योगशास्त्रों में आत्मा को परमात्मा से मिलाने, जीव को ब्रह्म से विलीन करने वाली साधनाओं द्वारा अपने लक्ष्य की प्राप्ति संभव बताई गई है, वहीं यह भी बताया गया है कि ये साधनाएँ करते-करते मनुष्य अनेक दिव्यशक्तियों का स्वामी बन जाता है और उसके भीतर ऐसी-ऐसी विलक्षणताओं के उद्भव की बात भी कही गई है, जिन्हें चमत्कारी सिद्धियाँ कहा जाता है। योग दर्शन के चार पादों में से एक पाद-एक अध्याय में तो केवल उसी बात का विवेचन किया गया है कि योगसाधक को कौन-कोन सी सिद्धियाँ प्राप्त होती है। दिव्यदर्शन, दिव्यश्रवण, दूरदर्शन, भूत-भविष्य का ज्ञान, प्रातिभ, श्रावण, वेदना, आदर्श आस्वाद, बार्ता छह पुरुष ज्ञान सिद्धियाँ तथा अणिमा, महिमा लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व, काय सपत और अनभिघात आदि सिद्धियों का उल्लेख आता है। अन्याय शास्त्रों में इन सिद्धियों का इतना सविस्तार उल्लेख मिलता है कि उन्हें पढ़कर सहज ही विश्वास करते नहीं बनता। कई लोग इसी कारण योगशास्त्र और उसकी सिद्धियों को कपोल-कल्पित मानते थे। कल तक विज्ञान की भी यही धारणा थी किंतु जब इस तरह की अनेकानेक घटनाओं और सिद्धिसंपन्न व्यक्तियों का विश्लेषण तथा परीक्षण किया गया तो पता चला कि अतींद्रिय सामर्थ्य केवल कहने-सुनने या मनमोदक खाने जैसी ही बात नहीं है। बल्कि वे तथ्यपूर्ण हैं और योगसाधना द्वारा उनका विकास एक विज्ञानसम्मत प्रक्रिया से होता है। उसके द्वारा विश्व-ब्रह्मांड में व्याप्त परम चेतना से तादात्म्य स्थापित कर जीवचेतना उसकी सामर्थ्य को अर्जित करने लगती है।
मुंडकोपनिषद् के दूसरे अध्याय में महर्षि अंगिरा शौनक से कहते हैं कि,"जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि से उसी के जैसे रूप-रंग वाली हजारों चिनगारियाँ चारों ओर निकलती है, उसी प्रकार परम पुरुष अविनाशी ब्रह्म से नाना प्रकार के मूर्त-अमूर्त भाव निकलते हैं, उन्हें जीवसत्ता भी कहा जा सकता है। चिनगारियाँ जिस प्रकार अग्नि की समस्त विशेषताएँ अपने में समाहित किए रहती हैं, उसी प्रकार जीवात्मा में भी परमात्मा की समस्त विशेषताएँ अंतर्निहित रहती हैं। उन्हें प्रयत्नपूर्वक योगसाधन और तपश्चर्या द्वारा जागृत किया जा सकता है। उस जागृति के फलस्वरूप जो कुछ इंद्रियातीत है, वह इंद्रियगम्य बन सकता है, और जिसे बुद्धि द्वारा नहीं समझा जा सकता, जो बुद्धि की पकड़ में नहीं आता वह प्रज्ञा द्वारा, जागृत सूक्ष्मबुद्धि द्वारा जाना जा सकता है।
