साधना से सिद्धि के सिद्धांत और प्रयोग

December 1979

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साधना का स्वरूप और उद्देश्य

यह सारगर्भित लेखमाला, भविष्य में हर महीने छपा करेगी। आठ पृष्ठ निश्चित रहेंगे। इस प्रतिपादन को श्रेष्ठ साधक अपना व्यक्तिगत एवं क्रमबद्ध मार्गदर्शन मानकर चल सकते हैं।

साधना चेतना-क्षेत्र का ऐसा व्यवसाय है, जिसमें पुरुषार्थ की तुलना में लाभ की मात्रा अत्यधिक है। पूँजी, परिश्रम और अनुभव के आधार पर संसार के सभी व्यवसाय चलते हैं और परिस्थिति के अनुरूप उनसे लाभ भी मिलता है। साधना का व्यवसाय इन सबसे सरल और फलप्रद है। उसमें न बाहर की सहायता अपेक्षित होती है, न साधन जुटाने पड़ते हैं और न परिस्थितियों के अनुकूलन की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। अपने आप को समझा लेने और सुधार लेने भर से वह प्रयोजन पूरा हो जाता है, जिसमें लाभ ही लाभ है। वह भी इतना असाधारण जिसकी तुलना में अन्य सभी व्यवसायों का लाभांश हलका पड़ता हैं। दूरदर्शी सदा से साधना के व्यवसाय की महत्ता समझते, उसे प्रमुखता देते और समुचित लाभ उठाते रहें हैं। प्रगतिशीलता में रुचि लेने वाले प्रत्येक जागरूक को लाभदायक व्यवसायों में से चुनाव करते समय साधना को प्रमुखता देने में ही बुद्धिमानी प्रतीत हुई है। आज भी उसी राजमार्ग का अनुसरण सबसे अधिक दूरदर्शितापूर्ण है।

सामान्य स्थिति में हर वस्तु तुच्छ हैं, पर यदि उसे उत्कृष्ट बना लिया जाए और उसकी सूक्ष्मता तक प्रवेश पा लिया जाए तो उससे ऐसा कुछ मिलता है, जिसे विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण कहा जा सके। समुद्र में खारी पानी भरा पड़ा है, पर उसकी गहराई में उतरने वाले मणि-मुक्तक ढूँढ़ लेते हैं और उस निरर्थक दीखने वाले जलाशय को रत्नाकर के रूप में संपदा का भांडागार पाते हैं। बात दोनों की सही है— उथली दृष्टि से खारे पानी का गड्ढा बेकार इतनी जमीन घेरे हुए है, पर सूक्ष्मदृष्टि से देखने पर समस्त भूमण्डल को वर्षा के रूप में जीवन-रस देने वाला वही प्रतीत होता है। खनिज पदार्थ जब भूमि से निकलते हैं तो धूलमिश्रित अनगढ़ होते है। उस रूप में उनका कोई उपयोग नहीं, किंतु जब उन्हें परिशोधित करके धातुओं के रूप में बना लिया जाता है तो अतिमहत्त्वपूर्ण उपकरण बनाने में उनकी उपयोगिता सराहते ही बनती है। पानी भाप बनता हैं और प्रचंड शक्ति के रूप में प्रकट होता हैं। धूलि के छोटे-छोटे घटकों में प्रचंड अणुशक्ति पाई जाती है। स्थूल से सूक्ष्म में जितना गहरा उतरा जाता है, उतने ही रहस्यमय तथ्यों का उद्घाटन होता जाता है। उसी ‘साधारण ‘ में दृश्यजगत के विज्ञानी पर्यवेक्षकों ने विलक्षण शक्तियों से भरा-पूरा पाया हैं और उन्हें खोजते हुए सामर्थ्य के साम्राज्य पर आधिपत्य जमाया है।

जीवन मोटी दृष्टि से ऐसे ही एक खिलवाड़ है, जिसे ज्यों-त्यों करके काटना पड़ता है। निर्वाह की आवश्यकता जुटाने, गुत्थियों को सुलझाने और प्रतिकूलताओं के अनुकूलन में माथा-पच्ची करते-करते मौत के दिन पूरे हो जाते हैं। अभावों और संकटों से पीछा ही नहीं छूटता। कई बार तो छड़ी इतनी भारी हो जाती है कि खींचे नहीं खिंचती है। फलतः प्रयत्नपूर्वक अथवा बिना प्रयत्न ही अकाल मृत्यु के मुँह में प्रवेश करना पड़ता हैं। नीरस और निरर्थक जीवन एक ऐसा अभिशाप है जिसे दुर्भाग्य के रूप में स्वीकार करना पड़ता है,किंतु लगता यही रहता है कि बेकार जन्मे और निरर्थक जिए। साधारण जीवन का यही स्वरूप है जो प्रतिकूल परिस्थितियों में तो अन्य प्राणियों से भी गया-बीता प्रतीत होता है।

