अध्यात्म ज्ञान ही मुक्ति है!

December 1979

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प्रख्यात बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन का एक महत्त्वपूर्ण प्रतिपादन यह था कि, 'संसार' निर्वाण से किंचित भिन्न नहीं है और निर्वाण "संसार से किंचित भिन्न नहीं है।” स्वयं तथागत बुद्ध भी यह कहते थे कि, “निर्वाण का अर्थ— विच्छेद या विनाश बतलाना एक दुष्टतापूर्ण प्रवाद है।” डाॅ. राधाकृष्णन ने अपनी पुस्तक ‘इंडियन फिलासफी’ (भाग?) में लिखा है कि," 'सर्वसिद्धांत संग्रह' के अनुसार बुद्ध के मत में मुक्ति या निर्वाण का अर्थ व्यक्ति-चित्त में निर्दोष चेतना का निरंतर प्रवाह है।”

वस्तुतः मुक्ति का लौकिक अभ्युदय से विरोध नहीं है। अपितु वह सर्वांगीण समग्र अभ्युदय का नाम है। लौकिक प्रगति स्वयं में वस्तुतः पदार्थों की  हलचलमात्र है। पदार्थ सृष्टि के आदि में भी थे और अनंतकाल तक रहेंगे। उन्हें अस्वीकार या स्वीकार करने का कोई महत्त्व नहीं।

महत्त्व तो पदार्थों की इन हलचलों के प्रति चेतन मनुष्य द्वारा पाली गई भावनाओं का, उनके साथ व्यवहार का और उनके प्रति विचार का है। पदार्थविद्या स्वयं में मुक्ति की विरोधी नहीं, अपितु वह तो ज्ञानवृद्धि में ही सहायक है।

एक ही दृश्य भिन्न-भिन्न दर्शकों में भिन्न-भिन्न भाव उत्पन्न करता है। इसलिए महत्त्वपूर्ण दृश्य नहीं, दृष्टा का चेतना स्तर एवं उसकी संवेदनात्मक संरचना है। दृश्य स्वयं में न तो मुक्तिकारक है, न ही बंधनकारक है। अज्ञ, आसक्तजनों को वह बाँधता है विज्ञ, विरक्तजनों में वही वैराग्य उत्पन्न करता है। इस प्रकार मुक्ति या बंधन अन्तश्चेतना की स्थिति पर निर्भर है।

शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक या भौतिक सामर्थ्य का विकास स्वयं में न तो बंधनकारक होता, न ही मुक्तिकारक। यद्यपि ये सब क्षमताएँ भी ज्ञान का ही परिणाम होती हैं। तब वह कौन-सा ज्ञान है, जो मुक्तिकारक है? उत्तर स्पष्ट है— वह है अध्यात्म ज्ञान, जिसे शास्त्रीय शब्दावली में मात्र ‘ज्ञान’ कहा जाता रहा है और उससे इतर शेष ज्ञानस्वरूपों को विज्ञान नाम दिया जाता रहा है। विज्ञान स्वयं में बंधन या मुक्ति का कारण नहीं। वैज्ञानिक विकास किस स्तर का है, इससे अन्तश्चेतना मुक्त है। इसका किंचितमात्र निर्णय नहीं हो सकता। विज्ञान की विभिन्न शाखाओं-प्रशाखाओं में युगानुसार विकास-ह्रास होता रहता है, किंतु मुक्ति के लिए आवश्यक ज्ञान जिसे अध्यात्म ज्ञान कहते है, उससे अप्रभावित रह सकता है।