अतींद्रिय क्षमताओं के प्रमाण ऐसे रूप में भी मिलते हैं कि कई बार यह किंहीं व्यक्तियों में बिना किसी प्रयास के अनायास ही जागृत हो जाती है। शास्त्रकार इसका कारण पूर्व जन्मों के संचित संस्कार बताते है। पूर्व अभ्यास के फलस्वरूप भी इनका उदय हुआ बताया जाता है, यह किस प्रकार और कैसे उत्पन्न होती हैं? यह एक अलग विषय है, पर इन चमत्कारी असाधारण कही जाने वाली घटनाओं से इतना तो पता चलता ही है कि मनुष्य में अतींद्रिय क्षमताओं के स्त्रोत विद्यमान हैं तथा उन्हें आध्यात्मिक साधनाओं या भौतिक उपायों और उपचारों क्षरा जागृत किया जा सकता है। ऐसी अनेक घटनाएँ आए दिन सामने आती रहती हैं जिनके आधार पर चेतन की स्वतंत्र सत्ता, ब्रह्माण्डव्यापी, चेतन जगत और अतींद्रिय सामर्थ्य प्रमाणित होती है।
पिछले दिनों विचारशील लोगों का ध्यान इस ओर आकर्षित हुआ और उन्होंने इस दिशा में खोज-बीन की। खोज-बीन का लक्ष्य यह रखा गया कि क्या सचमुच ही चेतना का अपना अस्तित्व, क्षेत्र और बल होता है? यदि होता है तो क्या उसको विकसित करके उपयोग में लाया जा सकता है? यदि हाँ, तो उसका लाभ किस प्रकार उठाया जा सकता है? इन बातों की खोज-बीन करने पर जो जानकारियाँ मिली हैं, वे इसके लिए विवश करती हैं कि विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय से मनुष्य को अधिक समर्थ एवं संसार को अधिक सुखी बनाने वाले आधार खड़े किए जा सकते है।
इस खोज-बीन के दौरान अन्वेषणकर्ताओं ने ऐसी कई घटनाओं और व्यक्तियों की जाँच की जिनका संबंध अतींद्रिय क्षमता से था। चेकोस्लोवाकिया के एक शिल्पी व्रेतिलाव काफ्थ में अतीन्द्रिय दर्शन की अद्भुत क्षमता थी। उसके द्वारा उत्तरी ध्रुव की ऋतुओं और परिस्थितियों की जानकारी प्राप्त करने में महत्त्वपूर्ण सहयोग मिला तथा दूसरे महायुद्ध के समय उसने युद्ध के मोर्चे की हलचलों के बारे में जो विलक्षण जानकारियाँ दीं, वे आश्चर्यजनक रूप से सत्य सिद्ध हुईं। इतना ही नहीं उसकी इस क्षमता का लाभ भी युद्ध में उठाया गया। इनसाइक्लोपीडिया ऑफ आकल जो तंत्रविद्या के विश्वकोष के रूप में प्रसिद्ध है, में एटीन मेसकर नामक एक ऐसे व्यक्ति का उल्लेख मिलता है जो पेट के माध्यम से अप्रत्यक्ष एवं अदृश्य वस्तुओं का विवरण बताया करता था। फ्रांसीसी वैज्ञानिक और कविजूल्स ने इस व्यक्ति की जाँच कर यह लिखा है कि प्रत्येक व्यक्ति की त्वचा में ऐसे कोषाणु उपस्थित रहते हैं जो देखने की क्षमता रखते हैं। मेसकर में ये कोषाणु अधिक सुविकसित स्थिति में विद्यमान है। यह कोष स्पर्श के आधार पर देखने का बहुत कुछ प्रयोजन पूरा करते है। स्मरणीय है, अंधे व्यक्ति अपनी त्वचा और कानों द्वारा ही नेत्रों के अभाव की बहुत कुछ आवश्यकता पूरी कर लेते हैं।