असामान्य जीवन इससे आगे की बात है। सफल, समर्थ और समुन्नत स्तर के व्यक्ति सौभाग्यशाली दीखते है और उनकी स्थिति प्राप्त करने के लिए मन ललचाता हैं। भौतिक संपन्नता से संपन्न और आत्मिक विभूतियों के धनी लोगों की न प्राचीनकाल में कमी थी और न अब है। पिछड़े और समुन्नत वर्गों के मध्यांतर देखने से आश्चर्य होता है कि एक जैसी काया में रहने वाले मनुष्य प्राणियों की स्थिति का इतना ऊँचा और नीचा होने का क्या कारण हो सकता है? सृष्टा का पक्षपात एवं प्रकृति का अंधेर कहने से भी काम नहीं चलता, क्योंकि दोनों की सुव्यवस्थित एवं सुनियोजित सत्ता में अंधेरगरदी के लिए कहीं रत्ती भर भी गुंजाइश नहीं है। यदि व्यक्तिक्रम रहा होता तो ग्रह-नक्षत्र अपनी धुरी पर न घूमते, परमाणुओं के घटक उच्छृंखलता बरतते और परस्पर टकराकर उसी मूल स्थिति में लौट गए होते जिसमें कि महत्तत्व अपनी विज्ञात स्थिति में अनंतकाल से पड़ा था। अंधेरगरदी के रहते न यह सृष्टि बन ही पाती और न एक दिन चलती-ठहरती। यह सब कुछ परिपूर्ण व्यवस्था के अनुरूप चल रहा है।

फिर मनुष्यों के बीच पाए जाने वाले अंतर का क्या कारण है? इसका सुनिश्चित उत्तर यहीं है कि जीवन की उथली परतों तक ही जिनका वास्ता रहा उन्हें छिलका ही हाथ लगा, किंतु जिनने गहरे उतरने की चेष्टा की उन्हें एक के बाद एक बहुमूल्य उपलब्धियाँ मिलती चली गईं। गहराई में उतरने को अध्यात्म की भाषा में साधना कहते हैं। साधना किसकी? इसका उत्तर है— जीवन की। जीवन प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष है जो उसकी जितनी सदुपयोग साधना कर लेता है, वह उतना ही कृतकृत्य बनता है। जीवन का मूल्य महत्त्व और उपयोग न समझना ही वह अभिशाप है। जिसके कारण गई-बीती परिस्थितियों में दिन गुजारने पड़ते हैं। यदि स्थिति को बदल दिया जाए, जीवन देवता की अनंत सामर्थ्य तथा उसके वरदानों की असीम शृंखला को समझा जा सके तो प्रतीत होगा कि सृष्टि ने बीजरूप में वैभव का भांडागार इसी मानवीकाय-कलेवर के भीतर संजोया हुआ था। भूल इतनी ही होती रही कि न उसे खोजा गया और न काम में लाया गया। इस भूल का परिमार्जन ही आत्मज्ञान है। यह जागृति जब सक्रिय बनती है तो आत्मोत्कर्ष के लक्षण तत्काल दृष्टिगोचर होने लगते हैं। इसी आत्मपरिष्कार की प्रक्रिया का नाम साधना है।

साधना से सिद्धि का सिद्धांत सत्य है। भौतिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में साधनारत पुरुषार्थी अनेकानेक सफलताएँ अर्जित करते देखे जाते हैं। जीवन एक ऐसा क्षेत्र हैं जिसे जड़ जगत के किसी भी घटक एवं वर्ग में अत्याधिक महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है। जड़ सीमित है, चेतन असीम। जड़ से साधनमात्र मिलते हैं। चेतन में आनंद और उल्लास के भी भंडार भरे पड़े हैं। साधना का एक सुविस्तृत विज्ञान है। अध्यात्मतत्त्वज्ञान के अंतर्गत उसकी व्यापक विवेचना की गई है।