विज्ञान-क्षेत्र में कालक्रम से भिन्न-भिन्न प्रविधियाँ (टेक्नलॉजी) विकसित होती रहती हैं। पदार्थों की सूक्ष्मशक्तियों से लेकर मन की सूक्ष्मशक्तियों तक की जानकारी प्राप्त करना, उन पर नियंत्रण प्राप्त करना—वैज्ञानिक प्रगति का प्रयोजन रहता है। यंत्रों-उपकरणों के निर्माण एवं संचालन से लेकर मनःशक्तियों के विनियोजन और उनसे विभिन्न प्रगति ही है। इस वैज्ञानिक प्रगति का आध्यात्मिक दृष्टि से महत्त्व मात्र यही है कि इस जानकारी से दृश्य और दृष्टा के, प्रकृति और भोक्ता के संबंधों पर प्रकाश पड़ता है और इन संबंधों के अस्थाईत्व की परिवर्तनशीलता की जानकारी मिलती है। यह दार्शनिक-बोध, यह  जीवन-दृष्टि ही अध्यात्म का क्षेत्र है। संपूर्ण वैज्ञानिक प्रगति के आधार में क्रियाशील जो चेतना है, उस चेतना के वास्तविक स्वरूप को समझना-जानना, उसका साक्षात्कार करना ही अध्यात्म दर्शन या अध्यात्म ज्ञान है। वह अध्यात्म ज्ञान ही मुक्ति है।

मुक्ति को सर्वोच्च पुरुषार्थ बताने वाले प्राचीन मनुष्यों ने वैज्ञानिक एवं प्राविधिक प्रगति कम नहीं की थी। वस्तुतः भौतिक जगत के रहस्यों को जानना यानी भूतजय करना और इंद्रिय-बोध की क्षमताओं-प्रक्रियाओं को जानना यानी इंद्रियजय करना आत्मदर्शन के लिए आवश्यक सहायक ज्ञान है, किंतु इस संपूर्ण शक्ति और उपलब्धि की सार्थकता तभी है, जब इस समस्त सृष्टि-व्यापार का मूल प्रयोजन जाना जाए। ज्ञान की स्वयं की सार्थकता को समझा जाए।  सृष्टि के संपूर्ण क्रिया-व्यापार की अर्थवत्ता का अभिज्ञान ही अध्यात्म ज्ञान है। वही मुक्ति की स्थिति है, क्योंकि अन्तःकरण की निस्संगता, निर्लिप्तता उसी स्थिति में संभव है। सामान्यतः आज के युग को प्राविधिक विकास का युग कहा जाता है। किंतु आगे ऐसी प्राविधि का भी विकास संभव है, जिसमें यांत्रिक उपकरणों को मानवीय इच्छाशक्ति से इच्छानुसार संचालित किया जा सके। वह स्थिति आज की यांत्रिक प्राविधिकी से बहुत अधिक विकसित होगी। प्राचीन भारत में उसके समुचित विकास होने के भी प्रामाणिक संकेत मिलते हैं; किंतु वह प्रगति भी अध्यात्म की दृष्टि से इतनी ही भिन्न एवं विपरीत दिशा में होगी जितनी आज है। क्योंकि अंततः है, वह भी लौकिक अभ्युदय ही। निःश्रेयस् की दिशा उससे भिन्न है।

त्रिगुणात्मिका प्रकृति के रहस्यों का भेदन कर ही, आज भी भौतिक विज्ञान आगे बढ़ रहा है। प्रकृति जननी से प्रश्न पूछकर उसके संकेतों का अध्ययनकर, उसके क्रियाकलापों का विश्लेषणकर तथा उसकी कार्य-प्रणाली के नियमों की खोजकर ही वैज्ञानिक प्रगति की जाती है। ऐहिक समुन्नति की यही दिशा है। यह आवश्यक तो है, किंतु है यह भोगमार्ग ही। अपवर्ग या अध्यात्म मार्ग इससे भिन्न है। प्रकृति के दृश्यों का भोगवृत्ति से भी उपयोग हो सकता है। और अध्यात्मिकवृत्ति से भी। महर्षि पतंजलि ने भी कहा है—

“प्रकाशक्रियास्थिति शीलं भूतेन्द्र्रयात्मक भोगा- पवर्गार्थ’ दृश्यम्॥ (पातंजलयो. सू. २/१८)

अर्थात् प्रकाश, क्रिया एवं स्थितिशील यानी त्रिगुणमय यह दृश्य भूतेंद्रियात्मक है, यानी पंचभूतों और इंद्रियों दोनों के ही स्तरों पर ये त्रिगुणात्मक दृश्य वैविध्य घटित होते रहते हैं। ये भोग के लिए भी होते है और अपवर्ग के लिए भी।

