आदिमयुग से आगे बढ़कर मनुष्य ने अब तक जो आश्चर्यजनक प्रगति की है, उसके मूल में मानवीय मस्तिष्क की सक्रिय भूमिका ही है। यदि मनुष्य में मस्तिष्क न होता तो वह किसी चलते-फिरते जानवर या पेड़-पौधे से अधिक अच्छी स्थिति में नहीं होता। यों जानवरों में भी मस्तिष्क होता है, पर मानवीय मस्तिष्क की बात ही और है। मनुष्य के शिरो भाग में स्थित दीखने, नापने और तोलने में छोटा-सा लगने वाला मस्तिष्क जादुई क्षमताओं और गतिविधियों से भरा है।
प्रकृति ने इसके महत्त्व को देखते हुए इसकी सुरक्षा का अच्छा-खासा प्रबंध किया है। सबसे पहले तो सिर पर स्थित घने बालों को ही लें जो मस्तिष्क को, सर्दी, धूप और वर्षा से बचाने में बहुत बड़ा योग देते हैं। बालों के बाद चमड़ी और हड्डियाँ आती हैं। ये हड्डियाँ शरीर के अन्य अवयवों की अस्थियों से अधिक मजबूत होती हैं, जो बाहरी आघातों से मस्तिष्क के भीतरी भाग की यथासंभव रक्षा करती हैं। इन हड्डियों के नीचे भी तरल द्रव की एक परत होती है, जो बाहरी धक्कों को सहने में सहायक सिद्ध होती हैं। इस परत के नीचे खून की परत होती है, जो दिमाग को पोषण तो पहुँचाती ही है, परंतु ऐसी दूसरी वस्तुओं को मस्तिष्क में पहुँचने से रोकती है, जो मस्तिष्क के लिए हानिकारक सिद्ध हों। कई तरह के बैक्टीरिया और नशीली वस्तुएँ इसी सुरक्षाकवच के कारण मस्तिष्क के अंदर तक प्रवेश नहीं कर पाती। लेकिन दर्दनाशक दवाएँ, शामक औषधियाँ और अल्कोहल जैसे पदार्थ इस रक्षापंक्ति को पारकर अंदर तक पहुँच जाते हैं।
यह तो हुई मस्तिष्क की बाहरी संरचना। इसकी क्षमताओं का विश्लेषण करने के बाद वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि मस्तिष्क में जितनी अद्भुत शक्तियाँ हैं, उन सभी को समाहित करने वाला यदि कोई कंप्यूटर बनाया जाए तो वह इतना बड़ा होगा कि उसे रखने के लिए 5,00,00,000 वर्गमील जमीन चाहिए। अर्थात पूरी पृथ्वी पर मुश्किल से एक कंप्यूटर रखा जा सकेगा।
इतनी अद्भुत और अनुपम विशेषताओं को करीब 2600 ग्राम वजनी और 1400 घन से.मी. आयतन वाले मस्तिष्क में समाहित कर देना उस अद्वितीय कलाकार का ही काम है, जिसे ईश्वर कहा जा सकता है। विज्ञान की भाषा में कहें तो प्रकृति ही यह कर पाने में समर्थ हुई है। मस्तिष्क विज्ञान के अनुसार बाहरी धूसर पदार्थ (ग्रेमैटर) में तंत्रिका कोशिकाओं (न्यूरांस) की संख्या 30 अरब हैं। अनुमस्तिष्क (सोर्टबैलम) में 120 अरब और मेरुदण्ड में 1 करोड़ 34 लाख तंत्रिकाएँ इसके अतिरिक्त हैं। इनके अलावा ग्लाया स्तर की करीब 1 खरब लघु कोशिकाएँ इन न्यूरांस की सहयोगी बनकर काम करती हैं इन सबके मिलनस्थल को तंत्रिकाबंध (न्यूरोग्लाया) कहते हैं और इन सब का सम्मिश्रित प्रयास ही मस्तिष्कीय चेतना है।
तंत्रिका कोशिकाओं की शिराएँ आपस में एकदूसरे से जुड़ी रहती हैं। स्मरणीय है कि घर में लगे बिजली के १ प्लग से अधिकाधिक तीन या चार कनेक्शन जोड़े जा सकते हैं, पर न्यूरान तो करीब 60,000 कनेक्शंस से जुड़ा रहता है। अत्यन्त शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शक-यंत्र से देखने पर हर न्यूरान एक मकड़ी के जाले की तरह दिखाई पड़ता है। और एक न्यूरान से दूसरे न्यूरान को संकेत मिलते हैं। यह संकेत 360 मील प्रति घंटे की चाल से चलते हैं। संकेत-ग्रहण करने के बाद न्यूरांस वापस पूर्वस्थिति में आ जाते हैं।