साधना के अभ्यासों को देखते हुए यह भ्रम होता है कि कहीं बाहर से कुछ माँगने-पाने का वह उपक्रम है, पर वस्तुतः बात ऐसी है नहीं। उपयोगी उपार्जन के लिए अपने खेत में ही फसल बोनी और काटनी पड़ती है। अपने पुरुषार्थी से ही निर्वाह होता है। बाहरी सहायता के बल पर किसका काम चला है? फिर याचना पर मिलता भी किसे कितना है। बच्चे को माता का दूध उपलब्ध रहने पर भी आखिर चूसने और पचाने का पुरुषार्थ तो उसे ही करना पड़ता है। इसके बिना दयालु माता भी शिशु को अपने अनुदानों से लाभान्वित नहीं कर सकती। दैवीशक्तियों के अनुग्रह से बहुत कुछ मिलता है, यह सत्य है, पर इससे भी बड़ा सत्य यह है कि उसके लिए पात्रता उपार्जित करनी पड़ती है। इंद्रदेव की विपुल वर्षा होते रहने पर भी न तो टीले पर जलराशि ठहरती है, न चट्टान पर हरियाली उत्पन्न होती है। उर्वर-भूमि ही वर्षा से लाभान्वित होती है। हरी-भरी बनती है।

पात्रता का संवर्द्धन ही साधना है। इसके लिए जीवन के बहिरंग को व्यवस्थित और अंतरंग को परिष्कृत करना होता है। परिष्कृति को योग और व्यवस्थिति को तप कहते हैं। साधना के यही दो क्षेत्र हैं। बहिरंग को सभ्यता की मर्यादा में करना होता हैं और अंतरंग को संस्कृत बनाने के लिए प्रबल पुरुषार्थ करना पड़ता है। साधना का तत्त्वदर्शन यहीं है। सरकस का पशुप्रशिक्षक अनगढ़ जानवरों को प्रशिक्षित करता हैं और उन्हें आश्चर्यजनक करतब दिखाने में अभ्यस्त कर लेता है। प्रकारांतर से यही प्रक्रिया जीवन-संपदा के अनगढ़ और अव्यवस्थितस्वरूप को सुव्यवस्थित और समुन्नत बनाने के लिए पड़ती हैं। साधना के समस्त उपचार इसी प्रयोजन के लिए सृजे गए हैं।

लोक-मान्यता यह है कि सिद्धियाँ देव अनुग्रह से बरसती है। साधना उसी की मनुहार है। यह मान्यता आंशिक रूप से ही सत्य है। दुकानदार माँगने से ही कोई वस्तु निकालकर दिखाता और देता है। न माँगने पर तो वह देना तो दूर, कुछ बताएगा तक नहीं। प्रार्थना को अपनी आवश्यकता की अभिव्यक्ति कह सकते हैं। इस अर्थ में वह उचित भी है और आवश्यक भी। भूल वहाँ होती है जब प्रार्थना को याचना समझा जाता है। याचना का अर्थ है— बिना मूल्य या अल्प मूल्य में कुछ बहुमूल्य पाने के लिए गिड़गिड़ाना। इस उपाय से बहुत हल्के अनुदान ही प्राप्त होते देखे गए हैं। इतने पर भी वे न तो संतोषजनक होते हैं और न सम्मानास्पद। उनका उपयोग करते समय आत्मग्लानि भी होती है और बाहर से तिरस्कृत भी होना पड़ता है। फिर यह प्रचलन तो मानवी है। व्यक्तिगत याचना-अनुदान का सिलसिला तो मानव समाज में ही प्रचलित है। विश्वव्यवस्था में तो खरीदने-पाने भर का विधान है। स्रष्टा की समूची सृष्टि इसी व्यवस्था की धुरी पर परिभ्रमण करती है कि पात्रता प्रस्तुत करने वाले को अनुदान किए जाएँ। पवन प्राणवायु की प्रचुर मात्रा लिए खड़ा रहता है, पर उसे सक्षम फेफड़े ही ग्रहण कर पाते हैं। मृतकों को कुछ दे सकने में समर्थ होते हुए भी पवन सर्वथा असमर्थ ही रहता है। मनोरम दृश्यों से भरी-पूरी इस दुनिया को निहारने का आनंद मात्र उन्हीं को मिलता हैं जिनकी आँखें सही हैं। ध्वनि-प्रवाह के अगणित उतार-चढ़ावों को समझने और श्रवण का आनंद लेने की सुविधा इस संसार में विद्यमान हैं, पर उसमें लाभान्वित हो सकना उन्हीं के लिए शक्य है जिनकी कान की झिल्ली ठीक है। बाहर से दैवी अनुग्रह बरसने की बात सत्य होते हुए भी वह निर्बाध नहीं है। यह शर्त जुड़ी ही हुई है कि अनुदान उपलब्ध करने लिए पात्रता अनिवार्य है।