जब दृश्यों के प्रति उपलब्धि का भाव रहता है। यह मैंने पा लिया, अमुक ऐहिक प्रगति मैंने कर ली है, आदि भाव दृढ़ रहता है, तब वे ही दृश्य भोग का आधार बनते हैं। जब उनकी विविधता का मूलस्वरूप जानने का विवेक जागृत रहता है, तब वे ही दृश्य अपवर्ग का मोक्ष का आधार बन सकते हैं।

वस्तुतः आत्मसत्ता की दृष्टि से भोग भी एक प्रकार का ज्ञान है और अपवर्ग भी ज्ञान है। अविवेकपूर्ण जानकारियाँ भोग है तथा विवेकपूर्ण-बोध अपवर्ग या मोक्ष है। जब दृश्यों प्रकृतिगत उपलब्धियों के साथ अपनत्वभाव जोड़कर प्रकृति संबंधी विभिन्न क्रियाकलापों को आत्मा के क्रियाकलाप समझ लिया जाता है, हानि-लाभ, सुख-दुख, सफलता-असफलता, भौतिक साधनों की बढ़ती-घटती आदि के साथ जब आत्मभाव जोड़ दिया जाता है तब वे ही ज्ञानात्मक अनुभव भोग कहलाते है। जब ये सारे दृश्य-परिवर्तन व्यक्ति में इस जागृत विवेक को दृढ़ बनाते चलते हैं कि ये सारे परिवर्तन भौतिक दृश्यों एवं ऐंद्रिक अनुभूतियों में हो रहे है, मूल चेतना तो साक्षीमात्र है, तब यही ज्ञान-प्रक्रिया मोक्ष की प्रक्रिया बन जाती है।

इस प्रकार भोग एवं मोक्ष दोनों में वास्तविक अंतर ज्ञान के स्वरूप का है। ज्ञान, भोग के लिए भी आवश्यक है और मुक्ति के लिए भी। अज्ञानी न तो प्रचुर भोग में समर्थ हो सकता, ना ही मोक्ष में। बंधन और मोक्ष दोनों ज्ञान के या दर्शन के स्वरूप पर निर्भर है। भोग दर्शन का नाम है—बंधन और अपवर्ग दर्शन का नाम है—मोक्ष। इस प्रकार एक ही प्रकार के प्रकृति-दृश्य भोगमूलक दृष्टि या दर्शन होने पर बंधन का कारण बनते है और विवेकपूर्ण दर्शन होने पर मोक्ष का।

इसीलिए वैज्ञानिक प्रगति से मोक्ष का न तो विरोध है, नहीं मैत्रीसंबंध है। विज्ञान का संबंध प्रकृति से है और मोक्ष या बंधन का संबंध दर्शन के स्वरूप से ही।

जिन दिनों भारत में मोक्ष धर्म की प्रतिष्ठा थी, उन दिनों वैज्ञानिक प्राविधिक प्रगति आज से कम नहीं, अधिक ही थी, प्रगति की वह स्थिति इतनी सुविकसित थी कि यांत्रिक उपकरणों को इच्छाशक्ति से संचालित किया जाता था। पदार्थों के स्थूल एवं सूक्ष्म स्वरूपों का अध्ययन अनुसंधान करने पर ही ऐसी प्रगति संभव होती है। अतः पदार्थविद्या उन दिनों भी विकसित थी। साथ ही परामनोविद्याएँ भी विकसित थी, जिनका आरंभिक स्वरूप टेलीपैथी, क्लेयर वायर, आदि रूपों में सामने आ रहा है। ये सभी लौकिक प्रगति के ही विविध रूप है।

आध्यात्मिक प्रगति तब होती है, जब इस संपूर्ण वैज्ञानिक प्रगति की अर्थवत्ता को भी समझें अर्थात इसका प्रयोजन क्या है, वह निश्चित करें। वैज्ञानिक प्रगति का प्रयोजन जब उत्कृष्ट दार्शनिक चेतना के साथ समझकर उत्कृष्टता की दिशा में बढ़ने के लिए उस प्रगति का उपयोग किया जाता है, तभी आध्यात्मिक प्रगति संभव होती है। महर्षि पतंजलि ने भी यही संकेत किया है—

