाभाविक अभिन्नता के कारण इसके सुप्रभाव व कुप्रभाव भी अभिन्न ही होंगे। मनुष्य ने जिस तरह जैविक एवं सामाजिक आयाम में अपने स्वरूप का निखारने का प्रयत्न किया हैं, उससे कही अधिक आवश्यकता इस बात की है कि पर्यावरण संबंधी आयाम को सुविकसित और सौंदर्यवान बनाया जाये।

इस महत्वपूर्ण कार्य के सम्पादन के लिए वे पर्यावरण नीति शास्त्र के गठन तथा उसके परिपालन की सलाह देते है। उसके अनुसार यह नीति शास्त्र चिकित्सा नीतिशास्त्र से भी अधिक पवित्र व भावनायुक्त होना चाहिए। चिकित्सा नीति की जो संकटपूर्ण स्थिति है उससे कहीं अधिक ऊपर उठकर विचार किया जाना चाहिए। मनुष्य के जीवन रक्षण से भी अधिक महत्वपूर्ण वनस्पतियों तथा प्रकृति के अन्य घटकों का रक्षण करना। लाभ की दृष्टि से भी प्रकृति के ये घटक कहीं अधिक उपकारी है। ऐसे सुहदों को संरक्षण तथा पोषण न प्रदान कर उनका वध करना कितना हेय और निन्दनीय हैं इसकी कल्पना ही की जा सकती हैं

आँग्लदेशीय सी0 जे0 स्टार्स भी “एनवायरमेण्टल इथिक्स एण्ड बियान्ड” में उपरोक्त मत का समर्थन करते हुए कहते हैं मनुष्य ने अपने धर्म तथा व्यवहार को मात्र अपने स्वार्थ तक सीमित कर लिया है। इसे वह। दजीतवचवबमदजतपब (मानव केन्द्रित) का नाम देते है। उनके अनुसार प्रकृति के विभिन्न घटकों से भी इसी स्तर का व्यवहार किया जाना चाहिए।

आँग्लदेश के ही लन्दन निवासी मनीषी जाँन॰ जे0 काम्पटन “साइन्स एण्ड गाड्स एक्शन इन नेचर” में प्रतिपादित करते हैं कि प्रकृति ईश विनिर्मित हैं, जिसे स्वार्थांध विज्ञान ने ध्वस्त किया है। इसके पीछे मानवीय विचारहीनता ही झाँकती हैं। मनुष्य को अपने विचारों को परिष्कृत पर्यावरण के साथ वैसा ही संदय और सुहद व्यवहार करना चाहिए जैसा वह अपन सगे सम्बन्धियों के साथ करता है। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त चिन्तक बर्ट्रेंड रसेल अपने ग्रन्थ साइन्अिफिक आउटलुक में बताते है कि एक नये नैतिक मूल्य की आवश्यकता है वह यह कि मनुष्य प्रकृति के विभिन्न घटकों के साथ सम्मान और सहयोग का व्यवहार करें।

इसी तथ्य को कनाडा के पर्यावरण शास्त्री नारमन एवं मोर्स कानाडियन इनवायरमेण्टल एडवाइजरी काउंसिल में पढ़े गए अपने शोध पत्र” “इनवायरमेण्टल इथिक्स इट्स फंक्शन एण्ड इम्पलीकेशन” को प्रतिपादित करते हुए बताया है कि पश्चिमी संस्कृति में हमने अपनी नैतिकता का दायरा मनुष्यों तक ही सीमित कर लिया है। सीमाबद्धता की यह संकीर्णता ही आज की सबसे बड़ी समस्या हैं जिससे ग्रसित होकर प्रकृति के साथ हम अपने संबंधों एवं दायित्वों को भूल बैठे है। अब वह समय आ गया है जब हमें अपने इन मधुर संबंधों का स्थापन कर लेना चाहिए। हमें ऐसे नीतिशास्त्र का निमार्ण करना चाहिए जिसके आधार पर हम इन मधुर संबंधों को चिरस्थायी बना सके।

