मुस्कान—सुख की खान

December 1979

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अमेरिका के कैलीफोर्निया राज्य में एक स्त्री थी, जो बहुत दिनों तक खिन्न और चिंतित रहने के कारण नींद न आने के रोग से ग्रस्त थी। जीवन उसके लिए भारस्वरूप हो गया था। किसी ने उसे दिन में कम से कम तीन बार खिल-खिलाकर हँसने की सलाह दी। तद्नुसार उस ने अकारण भी दिन में कई बार हँसना शुरू किया। परिणाम यह हुआ कि केवल इसी उपाय से न केवल उसे ठीक से नींद आने लगी अपितु उसके स्वास्थ्य में वांछित सुधार भी हो गया।

प्रसन्नता प्रकृति की दी हुई बिना मोल का सबसे महत्त्वपूर्ण पौष्टिक है। इससे शारीरिक बल और मानसिक उत्साह में आशातीत अभिवृद्धि होती है। मन पर जमी विषाद की धूल झड़ जाती है। मन प्रसन्नता से भर जाता है। प्रसन्न और स्वस्थ मन ही स्वस्थ और सबल शरीर का जनक होता है।

हमारे ऋषि इस तथ्य से सुपरिचित थे उनने सर्वत्र इसका उल्लेख करके अपनी बहुज्ञता का परिचय दिया है। प्रसन्न रहने की प्रेरणा देती हुई श्रुति कहती है—

विश्वाहा सुमना दीदि हीह। अथर्ववेद ७।७४।४

हे मानव! तू इस संसार में प्रसन्नचित्त होकर चमक, स्वयं प्रकाशित हो और अन्यों को प्रकाशित कर।

प्रसन्नता का अभाव मनःक्षेत्र में नीरसता का सृजन करके व्यक्ति को निराश और अकर्मण्य बना देता है। इसलिए अप्रसन्नता का निषेध करते हुए अथर्ववेद कहता है—

‘मात्र तिष्ठःपराङ्मनाः। अथर्ववेद ८।१।९

इस संसार में गिरा मन लेकर मत रह।

सर्वदा पुष्प की भाँति रहना, मुस्कराना, ही जीवन का आनंद है। प्रगल्भ मनुष्य की कामना वही रहनी चाहिए।

विश्वदानीं सुमनसः स्याम। -ऋग्वेद ६।५२।५

हम प्रत्येक परिस्थिति में पुष्प की भाँति सदा प्रसन्न रहें—खिले रहें।

जायाः पुत्राः सुमनसो भवन्तु।’ अथर्ववेद ३।४।३

‘स्त्रियाँ तथा पुत्र सभी उत्तम, प्रसन्न मन वाले हों।

प्रजां कृण्वाथामिह मोदमानौ।’ अथर्ववेद १४।२।३९

‘हे स्त्री-पुरुषों! इस गृहस्थाश्रम में परस्पर प्रसन्न रहते हुए आनंद-विनोद करते हुए रहो।

‘मुस्कान—सुख की खान’ का सिद्धांत जो भी ठीक तरह समझते हैं और दैनिक जीवन में इसका उपयोग करते हैं, वे शरीर और मन दोनों दृष्टियों से स्वस्थ और प्रसन्न रहते है।

उन्मुक्त हास्य हँसने वाले को तो लाभ होता है, सुनने वाले भी उस उल्लास का लाभ उठाते हैं। डाॅ. सैडर्सन का मत है—’प्रसन्न रहने से शारीरिक बल में स्थायी वृद्धि होती है। आँखों में चमक, चेहरे पर कांति और मन में स्फूर्ति का संचार होता है। रोगप्रतिरोधक शक्ति भी बढ़ती है।”

भारतीय तत्त्ववेत्ता प्रसन्न रहने की कला से परिचित थे। अभावग्रस्त परिस्थितियों के साथ अजस्र प्रसन्नता की उन्होंने संगति बिठाई। फलतः स्वस्थ शरीर, दीर्घायु, आनंद एवं महानता से भरा-पूरा जीवन जी सके। उनकी अभिव्यक्ति कितनी मार्मिक है।

प्राञ्चो अगाम नृतये हसाय अघीय आयुः प्रतरं दधानाः।’ (ऋग्वेद ६०।१८।३)

दीर्घतम और अत्युत्कृष्ट जीवन को धारण करते हुए हम हास, उल्लास एवं आनंद भरे उत्तम मार्ग पर आगे ही बढ़ें।

*समाप्त*






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