“स्थूल स्वरुप सूक्ष्मान्वयार्थवत्त्वसंयमाद् भूतजय। (पात. यो ३/४४)

अर्थात् स्थूल, स्वरूप, सूक्ष्म, अन्वय तथा अर्थवत्त्व’ इन पाँचों प्रकार के भूतरूपों में संयम करने पर ही भूतजय होती है। इसी प्रकार—

‘ग्रहणस्वरुपास्मितान्वयार्थवत्त्वसंयमादिन्द्रियजयः।” (पातंजलि योग सूत्र ३/४७)

अर्थात ग्रहण, स्वरूप, अस्मिता,अन्वय और अर्थवत्त्व इन पाँच इंद्रियरूपों में संयम करने पर इंद्रियजय होती है।

आगे बताया गया है कि इन सबसे जो सिद्धियाँ प्राप्त होती है, उनके प्रति भी वैराग्यभाव रखने पर कैवल्य या मोक्ष की अवस्था आती है।

“तद्वैराग्यादपि दोषबीजक्षये कैवल्यम्॥ (पात.यो. ३/५०)

इस प्रक्रिया को भली-भाँति समझ लेना चाहिए। पाँच प्रकार के भूतरूप हैं— स्थूल स्वरूप, सूक्ष्म, अन्वय एवं अर्थवत्त्व। स्थूलरूप वह है जो सामान्यतः दीखता है— अन्न, वस्त्र, भवन, उपकरण, नदी, पहाड़, यंत्र आदि। इनका स्वरूप, यानी इनके मूल भौतिक तत्त्वों का स्वरूप। सूक्ष्म का अर्थ है— परमाणुरूप। जिसे शास्त्रीय शब्दावली में तन्मात्ररूप कहते है। अन्वय चौथा रूप है, जिसका अर्थ है— इनका ऊर्जा रूप या प्रकाश, क्रिया एवं स्थिति की मूलभूत ऊर्जा-क्रियाएँ। भूत का पंचम रूप है— उनका अर्थवत्त्व यानी उनके आयोजन की अर्थवत्ता, सार्थकता को समझना।

इसी प्रकार इंद्रियों का ग्रहणरूप उनका प्रथम रूप है। संवेदनाओं का ग्रहण-संप्रेषण ये इंद्रियों की प्राथमिक क्रियाएँ है। उनके स्वरूप का अर्थ हैं— वे बुद्धिसत्व का किस प्रकार अंग है, यह जानना। इंद्रियाँ मस्तिष्क की अनुचर हैं, सहायक हैं, यही उनका स्वरूप है, यानी यह जानना कि देखने, सुनने, गंध, स्वाद पहचानने, स्पर्शानुभूति करने की संवेदन (फीलिंग) प्रक्रियाओं का स्वरूप क्या है? तीसरा रूप है—अस्मिता। इंद्रियगत अस्मिता की सक्रियता ही           ज्ञान-जानकारियाँ है। अतः सक्रियता जानने, नोइंग' की प्रक्रिया को समझना ही तीसरे रूप का संयम है।

अन्वय नामक चतुर्थ रूप का संयम गुणों के मूलरूप को जानना, यानी प्रकाश, क्रिया और स्थिति की सूक्ष्मचेष्टाओं को जानना तथा उन पर संयम प्राप्त करना है। पाँचवाँ रूप है—अर्थवत्त्व, यानी इंद्रियों के माध्यम से सक्रिय पुरुषार्थवत्त्व का स्वरूप जानना। भूतों और इंद्रियों के इन पाँचों-पाँचों रूपों में संयम करना. यानी इनकी प्रक्रियाओं की विशद एवं सूक्ष्मतम जानकारी प्राप्त कर उन पर नियंत्रण कर सकना। स्पष्ट है कि ऐसा संयम अर्थवत्ता को समझने पर ही होता है। जब इस संपूर्ण ज्ञान-विज्ञान की सार्थकता समझकर मनुष्य अपने देवत्व को पूर्णतः विकसित कर लेता है, तभी वह कैवल्य की अवस्था में पहुँचता है। अध्यात्म ज्ञान की यह स्थिति ही मुक्ति की स्थिति है।


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