सन् १९५९ में अमरीका के वैज्ञानिकों ने टैलीपैथी का सफल प्रयोग किया और बिना किसी यंत्र-उपकरण के नाटिलस नामक पनडुब्बी तक अपने विचार-संदेश भेजे और पनडुब्बी में बैठे व्यक्तियों से भी उसी प्रकार के विचार-संदेश प्राप्त किए। इस समाचार को रूस में काफी महत्त्व दिया गया और वहाँ भी टैलीपैथी के जो प्रयोग चल रहे थे, उन्हें काफी तीव्र कर दिया गया। रूस के एक वैज्ञानिक ने एक खरगोश के नवजात बच्चों को पनडुब्बी में पहुँचाया। उद्देश्य था— टैलीपैथी का प्रयोग-परीक्षण करना। इन बच्चों की माँ, मादा खरगोश को समुद्र से बाहर रखा गया तथा मादा और बच्चों के मस्तिष्क में एक ही प्रकार के इलेक्ट्रोड्स लगा दिए गए थे। गहरे पानी में पनडुब्बी पहुँचने पर बच्चों को एक-एक कर कत्ल किया गया। बच्चों और उनकी माँ के मस्तिष्क में लगे इलेक्ट्रोड्स का कोई संबंध नहीं था, पर देखा गया कि जिस समय बच्चे कत्ल किए गए उस समय उनकी माँ बुरी तरह तिलमिलाई। उसकी गतिविधियाँ ऐसी थी मानों वह अपने बच्चों के छीने जाने पर उन्हें बचाने के लिये प्रयत्न कर रही हो या जैसे ठीक उसी के सामने उनका कत्ल किया जा रहा हो। इस प्रयोग से जाना गया कि प्राणियों के बीच कोई पारस्परिक संबंध सूत्र है और उसे प्रखर बनाकर उनके बीच आदान-प्रदान का आधार खड़ा किया जा सकता है।
अमेरिका के जीवविज्ञानी क्लीप वैवस्टीट ने कुछ समुद्री केकड़ों पर इसी प्रकार के प्रयोग किए। उन्होंने देखा कि एक केकड़े के मारे जाने पर दूसरे केकड़ों को ही नहीं अन्य जलजीवों को भी कष्ट का अनुभव होता है। इस अनुभूति-प्रवाह को रोकने के लिए सीसे की दीवारें खड़ी की गईं जिससे कष्ट पाने वाले प्राणी का सूक्ष्मसंपर्क उस क्षेत्र के अन्य प्राणियोँ से न रहे। इतना करने पर भी वह प्रवाह रुका नहीं और एक पीड़ित प्राणी की प्रतिक्रिया अन्यान्यों को प्रभावित करती रही। इस आधार पर वैवस्टेट ने यह प्रतिपादित किया है कि प्राणीमात्र के बीच एक ऐसा चेतना-प्रवाह विद्यमान हैं जो उन्हें परस्पर एकसूत्र में बाँधे रहता है और वे एकदूसरे के सुख-दुख की अनुभूति करते है। एक दूसरे वैज्ञानिक डाॅ. गार्डनर मरफी का प्रतिपादन भी इसी प्रतिपादन से मिलता जुलता है। उनके अनुसार जिस प्रकार समुद्र में पाए जाने वाले ज्वालामुखी द्वीप समूह बाहर से पृथक दीखते हुए भी अग्नि उगलने के संबंध में गहराई के अंतराल में परस्पर जुड़े रहते हैं, उसी प्रकार प्राणियों की सत्ता पृथक-पृथक होते हुए भी उन के बीच ऐसा संबंध-सूत्र विद्यमान हैं। जो एकदूसरे की अनुभूतियों में सहभागी बनाए रहता है।
बीस-बाईस वर्ष पूर्व तक रूप में टैलीपैथी को जादूगरी और धोखाधड़ी की संज्ञा दी जाती थी तथा उसका तिरस्कारपूर्वक उपहास उड़ाया जाता था। इस संबंध में कहा जाता था कि विचार-संप्रेषण के लिए मस्तिष्क में इलैक्ट्रोमैजोटिक-तरंगें चाहिए जब कि वहाँ उनका कोई अस्तित्व नहीं है। ऐसी दशा में इस प्रकार की कोई संभावना विज्ञान स्वीकार नहीं कर सकता। इस प्रतिपादन के अग्रणी वैज्ञानिक अलेक्जेंडर किताई गोरोरस्की ने पीछे अपने विचार बदल दिए। विचार बदलने का कारण यह था कि आगे चलकर उन्होंने कई परामनोवैज्ञानिक शोधों का निकट से अध्ययन किया और जो तथ्य सामने आए उनके अनुसार अपनी पूर्व धारणाओं की गलती को ईमानदारी के साथ स्वीकार कर लिया।
