घृणा एवं प्रेम को अतिवादी न होने दें

September 1988

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संसार-चक्र में विपरीतताएँ कम नहीं। दिन और रात का युग्म चलता है इनमें से किसी एक को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता और न हटाया जा सकता है। इतना ही संभव है कि उन परिवर्तनों के अनुरूप अपने को ढालें और यथासंभव तालमेल बिठाने का प्रयत्न करें।

शरीर मल मूत्र की गठरी भी है और आत्मा के निवास का पवित्र देवालय भी। यह संयोग बने रहने का नाम ही जीवन है। शरीर के प्रति उसके अनुरूप वाहन का दृष्टिकोण रखें और साथ ही आत्मा की गौरव गरिमा को भी गिरने न दें।

संसार में शैतान और भगवान का पाप और पुण्य का सुनिश्चित अस्तित्व है। पाप को इतना हलका किया जा सकता है कि वह पुण्य के मार्ग में रोड़ा न बने। पुण्य को भी अतिवादी होने से बचाया जा सकता है कि वह जहाँ कहीं अनुपयुक्तता देखे वहीं तलवार लेकर पिल न पड़े।

समन्वय और सामंजस्य की नीति अपनाकर ही हम प्रकृति प्रयोजनों को पूरा कर सकते हैं। चलने में एक कदम आगे और दूसरा पीछे तो रहेगा ही।

यहाँ घृणा और प्रेम की चर्चा की जा रही है। एक को ही सब कुछ मान लेने और दूसरे की अवज्ञा करने से संतुलन बिगड़ेगा और परिणाम ऐसे होंगे जिनसे अव्यवस्था ही उत्पन्न हो।

प्रेम को अतिवाद में कुछ धर्मों को सर्वोपरि माना है और अपने उत्पीड़न सहने पर सामने वाले का हृदय बदल जाने की बात कही है। प्रतिरोध का निषेध किया है इस अतिवाद का दुष्परिणाम प्रत्यक्ष है। भारत के इस प्रेम प्रतिपादन ने मध्य एशिया के आततायियों का हौसला बढ़ाया और आक्रमणों पर आक्रमण होने की धूम मच गई। देश बुरी तरह घाटे में रहा। क्योंकि प्रतिरोध के लिए जिस तत्परता और समर्थता की आवश्यकता थी उसे अहिंसा धर्म के अतिवादी प्रभाव में आकर उपेक्षित कर दिया गया था। उस भूल का दंड अपने को लुटाने और पराधीन बनने के रूप में लम्बे समय तक सहना पड़ा।

यही बात घृणा के संबंध में भी है। अपनी मान्यताओं के साथ जहाँ भी तालमेल न बैठता हो उसे शत्रु माना जाय और हर संभव उपाय से उसे नष्ट करने का प्रयत्न किया जाय। इस मान्यता के कारण एशिया और योरोप में धर्म के नाम पर भारी रक्तपात हुआ और असंख्य निर्दोषों को असह्य त्रास सहना पड़ा।

तानाशाही की भी यही मान्यता है कि अपने साथ तालमेल न बिठा पाने वालों का अस्तित्व ही समाप्त करके रहना चाहती है। हिटलर ने समूची कौम को अपना शत्रु समझा। विपक्षी देशों पर भी अमानुषिक अत्याचार किये। घृणा पर अवलम्बित साम्यवाद ने पूँजीपतियों और पुरातन पंथियों को सहन करने सुधारने की अपेक्षा उनका सफाया करना ही उचित समझा। रूस और चीन में साम्यवादी शासन स्थापित होते समय प्रजाजनों पर जो बीती वह किसी से छिपी नहीं है। यह घृणा का अतिवाद है।

प्रेम और घृणा मनुष्य में और समाज में विद्यमान हैं पर दोनों में किसी को भी अतिवादी नहीं होना चाहिए। सफाई से हम प्रेम करें और गंदगी को हटाने के लिए घृणा करें। यह विपरीत मान्यताएँ यथोचित स्थान पर यथोचित रीति में चल सकती हैं। यह समन्वय-वादी सौजन्य है।


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