संपत्ति के दर्प का दुःखद अंत

December 1979

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सिकंदर जब मरने लगा, मृत्यु आना चाहती थी और अंतिम सांसें थोड़ी-सी ही बाकी थीं कि उसने अपने विश्वस्त साथियों को बुलाया। आस-पास खड़े दरबारियों ने समझा—"हमारे महान राजा अपनी कोई अंतिम इच्छा बताना चाहते हैं।" उसे पूरा करने का अवसर अपने लिए सौभाग्य मानकर सहयोगी आगे बढ़े। एक को इशारे से अपने बिलकुल नजदीक बुलाकर सिकंदर ने कहा—"देखो! जब मेरी मृत्यु हो जाए तो सारे नगर में मरी शवयात्रा निकालना।”

“ऐसी अशुभ बात मुँह से मत निकालिए, महाराज! आपके राज्य में सब लोग अनाथ हो जाएँगे। हम निराश्रय हो जाएँगे।”—एक नायक ने अपनी वेदना व्यक्त करते हुए कहा।

सिकंदर बोला कि,“कोई किसी के मरने से न अनाथ होता है और न आश्रयहीन। सब लोग अपने स्वामी हैं और प्रत्येक का आश्रय भी वह स्वयं ही है।” सिकंदर ने आगे कहा कि, ”मैं कह रहा था, जब मेरी शवयात्रा निकाली जाए और मुझे अर्थी पर सुलाया जाए तो मेरे दोनों हाथ अर्थी से नीचे लटकते हुए रखना, ताकि देखने वाले जान सकें कि मैं, सिकंदर, विश्वविजय का स्वप्न देखने वाला सिकंदर महान इस दुनिया से खाली हाथ जा रहा हूँ।”

अरस्तु के शिष्य होने और अंतिम समय में आत्ममंथन करने के कारण मरते वक्त सिकंदर को बोध हुआ। मरते-मरते भी यह जान लेना कम अच्छा नही है, अपेक्षा इसके कि अधिकांश लोग मरते समय भी अपनी संपत्ति का मोह नहीं छोड़ पाते और उसके प्रबंध की चिंता में घुलते-तड़पते मृत्यु के हाथों में अनिच्छापूर्वक अवश होकर जा पाते हैं। संपत्ति के संचय और संग्रह में ही अधिकांश लोगों का पूरा जीवनक्रम बीत जाता है और वे यह समझते रहते हैं कि उनके पास जितनी अधिक संपदा संग्रहित होगी, उतना ही उनका गौरव और वर्चस्व बढ़ेगा। उनके भाग्य और पुरुषार्थ का लोग सिक्का मानेंगे तथा बड़प्पन का सम्मान करेंगे। संभवतः इसी धारणा या मान्यता के कारण अधिकांश व्यक्तियों का जीवन-लक्ष्य भौतिक समृद्धि और संपन्नता रहा है। यह बात और है कि सभी लोग आर्थिक दृष्टि से संपन्न और समृद्ध नहीं हो पाते हैं। लेकिन लोग इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अच्छे-बुरे, नैतिक-अनैतिक उपायों की चिंता किए बिना जिस किसी तरीके से संपन्न बनने के लिए लालायित और संपत्तिसंचय के लिए प्रयत्नशील रहते हैं।

संपत्ति के साथ जुड़ी हुई बड़प्पन और गौरव प्राप्त होने की आशा ही लोगों को उसका संचय करने के लिए प्रोत्साहित करती है। संपत्ति और साधन एक सीमा तक अनिवार्य रूप से आवश्यक है। जीवन की मोटी आवश्यकताएँ और उसका भौतिक निर्वाह संपत्ति के द्वारा ही होता है। अतः जितना ही  संपत्तिसंचय किया जाएगा, उतना ही मान-सम्मान, प्रतिष्ठा, गौरव और वर्चस्व बढ़ेगा। लोग इस बुरी तरह से सम्पत्तिसंचय के लिए अधीर हो उठते हैं कि उनके प्रयासों को सनक ही कहा जा सकता है। इसके बाद वे उस संचय का उद्धत प्रदर्शन करते हैं, ताकि लोगों पर बड़े होने का रोब गालिव किया जा सके। सोचा जाता है कि इस प्रकार अपनी संपत्ति के उद्धत प्रदर्शन से लोगों की आंखें चौंधियाएँगी और वे उनका बड़प्पन मान लेंगे। कुछ लोग होते भी हैं, जो उनके आसपास घिरे रहते हैं। चापलूसों की तरह उनकी इस सनक का समर्थन किया करते हैं और प्रशंसा के पुल बाँधते रहते हैं।