गोरोरस्की ने अपने बाद के प्रतिपादनों में कई व्यक्तियों की अतींद्रिय क्षमता को पूरी ईमानदारी के साथ स्वीकार किया है। उन्होंने बूल्फ मेसिंग नामक एक व्यक्ति का उल्लेख किया है, जिसमें अनायास ही ऐसी क्षमता उत्पन्न हो गई, जिससे वह दूरस्थ घटनाओं एवं विचारों का परिचय प्राप्त कर लेता था। गोरोरस्की के अतिरिक्त अन्य कई व्यक्तियों ने भी उसका परीक्षण किया और पाया कि टैलीपैथी कोई जादूगरी अथवा धोखाधड़ी नहीं बल्कि एक ध्रुवसिद्ध सत्य है।
भारतीय योग शास्त्रों में स्थूलनेत्रों के अतिरिक्त एक तीसरे सूक्ष्मनेत्र का उल्लेख भी मिलता है, जिसे आज्ञाचक्र कहते है। इसका स्थान दोनों ध्रुवों के बीच में बताया जाता है। ध्यान-साधना के समय यहीं दृष्टि केंद्रित करने का निर्देश भी विभिन्न शास्त्रों में मिलता है। इस केंद्र को संसार की स्थूल और सूक्ष्म परिस्थितियाँ जानने-समझने की ही नहीं, वस्तुओं और व्यक्तियों को प्रभावित करने की भी क्षमता है। इतना ही नहीं वातावरण में व्यापक परिवर्तन भी इस केंद्र के उपयोग द्वारा संभव बताया गया है। दूरदर्शन, परोक्ष दर्शन, तो उसकी आरंभिक कला है। एक्स-किरण जिस प्रकार ठोस पदार्थों से पार हो जाती है, वे पदार्थ उसमें कोई बाधा नहीं पहुँचते और वह आँखों से न दिखाई देने वाली भीतरी स्थिति का भी चित्र खींचकर रख देती है, उसी प्रकार आज्ञाचक्र की संकल्प- किरणें दूर अदृश्य को भी तमाम अवरोधों—बाधाओं के बाद भी जान लेती हैं। इस माध्यम से न केवल पदार्थों को देखने का प्रयोजन पूरा होता है, वरन् जीवित प्राणियों की मनःस्थिति को भी समझ पाना संभव हो जाता है। आज्ञाचक्र द्वारा मात्र देखना-समझना ही संभव नहीं होता अपितु उसकी क्षमता दूसरों को भी प्रभावित और परिवर्तित कर सकती है।
इस तथ्य को तो विज्ञान भी स्वीकार करता है कि विश्व का हर पदार्थ अपने साथ ताप और प्रकाश की विद्युत-किरणें संजोए हुए हैं। वे कंपन लहरियों के साथ इस निखिल विश्व में अपना प्रवाह फैलाता है और ईथरतत्त्व के द्वारा दूर-दूर तक जा पहुँचती हैं। यदि उन्हें ठीक प्रकार से पकड़ा जा सके तो दृश्य बहुत दूरी पर अवस्थित होते हुए भी देखा जा सकता है। इस प्रवाह को पकड़ पाना किसी प्रकार संभव हो सके तो जो घटनाएँ बहुत दूर घटित हो रही हैं उन्हें निकटवर्ती दृश्यों की तरह देख पाना सहज संभव है। आस-पास की वस्तुओं और ध्वनियों को नेत्र तथा कर्णेंद्रियाँ देख-सुन सकती है। प्रत्यक्ष को ये ही देखती- सुनती है। आज्ञाचक्र वह तीसरा नेत्र और तीसरा श्रोत्र है जो अदृश्य भी कहा गया है। छठी इंद्रियाँ अर्थात् जो पाँचों इंद्रियों का वह क्रिया-व्यापार संपादित कर सकती है, जो स्थूलइंद्रियों के माध्यम से संभव न हो। यही है—अतींद्रिय क्षमता और उसका विज्ञान।