अमेरिका की काउंसिल आँन् इन्वायरमेण्टल क्वालिटी एण्ड दि डिपार्टमेण्ट ऑफ स्टेट न्यूयार्क के जी0 ओ॰ बारनी तथा उनके सहयोगियों ने राष्ट्राध्यक्ष को प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट “ग्लोबल-1000” में उल्लेखित किया है कि हमारा वर्तमान नीतिशास्त्र हमें पर्यावरण को गाली देना व विनष्ट करना ही सिखा रहा है। इसी कारण हम केवल प्रकृति घटकों से डकैती भर डालते है। इससे जसे हानियां हुई है। उसके कारण सारे स्त्रोत समाप्त होते जा रहे हैं। इसी कारण हमने जल प्रदूषित किया, वन समाप्त हुए, हवा खराब हुई तथा जंगली जानवरों का खात्मा हुआ। अपनी इसी रिपोर्ट में वह आगे बताते है कि हम केवल मनुष्यों की जनसंख्या बढ़ा रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप प्रति कैपिटा जनसंख्या के अनुसार पर्यावरण उसकी आवश्यकताएं नहीं पूरी कर पायेगा। उससे जो कुछ मिलेगा भी वह सभी जहरीला होगा। इस संकट पूर्ण स्थिति के निवारण के लिए पर्यावरण और मनुष्य के बीच नैतिक संबंधों का स्थान तथा दृढ़ता से परिपालन होना चाहिए।

इन नैतिक संबंधों का आधार एवं स्वरूप क्या हो? किस तरह उनका स्थापन किया जाये? यह समस्या वर्तमान विश्व के सामने है। इस समस्या का औचित्यपूर्ण समाधान करते हुए अमेरिका में न्यूयार्क के अध्येताइयान जी0 बारबर “टेक्नोलॉजी व एन्वायरमेण्ट एण्ड हूमेन वैल्यूज” में कहते है कि इसका सरल समाधान अध्यात्म विशेषतः भारतीय अर्थों में अभिप्रेत अध्यात्म है। प्रथमतः इस विधि के द्वारा मनुष्य स्व व्यक्तित्व को सुरक्षित बनाये रख सकता है। द्वितीय यह मनुष्य को यथार्थ और आदर्श का समन्वित रूप समझाते हुए प्रकृति को भी चेतना सत्ता का स्वरूप समझने पर बल देता तथा उसके प्रति सदय व स्नेह युक्त व्यवहार की प्रेरणा देता है। तृतीय जहाँ धर्म विहीन तकनीकी ज्ञान हमें अपने को नष्ट करने की शक्ति प्रदान करता है। वहीं अध्यात्म सौम्यता तथा स्वार्थपरता से मुक्ति सिखता तथा स्वयं के साथ अपने परिवेश जिसे मानव, मानवेत्तर प्राणी व प्रकृति के घटक सम्मिलित हैं, के साथ सहयोग व सद्भाव का व्यवहार सिखाता है।

श्री बारबर का यह कथन भले ही किसी को उपहासास्पद या अतिशयोक्तिपूर्ण प्रतीत हो किन्तु उपरोक्त तथ्य पर गम्भीर मनन, नीति विषयक क्षेत्र में भारतीय आध्यात्म का गौरव व महत्व स्वीकारे बिना नहीं रह सकता। वैदिक ऋषि इस नीति के कितने मर्मज्ञ थे, प्रकृति के साथ उन्होंने कितना सौजन्यपूर्ण संबंध स्थापित किया था। इसे वैदिक वाङ्मय के अवलोकन से जाना जा सकता है। यजुर्वेद के 13 वे मण्डल के 29 सूक्त की एक ऋचा के अनुसार जो चिरन्तन नियम (सौजन्यतापूर्ण नीति) का पालन करेगा उसके लिए वायु मधुरता से भरी होगी, नदियाँ उसे मधुरता प्रदान करेंगी। सारी वनस्पति उसके लिए मधुर होगी।