पात्रता का संवर्द्धन ही साधना है। इस मार्ग पर चलने वाले को अतिरिक्त याचना नहीं करनी पड़ती, जो उपयुक्त है वह अनायास ही मिलता है। उपयुक्त का तात्पर्य है— अपने स्तर को बढ़ाए बिना न तो विभूतियाँ मिलती हैं और न मिलने पर ठहरती ही हैं। अतः पात्रता की पाचन की समर्थता का अभिवर्द्धन अनिवार्य रूप से आवश्यक है। साधनों में यही करना पड़ता है। यह प्रयास जितना प्रौढ़, प्रखर एवं परिपक्व होता है, उसी अनुपात में विभूतियाँ भीतर ही उफनती और बाहर से बरसती दृष्टिगोचर होने लगती हैं।

साधना में अदृश्य शक्तियों की सिद्धियों की उपलब्धि का प्रतिपादन गलत नहीं है। ईश्वर का अनुग्रह सृष्टि के हर घटक पर अनादिकाल से बरसता रहा है और अनंतकाल तक बरसता रहेगा। उसे न्यून या अधिक मात्रा में प्राप्त कर सकना अपने स्तर के अनुरूप ही हो सकता हैं। संसार में आहार के विपुल भंडार भरे पड़े हैं। उन्हें प्राप्त करने की सभी को सुविधा है, किंतु चींटी अपने स्तर की अपनी मात्रा में सामग्री प्राप्त करती है और हाथी को अपने काम के पदार्थ अपनी आवश्यकतानुसार मिलते रहते हैं। सृष्टा के अनुग्रह और अनुदान में कोई कमी नहीं। उससे याचना करने की आवश्यकता नहीं। पात्रता सिद्ध करना  पर्याप्त है। प्रार्थना का एवं साधना का उद्देश्य इसी पात्रता का अभिवर्द्धन है।

पेड़ अपनी आकर्षणशक्ति से बादलों को खींचते और बरसने के लिए विवश करते हैं। पौधों पर ओस के कण जमा होते हैं। खदानें अपने सजातीय-कणों को दूर-दूर तक आमंत्रण भेजती हैं और उन्हें अपने निकट खींच बुलाती हैं। यह चुंबकत्व है जो जहाँ जितना अधिक होता है, सजातियों को उसका उसी स्तर का आह्वान-आमंत्रण मिलता हैं। फलतः वे उसी गति से दौड़ते चले आते हैं। खिलते फूल का चुंबकत्व मधुमक्खियों, तितलियों और भौरों को न्योंत बुलाता है। खिलते हुए यौवन में अनेकों आँखें अनायास ही आकर्षित होती हैं। प्रतिभा अनेकों को प्रशंसक एवं अनुयाई बनाती हैं। यह चुंबकत्व के चमत्कार हैं। साधक का चुंबकत्व दैवीशक्तियों को अदृश्य रूप में आमंत्रित करता है और अनुग्रह बरसाने के लिए सहजता से सहमत करता है।

सिद्धियों की एक धारा ऊपर से बाहर से बरसती हैं और दूसरी नीचे भीतर से उभरती है। दैवी अनुग्रह से अनेकों लाभान्वित होते हैं। ठीक उसी प्रकार आत्मोत्कर्ष की प्रक्रिया द्वारा प्रस्तुत क्षमताओं का जागरण होता है तो उनके साथ ही वे विभूतियाँ प्रकट होती हैं जिनसे सामान्य जन वंचित ही नहीं, अपरिचित भी बने रहते हैं। मनुष्य के भीतर बहुत कुछ है। इतना कुछ जिसे स्रष्टा की सामर्थ्य के समतुल्य भी कहा जा सकता है। वृक्ष का विशालकाय ढाँचा छोटे से बीज में सुनिश्चित रूप से विद्यमान रहता है। सौरमंडल की समस्त प्रक्रिया सूक्ष्मरूप में नन्हें से परमाणु में यथावत् गतिशील रहती है। जड़ें नीचे से रस खींचती और पेड़ के कलेवर को हरा-भरा, पुष्पित, फलित बनाने के सारे सरंजाम जुटाती हैं। यद्यपि वे आँखों से दीखती नहीं, जमीन में दबी रहती हैं तो भी जानकारों को पता रहता है कि पेड़ तो मात्र कलेवर हैं, उसकी शोभा-समर्थता का स्रोत तो अदृश्य जड़ों में ही पूर्णतया संनिहित है। जीव का छोटा अंतराल लगभग उतना ही समर्थ है, जितना ब्रह्म का विराट-विस्तार। व्यक्ति भीतर से ही उगते-उठते हैं। बाहर तो उस अंतरंग प्रगति का प्रमाण-परिचय भर मिलता है।