ऐसा नहीं होता है कि समर्थन और प्रशंसा करने वाले आंतरिक हृदय से यह सब करते हैं। वस्तुतः उनके स्वार्थ उन उद्धत प्रदर्शन करने वाले संपन्न व्यक्तियों से जुड़े रहते हैं और वे उनको इस प्रकार प्रसन्न रखकर अपने स्वार्थ-साधन की ही बात मुख्य रूप से सोचते हैं। अन्यथा मन ही मन तो वे ऐसे व्यक्तियों से ईर्ष्या और जलन रखते हैं। कई बार ऐसे समर्थक या प्रशंसक ही उनकी संपन्नता पर अपनी लार टपकाते रहते हैं और जैसे-तैसे उस संपत्ति को हथियाने की बात सोचते रहते हैं, उनके आस-पास घिरे लोगों में ही नहीं, संपत्ति का प्रदर्शन देखने वाले अन्यान्य लोगों में भी उनके प्रति ईर्ष्या उत्पन्न होती हैं और प्रायः लोग ऐसे व्यक्तियों की संपत्ति हथियाने के लिए हर तरह के दाव-पेंच चलते हैं। इस प्रकार के आक्रमणों के लिए ईर्ष्यालु व्यक्ति जितने दोषी होते हैं, संपत्ति का उद्धत प्रदर्शनकर उस आक्रमण को आमंत्रित करने वाले व्यक्ति भी उनसे कम दोषी नहीं होते। कहा जा सकता हैं कि मुख्य दोष उन्हीं का होता है।

इस प्रकार अनावश्यक संपत्ति का संग्रह और उसका उद्धत प्रदर्शन कैसे-कैसे कांड रच डालता है, इतिहास में इसके अनेकों उदाहरण हैं। कोहिनूर हीरे का इतिहास इसी प्रकार का है। वह संसार का सबसे मूल्यवान हीरा रहा है। लेकिन उसके साथ यह अभिशाप भी जुड़ा रहा कि वह जहाँ भी रहा, अपने साथ-साथ विपत्ति लिए रहा और अपने स्वामी के लिए प्राण-संकट की विभीषिका सँजोए रहा। इस हीरे का इतिहास बड़ा विचित्र और विलक्षण है। भागवत पुराण में इसका उल्लेख स्यमंतक मणि के रूप में मिलता है।

द्वारिका के एक नागरिक सत्राजित के पास यह मणि थी। उसने भगवान श्रीकृष्ण को यह मणि बताई तो श्रीकृष्ण ने कहा कि,"यह मणि तो राजा के पास होनी चाहिए, तुम इसे महाराजा उग्रसेन को दे दो, इसके बदले में वह तुम्हें अपार धन देंगे और तुम देखते ही देखते वैभवसंपन्न बन जाओगे।" परंतु सत्राजित ने श्रीकृष्ण की यह सलाह नहीं मानी और उस मणि को अपने पास ही रखा। सत्राजित का एक भाई था—'प्रसेनजित'। दोनों भाइयों में अगाध प्रेम था। दोनों भाई उस मणि को छाती से चिपटाए रहते थे। एक बार जब वह मणि प्रसेनजित के पास थी तो वन में एक सिंह ने प्रसेनजित को मार डाला और मणि उसके पास पहुँच गई। सिंह को मारकर जामवंत नामक रीछ ने वह मणि अनजाने ही उदरस्थ कर ली। रीछ भी बचा न रहा। वह श्रीकृष्ण के हाथों मारा गया और इस प्रकार वह मणि श्रीकृष्ण के पास पहुँच गई। पर भगवान श्रीकृष्ण भी उसे अपने पास रखकर चैन से नहीं बैठ सके। वे एक बहेलिये के हाथों मारे गए।