इस नीति को और अधिक स्पष्ट करते हुए मुण्डक उपनिषद् का ऋषि द्वितीय मुण्डक के 9 वीं श्रुति में कहता है मनुष्य के साथ पशु पक्षी वनस्पतियाँ सभी परम सत्ता द्वारा ही उपजाए है। इसी कारण पारस्परिक सहयोग का भाव ही अपेक्षित है। इसी भाव से भावित वातावरण को संरक्षण प्रदान करता हुआ ऋग्वेद का ऋषि इसके पाँचवें मण्डल 71 वे सूक्त के 11,12 वे मंत्र (आपो औषधि स्याद्रे) में वातावरण से मानव समाज की कल्याण कामना करता हुआ कहता है “ पौणे-वृक्ष हमें संरक्षण प्रदान करें।”

वैदिक वाङ्मय में इसी तरह अनेकों मंत्र हैं जो पर्यावरण नीति को स्पष्ट करते है। गुलेफ विश्व विद्यालय कनाडा के प्राध्यापक डॉ. ओ॰ पी0 द्विवेदी वर्ल्ड हेल्थ आर्गनाइजेशन साउथ ईस्ट ऐशिया रीजन के लिए 30 सितम्बर 1974 को तैयार की गई अपनी रिपोर्ट “प्रपोज्ड नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ इनवायरमेण्टस एण्ड रीजनल सेर्न्टस एण्ड दि स्टेट ऑफ इन्डार मेण्टल एजुकेशन इन दि स्टेट आँ उत्तरप्रदेश, इण्डिया” में कहते हैं। कि पर्यावरण क सन्तुलन के लिए मानविकी तथा समाज विज्ञान के ही सदृश पर्यावरण नीतिशास्त्र के अघ्ययन को प्रारम्भ करना चाहिए। साथ ही इन नीतियों का व्यापक स्तर पर प्रचार तथा परिपालन होना चाहिए। डॉ. द्विवेदी इंटरनेशनल रिव्यू एडमिनिस्ट्रेशन सर्विसेज के वाल्यम 40 में प्रकाशित अपने एक शोध पत्र “इण्डिया वाँल्यूशन कन्ट्रोल पालिसी एण्ड प्रोग्राम” में अपना मन्तव्य स्पष्ट करते है कि “औद्योगिकीकरण के बल पर विकसित कहे जाने वाले राष्ट्रों की तकनीक उधर लेकर प्रदूषण का सुधार करना भारत के लिए लाभदायक नहीं हैं।”

निःसंदेह डाद्ध द्विवेदी के कथन में यथार्थता है। शहरों के विकेन्द्रीकरण तथा बड़े उद्योगों के स्थान पर कुटीर उद्योगों को स्थान दिए बिना पर्यावरण के सन्तुलन की आशा दुराशा ही होगी। मानव की सामाजिक तथा पर्यावरण संबंधी नीति का आधार प्रस्तुत करते हुए गीताकार इसके तीसरे अध्याय के 11 वें श्लोक में कहता हैं “देवान्भावयतानेन ते देवा भवयन्तुव। परस्पर भवयन्त ज्ञेख् परमवाप्स्यथ॥ 11॥” अर्थात् प्रकृति पर्यावरण के विभिन्न घटक रूप देवताओं जल (वरुण), वायु (मरुत), पृथ्वी की तुम सब उन्नति करो, वे तुम लोगों की उन्नति करेंगे। इस प्रकार आपस में कर्तव्य समझ कर उन्नति करते हुए तुम सब परम कल्याण को प्राप्त होगे।”

निश्चित ही सर्व नीतियों का परम आधार गीता के उपरोक्त श्लोक में हैं। इसको अपनाकर मानव व्यक्ति व समुदाय बाह्य समृद्धि व उन्नति तथा आन्तरिक शान्ति एवं आनन्द सहज ही प्राप्त कर सकता है। सुखभोग-वाद की नीति तथा बुद्धिवाद की दिशाहीनता से जो अस्तित्व संकट तथा अंधकार पूर्ण भविष्य की काली छाया दिखाई पड़ रही है। उसके दूर होने के आसार निश्चित रूप से सम्भव बन सके। इक्कीसवीं सदी अनेकों संभावनाएं सामने लेकर आ रही है। इसमें नैतिकी को परिस्थितिकी को दिशा देनी होगी। ताकि पर्यावरण से की गई खिलवाड़ का प्रायश्चित किया जा सके। ऐसा हो सका तो ही हम सतयुगी व्यवस्था की आधारभूमि खड़ी कर सकेंगे।