जीव की प्रसुप्त शक्तियाँ भीतर से जगती-उभरती है। उनके उफनने पर उसी तरह की प्रवाह-धारा बहने लगती है जैसे कि यमुना, नर्मदा, चंबल, आदि कुंडों में से निकलकर भूतल पर प्रवाहित होती हैं। ब्रह्म की दिव्यशक्तियाँ साधक पर अंतरिक्ष से घटाओं की तरह बरसती हैं। निर्झर भी ऊपर से नीचे गिरते और भूमि पर गतिशील होते देखे जाते हैं। यह दोनों ही सौभाग्य हर किसी के लिए सहज-सुलभ है। पात्रता का परिचय देकर इस संसार के विभिन्न बाजारों से कुछ भी, कितनी ही मात्रा में खरीदा जा सकता हैं। मंडी में पैसे की तूती बोलती है। धनवान इच्छानुसार किसी भी स्तर के सुविधा-साधन कितनी ही मात्रा में खरीद सकते हैं। इसी प्रकार बलिष्ठता, बुद्धिमता, प्रतिभा आदि सामर्थ्यों के भी अपने-अपने क्षेत्र हैं और उनमें उपलब्धियाँ प्राप्त करने वाले अपनी योग्यता एवं तत्परता के अनुरूप जो चाहें सो, जितना चाहें सो खरीद सकते हैं। जिनकी जेब खाली है और जो अशक्त-अकर्मण्य हैं, उन्हें बड़े मनोरथ करने में भी निराशा का कष्ट सहना पड़ता है। मिलना तो उन्हें है ही क्या? प्रार्थना,याचना करते रहने पर भी उनके पल्ले कुछ नही पड़ता हैं। समर्थता ही वह पूँजी है, जिसे विभिन्न उपलब्धियों को खरीद सकने वाला पात्रता कह सकते हैं। इस बहुमुखी पात्रता का उपार्जन पुरुषार्थ ही साधना है।

साधना से सिद्धि का सिद्धांत सुनिश्चित है। भौतिक क्षेत्र में अपने प्रसंग में साधनारत पुरुषार्थी अभीष्ट मनोरथ पूरे करते देखे जाते हैं। आत्मोत्कर्ष भी चेतनात्मक विभूतियाँ उपार्जन करने की ही एक विशिष्ट प्रक्रिया हैं। उसमें सफलता प्राप्त करने का सिद्धान्त भी वहीं है जो भौतिक सफलताओं पर लागू होता हैं। साधक जीवन देवता की साधना करते हैं। उसके अंतरंग और बहिरंग दोनों पक्ष को समुन्नत बनाते हैं। सामान्य स्थिति में यहाँ सब कुछ अनगढ़ रहता हैं। उत्कृष्टता का दृष्टिकोण एवं पुरुषार्थ उसे सुंदर और सुव्यवस्थित बनाता है। झाड़ियों के स्थान पर उद्यान उगाना,वन्य पशुओं को पालतू बनाना और अनगढ़ को सुगढ़ में परिवर्तित करना संस्कृति है। इसी का चमत्कार इस दृश्य जगत में सर्वत्र बिखरा पड़ा है। साहित्य ने चिंतन को दिशा दी है। सृजन ने सुविधा-साधन खड़े किए हैं। अपने आपे को सद्गुणों की संपदा से लदा हुआ कल्पवृक्ष बना लेना— यही साधना का उद्देश्य है।

साधना से सिद्धि का सिद्धांत शाश्वत सत्य की तरह स्पष्ट है। न उसमें संदेह की गुंजाइश है, न विवाद की। अड़चन साधना का स्वरूप और उद्देश्य समझने भर की है। यदि उसे पात्रता का,समर्थता का और व्यक्तित्व का परिष्कार माना जाए, उसी दृष्टि से उस महाप्रयास में निरत हुआ जाए तो ऐतिहासिक एवं विद्यमान अध्यात्मवादियों की तरह हर कोई अपने स्तर को क्रमशः अधिकाधिक ऊँचा उठा सकता है। इतना ऊँचा जिसकी गरिमा को हिमालय से कम नहीं, वरन अधिक ही उत्तुंग, समुन्नत एवं समृद्ध कहा जा सके। साधना-क्षेत्र में निराश उन्हें रहना पड़ता है जो आत्मपरिष्कार के लिए कुछ नहीं करते, वरन देवताओं को फुसलाने वाले सस्ते तरीके ढूँढ़ने और उतने भर से ही लंबी-चौड़ी आशाएँ लगाए रहते हैं।


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