श्रीकृष्ण के न रहने पर वह मणि पांडवों के पास पहुँची। इसके बाद परीक्षित, जनमेजय, चंद्रगुप्त, बिंबिसार, अशोक, बृहद्रथ, पुष्यमित्र आदि राजाओं और सम्राटों के पास एक के बाद एक कर वह मणि पहुँचती रहीं। लेकिन यह हस्तानांतरण शांति और सद्भावनापूर्वक नहीं होता था, अपितु उसके साथ कई दुरभिसंधियाँ और षड़यंत्र जुड़े रहे तथा ऐसे ही उत्पातों के साथ वह इधर से उधर घूमता रहा। इसी प्रकार वह कनिष्क, चंद्रगुप्त और हर्षवर्धन के पास होता हुआ मालव नरेश यशोवर्मा के पास पहुँचा। उनके वंशज राजा रामदेव पर अलाउद्दीन खिल्जी ने आक्रमण किया और मालव नरेश को पददलित कर उस हीरे को हथिया लिया। इसके बाद वह हीरा दिल्ली के बादशाहों के अधिकार में देर तक बना रहा। इब्राहिम लोदी के पराजय के बाद उसकी बेगम दिल्ली छोड़कर आगरा आ गई थी। उस पर हुमायूँ ने हमला कर दिया। इज्जत बचाने के लिए बेगम को वह हीरा हुमायूँ को भेंट कर देना पड़ा। हुमायूँ की मौत सीढ़ी पर से फिसलने के कारण हो गई और वह हीरा कई पीढ़ियों तक उसके वंशजों के पास बना रहा।

इस प्रकार वह हुमायूँ के पास से मुहम्मदशाह के पास पहुँचा। मुहम्मदशाह पर ईरानी लुटेरे नादिरशाह ने हमला कर दिया और उसके पास से कोहिनूर हीरा अपने कब्जे में कर लिया। उस हीरे को देखकर नादिरशाह के मुँह से निकला—’कोह-ए-नूर’!’ अर्थात प्रकाश का पर्वत। तभी से इस हीरे का नाम ‘कोहिनूर’ पड़ा। नादिरशाह कोहिनूर के साथ प्रचुर संपदा लेकर वापस लौटा तो रास्ते में भयानक तूफान आया और उस तूफान में उसकी सेना तथा संपदा का बड़ा भाग नष्ट हो गया। नादिरशाह भी चैन से नहीं बैठ सका। उसके भतीजे अलीकुलीखाँ ने उसे मार डाला और कोहिनूर हीरा अपने कब्जे में कर लिया। यह हीरा पाने के लिए अफगान सेनापति अहमदशाह अब्दाली ने अलीकुलीखाँ को मौत के घाट उतार दिया और हीरा अपने कब्जे में कर लिया।

अब्दाली के बाद उसका बेटा तैमरशाह उस हीरे का अधिकारी बना। जब वह मरा तो सत्ता पाने के लिए उसके पुत्रों में युद्ध छिड़ा। इस युद्ध में जमानशाह जीता। उससे हीरा छीनने के लिए उसके विश्वासी भाई महमूदशाह ने ही उसे कैद में डाल दिया और यंत्रणा देकर उसकी ऑंखें निकलवा लीं। महमूद को भी शाहशुजा ने मार डाला और हीरे पर अपना अधिकार कर लिया। शाहशुजा कैद में पड़ा हुआ था। उसकी बेगम ने अपने पति की मुक्ति के लिए पंजाब के महाराज रणजीतसिंह से सहायता की प्रार्थना की। महाराज रणजीतसिंह ने काबुल के वजीर फतहखाँ की सहायता से शाहशुजा को मुक्त कराया और बदले में कोहिनूर हीरा प्राप्त कर लिया। महाराज रणजीतसिंह की मृत्यु के बाद उनका राज्य अंग्रेजों के हाथ में चला गया और कोहिनूर हीरा भी। इस हीरे को यूरोप के कुशलतम रत्नपिशाचियों ने करीब चालीस दिन तक तराशा, चमकाया तथा और अधिक सुंदर बनाया। इसके बाद वाद हीरा महारानी विक्टोरिया के ताज में जड़ा गया।