यह संकेत मस्तिष्कीय विद्युतशक्ति के माध्यम से चलते हैं। तंत्रिका कोशिकाओं से होता हुआ विद्युत-आवेश आगे बढ़ता हैं और ज्ञानेंद्रियों से प्राप्त सूचनाओं को मस्तिष्क के संबंधित केंद्र तक पहुँचा देता है। सामान्य जीवन में जहाँ मनुष्य को बिजली की आवश्यकता के लिए बिजलीघर पर निर्भर रहना पड़ता है, वहाँ यह आश्चर्य का विषय ही हो सकता है कि मस्तिष्क अपनी विद्युत-ऊर्जा स्वयं उत्पन्न करता है।
मस्तिष्क के अरणें कोशों में प्रत्येक की अपनी विशेषताएँ और अपनी दुनिया है। वे प्रायः अपना काम दक्षतापूर्वक निपटाने में सक्षम और अभ्यस्त है, परंतु सामान्य मनुष्यों की मस्तिष्कीय क्षमता का 96 प्रतिशत भाग प्रसुप्त और निष्क्रिय पड़ा रहता है। केवल ४ या ५ प्रतिशत भाग ही उपयोग में आता है। अत्यंत मेधावी और प्रतिभाशाली व्यक्ति भी अपने मस्तिष्क में संनिहित क्षमताओं को अधिकतम १०-१२ प्रतिशत ही उपयोग में ला पाते हैं। इस प्रकार मस्तिष्क में अनंत और अकल्पनीय विस्मयजनक क्षमताएँ विद्यमान रहती हैं।
यों मस्तिष्क की बाहरी बनावट को देखने से इतना ही पता चलता है कि यह मात्र रासायनिक पदार्थों से बना माँसपिंड ही है, पर वस्तुतः ऐसा है नहीं। यदि ऐसा होता तो उसके भार-विस्तार के अनुपात से ही उसकी क्षमता भी कम ज्यादा होती दिखाई देती। हाथी और व्हेल मछली के मस्तिष्क का विस्तार मानवीय मस्तिष्क की तुलना में कई गुना अधिक है, पर मनुष्य को जो क्षमताएँ उपलब्ध है, वह इन प्राणियों में कहाँ? इसका कारण मानवी मस्तिष्क की सूक्ष्मसंरचना और उसमें निहित अद्भुत संभावनाएँ ही है।
भीतरी मस्तिष्क के चारों ओर काले रंग की दो पट्टियाँ लिपटी रहती हैं। करीब २५ वर्गइंच की एक बटा दस इंच मोटी इन पट्टियों को ‘टेंपोरल-कोरटेक्स’ कहा जाता है। कनपटियों के ठीक नीचे स्थित ये पट्टियाँ स्मृतियों का संचय और नियमन करती है। डाॅ. विल्डर पेन अपने अनुसंधान प्रयोगों के दौरान इन पट्टियों में छुपी-दबी मुद्दतों पुरानी ऐसी स्मृतियाँ जगाने में सफल हुए हैं, जो सामान्य या उपेक्षणीय कही जा सकती है। उदाहरण के लिए किसी से पूछा जाए कि १२ दिसंबर १९७८ की रात में उन्होंने क्या स्वप्न देखा था?
स्वप्न एक तो वैसे ही याद नहीं रहते। रहते भी हैं तो, थोड़े दिन बाद में वे अपने आप विस्मृत हो जाते हैं, परंतु ‘टेंपोरल कारटेक्स’ में उस दिन देखे गए स्वप्न की स्मृति भी अंकित रहती है और उन्हें जगाकर अमुक दिन देखे गए, किंतु भुला दिए गए स्वप्न को भी याद किया जा सकता है।
सामान्यतः जीवन में महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालने वाली घटनाएँ ही याद रहती हैं, पर दैनिक-जीवन में गुजरने वाली ऐसी अधिकांश घटनाएँ विस्मरण हो जाती हैं, जिनका कोई महत्त्व नहीं रहता। लगता तो है कि ऐसी घटनाएँ विस्मृति के गर्त में जा गिरीं, पर वस्तुतः ऐसा होता नहीं है। वे मस्तिष्क के ‘टेंपोरल कारटेक्स’ भाग में जा बैठती हैं और उसके पुराने परत को स्पर्श कर पुनः जागृत की जा सकती हैं।
जिन व्यक्तियों की स्मरणशक्ति अद्भुत विलक्षण दिखाई देती है, उसका कारण मस्तिष्क के इसी भाग का जागृत और सशक्त होना है। कई व्यक्तियों की स्मरणशक्ति तो इतनी तीव्र देखी गई है कि विस्मय-विमुग्ध रह जाना पड़ता है। लार्ड मैकाले के संबंध में विख्यात है कि उन्होंने इंग्लैंड का इतिहास १३ खंडों में लिखा था, पर इसके लिए उन्होंने किसी पुस्तक की सहायता नहीं ली थी। लिथुआनिया के रैवी एलिजा को दो हजार पुस्तकें कंठस्थ याद थी। कितनी ही बार उनकी परीक्षा ली गई, कई तरह से उन्हें जाँचा-परखा गया, पर उनकी स्मरणशक्ति ने कभी धोखा नहीं खाया। फ्रांस के राजनेता लिआर गैंवारा को किक्टर ह्यूगो की रचनाएँ बहुत पसंद थी। गैंबारा ने उनकी रचनाओं के हजारों पृष्ठ कंठस्थ कर रखे थे और आवश्यकता पड़ने पर वह घंटों तक उन्हें दोहराते रहते थे। इनमें एक भी शब्द आगे-पीछे नहीं होता, यहाँ तक कि वह पृष्ठ-संख्या तक सही-सही बता देता था।
