सेवा साधना के व्रतधारी-जरथुस्त्र

September 1988

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पारसी पैगम्बर जरथुस्त्र ने जिस समय जन्म लिया था, उनका देश अजरबेजान अन्धविश्वासों, अधर्म और पापों में बुरी तरह डूबा हुआ था। आडम्बरी जादूगर सारे समाज पर छाये हुये थे। मंत्र तंत्र और बाजीगरी दिखला कर जनता को भयभीत करते और अपनी जेब भरा करते थे। न जाने कितने प्रकार के देवी-देवताओं की पूजा होती थी। धर्म के नाम पर पाप और पाखण्ड का बोलबाला था। लोग धर्म और ईश्वर को बिल्कुल भूल गये थे। जरथुस्त्र ने इस अंधकार में डूबी जनता को प्रकाश दिया। सर्व शक्तिमान एक ईश्वर की उपासना का उपदेश दिया और एक सर्द्धम का पथ दिखाया। उन्होंने पुरा जीवन ही इस उपकार में लगा दिया और उसके लिये जो भी कष्ट सहने पड़े, सहे।

जरथुस्त्र बाल्यकाल से ही बड़े ईश्वर भक्त, निर्भीक, सत्यवादी और अन्धविश्वासों के विरोधी थे। एक बार बहुत से जादूगर जरथुस्त्र के पिता पुरशस्थ के पास आये और बहुत से चमत्कार दिखला कर कहने लगे- “हमारा जादू ही भगवान है। तुम इसी पर विश्वास करो और हमसे दीक्षा ले लो।” जरथुस्त्र के भोले पिता जादूगरों को देखकर डर गये और उन आडम्बरियों से प्रभावित होने लगे।

सात वर्षीय जरथुस्त्र भी उस समय वहाँ पर उपस्थित थे। भगवान में अटल विश्वास रखने के कारण उन पर जादूगरी का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उसने साहस पूर्वक जादूगरों को संबोधित करते हुये कहा-- “तुम लोग सब छलजीवी हो। अपने जादू का भगवान बतलाना अथवा उस पर विश्वास करना घोर नास्तिकता है। जादू की पूजा तो नरक में ले जाने वाली है। इसलिये उस शक्तिमान परमात्मा में विश्वास करें। इसी से तुम्हारा कल्याण होगा और तुम्हारे पाप छूटेंगे।”

बालक जरथुस्त्र न केवल भक्त अथवा निर्भीक ही थे, वरन् बड़े दयालु और जन-सेवक भी थे। वे अपने गोदाम से भूसा चारा निकाल कर दूसरे भूखे जानवरों को खिला दिया करते थे। जब घर में पर्याप्त चारा नहीं होता था, तो जंगल से इकट्ठा कर लाते थे और बूढ़े, असहाय और लंगड़े, भूखे जानवरों को खिलाते थे। उनके इस उपकार से जानवर उन्हें इतना प्यार करने लगे थे कि देखते ही चारों ओर जमा हो जाते थे। जरथुस्त्र सबको समान रूप से प्यार करते थे और इस तरह उनका दुःख पूछते थे, मानो वे भी उन्हीं की तरह मनुष्य हों।

एक बार रास्ते में जाते हुए जरथुस्त्र ने देखा कि कोई उदार व्यक्ति गरीबों को आटा बाँट रहा है। लेकिन भीड़ इतनी है कि उससे प्रबन्ध नहीं हो पा रहा है। जरथुस्त्र दौड़ कर गये और उनकी मदद करने लगे। निवृत्त होकर उस व्यक्ति ने जरथुस्त्र को धन्यवाद दिया और कहा- “बड़े अच्छे बालक हो।” जरथुस्त्र ने बड़ी विनम्रता से उत्तर दिया- ‘आप एक परोपकारी व्यक्ति हैं। मेरे लिये यही बहुत बड़ा परिचय है। आपको आटा बाँटते देख कर मुझे ऐसा लगा, जैसे आप स्वर्ग के हमारे साथी हैं और भूमि पर दीनों तथा असहायों की सहायता करने आये हैं।” उस परोपकारी ने जरथुस्त्र में एक श्रेष्ठ आत्मा के दर्शन किए और आगे चलकर उनकी सेवा साधना - लोक मंगल के कार्यों में बड़ा सहयोगी सिद्ध हुआ।

आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के लिए जरथुस्त्र ने बड़ी कठोर साधना की। पन्द्रह वर्ष की आयु में ही वे साधना करने लगे थे और बाईस वर्ष तक करते रहे। बीच के इन सात वर्षों में उन्होंने दूध के सिवाय न अन्न खाया, न फलाहार किया। अंत में उन्हें आत्म-ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे उसका प्रकाश संसार को देने के लिये चल पड़े। उनका लक्ष्य एक ही था- “अयंनिजःपरोवेति गणनालधुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।”

जरथुस्त्र अपने आचरण, साधन और लोक मंगल के बल पर एक पैगम्बर बने और उन्होंने पारसी धर्म का प्रवर्तन किया। बिना साधना के कोई कुछ महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हस्तगत नहीं कर पाता और साधना करने वाला लोग मंगल के क्षेत्र में सेवा कार्य किये बिना रह ही नहीं सकता। जरथुस्त्र को उनकी परमार्थ साधना एवं आडम्बरों से भरे संसार में विवेकशीलता के विस्तार हेतु सदैव याद किया जाता रहेगा।


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