इष्टदेव का वरण, निर्धारण

December 1979

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भौतिक प्रगति के लिए भौतिक पुरुषार्थ करने पड़ते हैं और आत्मिक प्रगति के लिए चेतना का स्तर उठाने और प्रखरता को आगे बढ़ाने की आवश्यकता पड़ती है। भौतिक जीवन को गतिशील रखने के लिए प्राणिमात्र को प्रकृति-प्रेरणा का अनुसरण अनिवार्य रूप से करना पड़ता है। पेट में भूख लगती है और आहार-उपार्जन करने के लिए दौड़-धूप करना आवश्यक हो जाता है। शरीर में समर्थता बढ़ने पर कामुकता की तरंगें उठती हैं और साथी ढूँढ़ने, परिवार बसाने का मानसिक ताना-बाना बुना जाने लगता है। प्राणि-जगत का अस्तित्व और पराक्रम, इन्हीं पेट-प्रजनन के दो प्रगति-चक्रों के सहारे सरलतापूर्वक लुढ़कता रहता है। आत्मिक प्रगति का प्रसंग दूसरा है। चौरासी लाख योनियों के संग्रहित स्वभाव-संस्कार मनुष्य जीवन के उपयुक्त नहीं रहते, ओछे पड़ जाते हैं। बच्चे के कपड़े बड़ों के शरीर में कहाँ फिट होते हैं? मानव जीवन की सार्थकता के लिए जिन सद्भावनाओं से अंतःकरण को और सत्प्रवृत्तियों से शरीर को सुसज्जित करना पड़ता है, वह पूर्व अभ्यास एवं प्रभावी प्रचलन होने के कारण कठिन पड़ता है। यह सहज-सुलभ नहीं, वरन प्रयत्नसाध्य है। नीचे गिराने में पृथ्वी की आकर्षणशक्ति का क्रम ही निरंतर सहायता करता रहता है, पर ऊँचा उठाने के लिए विशेष साधन जुटाने होते हैं। आंतरिक अभ्युत्थान के इसी पराक्रम को साधना कहते हैं।

इस तथ्य को हजार बार समझा और लाख बार समझाया जाना चाहिए कि जिस साधना से सिद्धि मिलने का माहात्म्य बताया जाता है, वह जीवन देवता की अभ्यर्थना ही है। परब्रह्म की प्रसन्नता के लिए उसकी मर्यादाओं का पालन करने भर से काम चल जाता है, किंतु अंतरात्मा में विद्यमान दिव्य ज्योति को प्रखर बनाने के लिए विशेष रूप से पुरुषार्थ करने होते हैं और वही साधना कहलाती है।

साधना-मार्ग पर चलने के लिए प्रथम चरण ‘इष्टनिर्धारण’ का उठाना पड़ता है। प्रगति की आंतरिक महत्त्वाकांक्षा स्वाभाविक है, पर उसका स्वरूप भी तो निश्चित होना चाहिए। उमंगे असीम हैं और उनकी दिशाधारा भी अनेकों। पानी से उठने वाली लहरों की तरह महत्त्वाकांक्षाओं की कोई सीमा नहीं। एक के बाद दूसरी लहर उठती है और हवा के झोंकों के साथ अपनी दिशा बदलती है। प्रवाह की दिशाधारा न हो तो पराक्रम अस्त-व्यस्त रहेगा। किसी लक्ष्य तक पहुँच सकना संभव ही नहीं हो सकेगा। दिशाविहीन भगदड़ से मात्र थकान और निराशा ही हाथ लगती है। कस्तूरी के हिरन को अभीष्ट स्थान का पता नहीं होता है। फलतः वह भटकता, थकता और खिन्न रहता देखा जाता है। मानवी अंतरात्मा की भूख प्रगति की दिशा में अग्रसर होने की है। महत्त्वाकांक्षाओं के उभार इसी का परिचय देते हैं। आत्मिक प्रगति का कोई निश्चित लक्ष्य एवं स्वरूप सामने न रहने से मनुष्य जीवन की गाड़ी कायिक लिप्साओं की ओर ही लुढ़कने लगती है और वासना, तृष्णा एवं अहंता की पूर्ति जीवनोद्देश्य बनकर रह जाती है। इस स्तर की सफलताएँ काया को भले ही कुछ सुख-सुविधाएँ प्रदान कर सकें, परंतु अंतःकरण को उच्चस्तरीय प्रगति में इससे तनिक भी सहायता नहीं मिलती। कई बार तो अनियंत्रित भौतिक महत्त्वाकांक्षाएँ आतुर होकर कुकर्म करके भी वैभव उपार्जन में जुट पड़ती हैं और उलटे अधःपतन एवं विक्षोभ का कारण बनती हैं।