शतरंज का जादूगर कहे जाने वाले अमेरीकी नागरिक हैरी नेल्सन विल्सवरी एक साथ बीस खिलाड़ियों की चाल को स्मरण रखते हुए सबके साथ, एक साथ खेलते थे। यहीं नहीं, वे अपने मार्गदर्शन में इससे अधिक खिलाड़ियों को भी बड़ी तेजी और मुस्तैदी से खिलाते रहते थे। ग्रीक के विद्वान रिचार्ड पेरिसन को पढ़ी हुई पुस्तकें महीनों तक याद रहती थी। जो उनने आज पढ़ा हो उसे महीने भर बाद पूछने पर भी इसी तरह बता देते थे, जैसे पुस्तक ही पढ़ी जा रही हो। कई बार उनकी परीक्षा करने के लिए पुस्तक लेकर सामने बैठा गया तो पाया गया कि महीने भर पहले पढ़ी हुई पुस्तक पोरसन को शब्दशः याद है।पर्शिया (जर्मनी) के लाइब्रेरियन मैथुरिन वेसिरे दूसरे के कहे शब्दों को हूबहू दोहरा देते थे। मैथुरिन ने बारह व्यक्तियों द्वारा एक साथ बोले गए अलग-अलग वाक्यों को यथावत् दुहरा दिया।
स्मरणशक्ति ही नहीं, प्रत्युत्पन्नमति, तीव्र बुद्धि आदि के रूप में भी मस्तिष्कीय क्षमताओं के विलक्षण उदाहरण देखने में आए हैं। इन विलक्षणताओं का विश्लेषण करते हुए स्वीडन के जीवविज्ञानी डाॅ. होल्गर हाइडेन इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि मस्तिष्क को दक्ष बनाने वाले शिक्षण एवं चिंतन की प्रक्रियाएँ मस्तिष्कीय कोशिकाओं में महत्त्वपूर्ण रासायनिक पदार्थों की मात्रा बढ़ा देती हैं और वे अधिक संवेदनशील बनकर बुद्धिमत्ता का क्षेत्र विस्तृत बना देती हैं।
डाॅ. जोजे डेलगाडो ने अपने प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि आवश्यकतानुसार मस्तिष्क के किंहीं भी केंद्रों को उद्दीप्त ओर प्रसुप्त किया जा सकता है। विद्युत के द्वारा उन्होंने जानवरों से ऐसे कार्य करवा लेने के कई प्रदर्शन किए, जो उनकी प्रकृति के कदापि अनुकूल नहीं थे। प्रेरित सूचनाओं के अनुसार वे प्राणी ऐसे काम करने लगे, जो उनकी प्रवृत्ति के एकदम विपरीत थे। उदाहरण के लिए नम्र प्राणी उद्धत हो उठे और चंचल स्वभाव के बंदर, चूहे, बिल्ली शांत होकर बैठ गए।
इस तरह के प्रयोग मनुष्यों पर भी किए गए हैं तथा उनकी इच्छा, ज्ञान एवं क्रियाशक्ति को नियंत्रित कर अमुक ढंग से सोचने या काम करने के लिए विवश-सा कर दिया गया। सम्मोहनविद्या के द्वारा वशीकरण के लिए अब किसी व्यक्ति-विशेष के द्वारा किये गए प्रयोगों को आवश्यकता नहीं रही है। यह कार्य इलेक्ट्रानिक यंत्रों द्वारा भी किया जा सकता है।
तुलां विश्वविद्यालय के डा. राबर्ट हीथ ने ऐसा यंत्र भी बनाया है, जिसकी सहायता से किसी भी व्यक्ति की कार्यक्षमता को इच्छानुसार घटाया-बढ़ाया जा सकता है। परंतु इस तरह के वैज्ञानिक प्रयोग आसान होने के साथ-साथ खतरे से भी खाली नहीं हैं। मस्तिष्क की कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए आध्यात्मिक उपाय और शिक्षण ही निरापद रूप से सफल सिद्ध हुए हैं। यह विकास मात्र उस शिक्षण पर निर्भर नहीं रहता है, जो स्कूलों में या समीपवर्ती लोगों से मिलता है। यह प्रक्रिया जानकारी बढ़ाने में सहायक हो सकती है—मस्तिष्कीय विकास में नहीं। ध्यान-धारणा, एकाग्रचित्तता और मनोयोग मस्तिष्कीय क्षमताओं के विकास में पूर्णरूपेण सफल हैं। प्राचीनकाल में इसी आधार पर ऋषि-मुनियों ने आश्चर्यजनक सिद्धियाँ अर्जित की थीं और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में इतनी अधिक उन्नति की थी कि आधुनिक विज्ञान अभी उसकी दशमांश स्थिति में भी नहीं पहुँच सका है।