दुःख नकारात्मक भाव के सिवा कुछ नहीं

December 1979

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चारों ओर प्रकाश व्याप्त होने पर भी व्यक्ति अंधकार का रोना रो सकता है और अंधेरा-अंधेरा चीखता-चिल्लाता रह सकता है। इसके साथ दो ही कारण हो सकते है—एक तो यह कि व्यक्ति किसी तंग कोठरी में चारों ओर से बंद दरवाजों और खिड़कियों के भीतर बंद हो। उस स्थिति में बाहरी प्रकाश की, सूर्य देवता की एक भी किरण उस तक नहीं पहुँच सकती। दूसरा कारण व्यक्ति का दृष्टिहीन होना हो सकता हैं। इन दो कारणों को छोड़कर तीसरा कोई कारण नहीं है कि व्यक्ति अंधकार से दुःखी और संतप्त हो।

मनुष्य के जीवन में भी इसी प्रकार दुःख और वेदना का कोई अस्तित्व नहीं है। अंधकार एक नकारात्मक सत्ता है, प्रकाश का अभाव है। यह प्रकाश कई बार परिस्थितियों के कारण भी लुप्त हो जाता है, किंतु वैसी स्थिति में परमात्मा ने मनुष्य को वैसी क्षमता दे रखी है कि वह उनका उपयोगकर प्रकाश के अभाव को दूर कर सके। अतः अंधकार को देख-देखकर ही जिसे भयभीत होते रहना हो, संतप्त और दुःखी रहना हो तो उसके लिए अंधकार से मुक्त होने का कोई उपाय नहीं है। दुःख भी अंधकार के समान एक नकारात्मक भाव है। उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। व्यक्ति अपनी भ्रांतियों, गलतियों और त्रुटियों की तंग कोठरी में बंद होकर चारों ओर खिले हुए सुख तथा आनंद से वंचित रहे तो इसमें परमात्मा का कोई दोष नहीं है। उसने तो सृष्टि में चारों ओर सुख, आनंद तथा प्रफुल्लता का प्रकाश बिखेर रखा है। अपनी भ्रांतियों और त्रुटियों की दीवारों में, समझ और दर्शन के दरवाजों-खिड़कियों को बंदकर कृत्रिम रूप से अंधकार पैदा किया जा सकता है। प्रायः जो दुःखी, संतप्त, व्यथित और वेदनाकुल दिखाई देते है, उनकी पीड़ा के लिए बाहरी कारण नहीं, अपनी बनाई संकीर्णता की दीवारें उनके लिए उत्तरदाई हैं।

परिस्थितिवश कोई समस्या या कठिनाई उत्पन्न हो जाए तो उसके लिए भी शोध करना आवश्यक नहीं है। परमात्मा ने अंधकार को दूर भगाने की तरह मनुष्य को उन समस्याओं तथा कठिनाइयों को सुलझाने की क्षमता दे रखी है। वह उस क्षमता का उपायकर अपने लिए सुख तथा आनंद का मार्ग खोज सकता है तथा दुःखरूपी अंधकार को दूर हटा सकता है।

बहुधा लोग दुख और सुख के संबंध में दृष्टिभ्रम के शिकार होते है। परिस्थितियाँ कैसी भी हों, व्यक्ति यदि सुलझे और सुथरे दृष्टिकोण वाला हो तो बुरी से बुरी परिस्थितियों में भी सुखी व आनंदित रह सकता है। इसके विपरीत परिस्थितियाँ चाहे कितनी ही अनुकूल क्यों न हों, व्यक्ति यदि दृष्टिभ्रम का शिकार है, उसमें अपने आस-पास बिखरे सुख और आनंद को देखने की क्षमता नहीं है तो अनुकूल से अनुकूल परिस्थितियाँ भी उसे आनंदित व प्रफुल्लित नहीं कर सकतीं।

परिस्थितियों को बदलने के लिए प्रयास किया जाना चाहिए। ठीक उसी प्रकार जैसे रात का अंधकार दूर भगाने के लिए रोशनी जलाते है। उसका सरलतम उपाय है। प्रयत्न और धैर्य भी वैसे ही सरल उपाय है, यदि परिस्थितियों को विकट न समझा जाए तो सूरज ढल जाने के बाद कोई भी व्यक्ति न रोता है और न शोकाकुल होता है। इसे प्रकृति का एक नियतक्रम मानकर रोशनी जला लेता है और अंधकार की समस्या से मुक्त हो जाता है। दिन और रात की तरह जीवन में परिस्थितियों के भी उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। अपने भीतर वह दृष्टि विकसित की जाए, जो उस क्रम को सहजता से ग्रहण कर सके तो बिना व्यथित और उद्विग्न हुए प्रतिकूल परिस्थितियों से निपटा जा सकता है। प्रकाश के सुनिश्चित और असंदिग्ध अस्तित्व की भांति जीवन में सुख और आनंद भी सुनिश्चित तथा असंदिग्ध है। दुख और वेदना का अस्तित्व कृत्रिम रूप से उत्पन्न किए गए अथवा मान ली गई नकारात्मक सत्ता के सिवाय कुछ भी नहीं है।


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