पैर मल-मल कर धोये और उससे एक बड़ा कलश भर लिया। उसी को ज्यों का त्यों पिलाने लगे। एक बूँद देने भर की कृपणता भी उनने नहीं अपनाई। इतने पर भी किसी को कोई लाभ नहीं हुआ। सभी रोगी निन्दा करने अपशब्द कहने और झगड़ने लगे।

ऐसा क्यों हुआ? उसका समाधान पूछने के लिए गुरु शिष्य के पास पहुँचे। सारा हाल बताया। शिष्य ने ध्यानपूर्वक सुना और प्रार्थना पूर्वक कहा-देव, मेरे मन में आपके प्रति आपके चरणोदक के प्रति असीम श्रद्धा है। वह श्रद्धा ही जल में मिलकर चमत्कार दिखाती है। आपने अपने पैर धोते समय अहंकार का समावेश किया फलतः संजोया गया जल निष्फल हो गया।

मंत्र शक्ति के संबंध में भी यही बात है। जहाँ उसके जप में नियमोपनियमों का पालन करना चाहिए वहीं निर्धारित साधना के प्रति अटूट श्रद्धा भी होनी चाहिए। लक्ष्य ऊँचा रखना चाहिए जिससे मनोकामनाओं के पूरे होने न होने पर कोई अन्तर न आये। जप से उद्भूत हुए अक्षर अपने अपने सम्बद्ध सूक्ष्म केन्द्रों पर प्रभाव डालते और उन्हें उत्तेजित करते हैं। इस प्रसुप्ति के जागरण में अतिरिक्त स्तर की क्षमताएँ जागती हैं। योग्यताएँ उभरती हैं। उपयोगी परिवर्तन की श्रृंखला बनती है। इन सबका परिणाम यह होता है कि हाथ में लिये काम सही दिशा धारा मिलने से सफल होने लगते हैं। प्रतिभा का विस्तार दिन दिन होने लगता है। व्यक्तित्व का विकास सफलताओं की गारंटी है। इसी परिणति को मंत्र सिद्धि कहते हैं।

दूसरा वर्ग प्राणायाम है। श्वास से संकल्प शक्ति के सहारे चुम्बकत्व भरा जाता है और उसके सहारे से वायुमंडल में भरे हुए प्राणतत्व को खींच निकाला जाता है। इसकी अवधारणा से साहसिकता उभरती है। आत्मविश्वास बढ़ता है और जीवनी शक्ति का अभिनव संचय होता है। प्राणायामों की अनेकानेक शाखा प्रशाखाएँ हैं पर उनसे सरलतम प्राणाकर्षण प्राणायाम चुनने से भी काम चल जाता है। साँस खींचते समय प्राण का प्रवेश, रोकते समय प्राण का भंडारण, छोड़ते समय विकृतियों का निष्कासन भाव भरना, यह है संक्षेप में प्राणाकर्षण प्राणायाम। इससे साँस लेने छोड़ने का समय सामर्थ्य भर बैठाना चाहिए और रोकने का समय अधिक रखना चाहिए। तीनों क्रियाओं से मिला हुआ एक समग्र प्राण संचार प्राणायाम माना जाता है। इसे दस मिनट से आरंभ करके आधे घंटे तक पहुँचाया जा सकता है। स्वच्छ खुली हवा में प्रातः काल के समय प्राणायाम किया जाय। मेरुदंड को सीधा रखा जाय। आँख अधखुली रखकर नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाई जाय।

