मधुमक्खी को जब तक मधु की लालसा रहती है तब तक वह फूल के चारों ओर मँडराती भुनभुनाती ही रहती है, किंतु मधुसंचय कर चुकते ही वह मौन हो जाती है। मधुरस से उत्फुल्ल हो, यदि वह भुनभुनाने भी लगे तो यह भुनभुनाहट पहले की भुनभुन से भिन्न होगी। इस दूसरी भुनभुनाहट में कोई लालसा नहीं होगी।
इसी प्रकार आध्यात्मिक साधना के आरंभिक अभ्यासी बहुत बढ़-बढ़कर अध्यात्म चर्चा करते है, किंतु इसके पीछे प्रायः उसकी स्वयं को आध्यात्मिक दिखाने की अहंभावना रहती है। जिसे सचमुच वह आध्यात्मिक अनुभूति होनी शुरू हो जाती है, वह उसे गोपनीय धन की तरह रखता है। चाहे जब उसकी चर्चा कदापि नहीं करता। बाद में, यदि ज्ञानी उस विषय में बोलता भी है तो लोक-मंगल की उदात्तभावना से न कि पहले जैसे अहं से भरे आवेश में।
—रामकृष्ण परमहंस।