इस प्रकार यह हीरा अपने साथ इतिहास के कई पृष्ठों को रक्तरंजित करते हुए इधर-उधर घूमता रहा। कोहिनूर प्रसिद्ध हीरा है, इसलिए इसकी चर्चाएँ भी बड़ी प्रसिद्ध हैं। देखा जाए तो अन्यान्य छोटी-बड़ी रत्नराशियाँ भी इसी प्रकार की विपत्तियाँ अपने साथ सँजोए मिलेंगी। इसी प्रकार का इतिहास शाहजहाँ द्वारा बनवाए गए तख्तताऊस के साथ भी जुड़ा हुआ है। शाहजहाँ ने तख्तताऊस (मयूरसिंहासन) इसलिए बनवाया था कि वह संसार के वैभवशाली लोगों में गिना जा सके। उसके उत्तराधिकारी इस सिंहासन पर बैठकर उसका गुणगान करते रहे। इस सिंहासन में उस समय 12 करोड़ रुपये मूल्य के रत्न जड़े गये थे और बनाने में सात वर्ष लगाए गए। सोने, हीरे, लाल, मोती और पन्ने से बना सजा यह सिंहासन बनवाते समय शाहजहाँ ने जो स्वप्न सँजोए थे, वे पूरे नहीं हुए। वह कुछ ही दिन उस पर बैठ पाया था कि उसके बेटे औरंगजेब ने उसे पकड़कर कैद में डाल दिया।

औरंगजेब के बाद मुगल साम्राज्य का पतन आरंभ हो गया और मुहम्मदशाह उत्तराधिकारी बना। उस पर ईरान के नादिरशाह ने आक्रमण कर दिया और वह लूट-खसोट में अन्य प्रचुर संपदा के साथ-साथ तख्तताऊस भी उठाकर फारस ले गया। उसी के कुटुंबी कुर्दा ने नादिरशाह की हत्या कर दी और उसका सारा माल-असबाब छीन लिया, जिसमें यह मयूरजड़ित सिंहासन भी सम्मिलित था। लुटेरों ने उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले और उन्हें आपस में बाँट लिया।

ईरान की सत्ता सँभालने के बाद आगा मुहम्मदशाह ने नादिरशाह के लुटेरे वंशजों से तख्तताऊस सहित लूट का सारा माल छीन लिया। तख्तताऊस को जौहरियों द्वारा पुनः नया रूप दिया गया, किंतु जो भी शाह इस पर आरूढ़ हुआ, उसकी दुर्गति ही हुई। आज तक यही क्रम जारी है।

कोहिनूर और तख्तताऊस बहुमूल्य किंतु अनमोल संपदा रही है, इसलिए उनके इतिहास सर्वविदित और सर्वपरिचित रहे हैं। छोटी-मोटी संपदाएँ अपने साथ जो दुर्भाग्य, अभिशाप और विपत्तियाँ सँजोए रहती हैं। उनकी विपत्तियाँ और प्रतिक्रियाएँ भी ऐसी ही होती हैं, जो संबद्ध लोगों को तो पूरी तरह संत्रस्त करती हैं, पर ऐतिहासिक घटनाओं में अपना स्थान नहीं बना पातीं, लेकिन इतना तय है कि संग्रह और संचय छोटे हों या बड़े, उनका परिणाम दुखद ही रहता है। अहंकारी मनुष्य न जाने कब तक संपन्नता में बड़प्पन पाने का स्वप्न देखता रहेगा। रावण और हिरण्यकश्यप से लेकर नेपोलियन, सिकंदर तक इसी मूर्खता में अपनी प्रतिभा को नष्ट कर चुके हैं और उनका दुखद अंत हो चुका है। इस तथ्य को समझा जाए कि उपार्जन संग्रह के लिए नहीं, सदुपयोग के लिए किया जाना चाहिए तो इसमें मनुष्य का व्यक्तिगत हित, उत्कर्ष और संतोष तो है ही, समाज को भी उससे बहुत बड़ा लाभ मिल सकता है।


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