उपरोक्त जप प्राणायाम के दोनों अभ्यास ऐसे हैं जिनमें शारीरिक क्रिया को सुनिश्चित रखा जाता है। साथ ही प्रयत्न यह भी किया जाता है कि मनोयोग का संकल्प शक्ति का भी उसमें समावेश किया जाय। मन की चंचलता कुख्यात है। वह बन्दर की तरह उछलता और चिड़ियों की तरह फुदकता रहता है। मच्छर की तरह उसे एक स्थान पर बैठना सुहाता ही नहीं। इस उच्छृंखलता पर अंकुश करने के लिए आरंभिक प्रयोग जप को प्राणायाम के रूप में करना पड़ता है। इन दोनों का प्रयोग मन को घेरना और खूँटा पहिचानने, अस्तबल में रहने के लिए सहमत करने के लिए किया जाता है। हर घड़ी बेसिर पैर की उड़ाने उड़ने की अपेक्षा किस सत्प्रयोजन उच्च उद्देश्य पर जमने के लिए उसे उपरोक्त बाड़ों में कैद रहने के लिए विवश करता है। यों इस स्थिति को भी वह सहज स्वीकार नहीं करता और बीच-बीच में उछालें लगाता रहता है। रस्सी तुड़ाकर भागने की भरपूर चेष्टा करता रहता है। किन्तु उसे घेर बटोर कर सीमाबद्ध रखने के लिए बाधित करने वाला प्रयत्न करता रहना पड़ता है। अभ्यास को निष्ठापूर्वक चलाते रहने से हर काम में सफलता मिल कर रहती है। मन का बाँधना असंभव नहीं है। यद्यपि ऊँचे उद्देश्यों के साथ जोड़ सकना कठिन तो है। अधोगामी हरकतों में तो सहज सरक जाता है पर ऊर्ध्वगामी बनाने के लिए वैसा ही आड़ा–टेड़ा प्रयत्न करना पड़ता है जैसा कि सरकस वाले अपने जानवरों को चित्र विचित्र काम दिखाने के लिए प्रशिक्षित करते हैं। यह एक महती कला है। मनुष्य की सचेतन शक्तियाँ यदि उद्देश्यपूर्ण उत्कृष्टता के साथ दृढ़ता पूर्वक जुड़ सकें तो समझना चाहिए कि महामानव बनने जैसी संभावना सुनिश्चित हो गई। सफलताओं के अनेकों ताले विकसित व्यक्तित्व की एक ही चाबी से खोलते जाने की संभावना हस्तगत हो गई। वैज्ञानिकों से लेकर कलाकारों, योगियों से लेकर सिद्ध पुरुषों तक को यह सफलता अनिवार्य रूप से प्राप्त करनी है कि मन को समग्र तन्मयता के साथ अपने निर्धारित लक्ष्य में नियोजित करें ताकि शरीर को इस अनुशासन के अंतर्गत अपने क्रिया−कलाप तदनुरूप करते रहने के लिए विवश होना पड़े। प्रगति चाहे भौतिक क्षेत्र की हो या आत्मिक क्षेत्र की उसमें समग्र मनोयोग अनिवार्य रूप से नियोजित करना पड़ता है। हो सकता है कि किसी ने मानसिक नियंत्रण अपने सामान्य क्रिया−कलाप से, मानसिक संयम से अर्जित कर लिया हो पर यह निश्चित है कि इसके बिना अभ्युदय की दिशा में बढ़ सकना संभव नहीं। जिनका मन डाँवाडोल रहता है, रंगीन कल्पनाओं के आकाश में बेसिरपैर की उड़ाने भरता रहता है उसका आधे अधूरे मन से किया गया निजी कार्य प्रायः असफल रहता है। किसी भी दिशा में महत्वपूर्ण यशस्वी उत्कर्ष ऐसा चंचल मन वालों के साथ नहीं लगता।

जप और प्राणायाम की चंचलता का शमन करके उसे एकाग्रता, एकनिष्ठा से अभ्यास करना पड़ता है। यह अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है। निग्रहित मन एक दैवी-वरदान है, उसे जिस भी काम में लगा दिया जाय अवरोधों को चीरते हुए सफलता का लक्ष्य प्राप्त करके रहता है। यों जप की मंत्र शक्ति और प्राणायाम द्वारा संचित प्राप्त शक्ति अपना विशिष्ट प्रतिफल व्यक्तित्व के विकास और प्रखरता के उभार से अपनी प्रतिक्रिया का परिचय देती है। मन स्थिति ही परिस्थितियों की जन्म दात्री है। जप और प्राणायाम मन स्थिति को सत्प्रवृत्तियों से सुसम्पन्न करते हैं। फलतः उसका प्रतिफल अभीष्ट आकाँक्षाओं को पूरा करने में दैवी अनुग्रह की वरदान उपलब्धि जैसा प्रतीत होता है। प्राणायाम वाले प्राणवान बनते हैं और जप कर्त्ताओं की श्रद्धा बलवती होती है। आशा के आरोपण से पत्थर के खिलौने भी मीरा के गिरधर नागर, नरसी के रणछोड़ जी बनकर चमत्कारी दिव्य दर्शन देने लगते हैं। राम कृष्ण परमहंस की काली, एकलव्य के द्रोणाचार्य उनकी भाव श्रद्धा का सघन आरोपण होने से ही चमत्कारी प्रतिफल उत्पन्न कर सकने वाले सिद्ध हुए थे। पाषाण प्रतिमाएँ इसी आधार पर देवत्व का प्रतिनिधित्व करती हैं।

साधना का तीसरा आधार है ध्यान। इसमें शारीरिक अंग अवयवों का योगदान नहीं रहता है। समूचा कार्य चेतना को ही करना पड़ता है। कल्पना प्रायः धुँधली और अस्थिर होती है। उसे स्पष्ट, स्थिर और विश्वस्त बनाया जाय। तभी ध्यान धारणा बन पड़ती है। इसके लिए कोई इष्ट निर्धारित करना होता है। उसी पर मन जमाना होता है। चित्र या प्रतिमा को सामने रख कर उसके अंग प्रत्यंगों, बाल, आभूषणों आयुधों वाहनों के सज्जा सज्जित कलेवर को परिपूर्ण उत्सुकता और भावना के साथ देखते रहा जाया करे तो इस तन्मयता भरे देव के दर्शन से भी ध्यान की आरंभिक भूमिका सम्पन्न होती है। चित्रों और प्रतिमाओं का निर्माण तथा अवलम्बन इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाता है। प्रतिफल उसी अनुपात से मिलता है, जितनी गहरी साधक की भाव संवेदना होती है। यदि उपेक्षापूर्वक अवस्था की मन स्थिति से उन्हें देखा गया है तो प्रतिफल मात्र छवि दर्शन का लाभ आँखों को एक कौतूहल देखने भर का मिलेगा। किन्तु यदि श्रद्धा का गहरा पुट लगा होगा तो जड़ प्रतिमा भी जागृत स्तर में अपना परिचय देने लगेगी।

निराकार ध्यान इससे ऊँचा है। क्योंकि उसकी संरचना किसी दृश्य के अनुरूप अपने को ही करनी पड़ती है। इसका पुरातन इतिहास स्मरण करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। क्योंकि जिसका भी इतिहास होगा उसमें मनुष्य में पायी जाने वाली त्रुटियों का भी समावेश रहेगा ही। ध्यान से तादात्म्यता आती है। इसके साथ साधक एकीभूत होता है। ध्यान से भी आग ईंधन जैसा एकात्मता का भाव बन जाता है। शर्त एक ही है कि उसके साथ सघन आत्मीयता जुड़ी हुई है। निराकार ध्यान में भी इतना तो करना ही है।

प्रातः काल के उदीयमान स्वर्णिम सूर्य का ध्यान सर्वोत्तम है। दृश्यमान सूर्य अपने आप में भी प्राण पुँज है। फिर ध्यानकर्ता अपनी आस्था का आरोपण करके उसे और भी शक्तिदाता बना देता है। गायत्री का अधिष्ठाता, विश्व का निर्माता सविता ही है और परब्रह्म की सत्ता का प्रतीक भी। ध्यान उस सत्ता का भी कर उसके प्रकाश से स्वयं को आलोकित हुआ अनुभव किया जा सकता है।


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