इन समस्त उलझनों का समाधान एक ही है—’इष्टनिर्धारण।’ इष्ट अर्थात लक्ष्य। साधक का कोई इष्टदेव होता है। साधना का विधि-विधान उसी के अनुरूप चलता है। यों उपास्य केवल एक ही है—’दिव्य जीवन’, किंतु उसके लिए पुरुषार्थ करने की मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि उपासनात्मक उपचारों के सहारे ही बनती है। दिव्य जीवन की कल्पना करते रहने भर से तो कोई काम नहीं बनता, पहलवान बनने के लिए व्यायाम की, विद्वान् बनने के लिए स्वाध्याय की, धनी बनने के लिए व्यवसाय की आवश्यकता पड़ती है।  इसी प्रकार आत्मिक प्रगति का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए उपासनात्मक उपचार अपनाने पड़ते है। दिव्य जीवन की चरम परिणिति ही पूर्णता है। इसी स्थिति का स्वर्गसिद्धि एवं मुक्ति की प्राप्ति कहते है। आत्मसाक्षात्कार एवं ईश्वरदर्शन भी वही है। इस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए जो पुरुषार्थ करना पड़ता है, उसे साधना-विधान के रूप में अपनाना होता है। साधना में शिक्षा और प्रेरणा का समावेश होता है, फलतः उसकी प्रतिक्रिया जीवनोत्कर्ष के रूप में प्रत्यक्ष परिलक्षित होने लगती है।

कहा जा चुका है कि साधना-क्षेत्र का प्रथम चरण ‘इष्टनिर्धारण’ है। प्रगति के किस बिंदु तक पहुँचना है, इसका सुदृढ़ निश्चय होना आवश्यक है, भव्य भवन बनाने वाले सर्वप्रथम अभीष्ट निर्माण के नक्शे का मॉडल बनाते हैं। आत्मिक प्रगति के लिए किस मार्ग से जाता है? किस स्तर का साधन जुटाना है, उसके लिए कितने ही प्रकार के निर्धारण अपनाए जाते रहे हैं। इन्हें इष्टदेव या देव कहते हैं। रामभक्त बनने के लिए हनुमान, मर्यादा-पुरुषोत्तम बनने के लिए राम, पूर्ण पुरुष बनने के लिए कृष्ण, ब्रह्मतेजस् प्राप्त करने के लिए सविता को इष्ट बनाने की परंपरा है। इसी प्रकार ओर भी कितने ही हल्के-भारी इष्टदेव हैं, जिन्हें स्थिति एवं रुचि के अनुरूप अपनाया जाता है। इन निर्धारण से मन को एक निश्चित दिशा में आगे बढ़ना और तदनुरूप प्रयास करने हेतु साधन जुटाने का मार्ग मिल जाता है। उस प्रयत्न से न केवल प्रयास को दिशा मिलती है, वरन उसी स्तर के अंतःक्षेत्र की प्रसुप्त शक्तियाँ भी जगने लगती है। साथ ही परब्रह्म के शक्ति भंडार में से उसी स्तर की अनुग्रह वर्षा भी अनायास ही आरंभ हो जाती है। आकांक्षाएँ आवश्यकता बनती है। आवश्यकता पुरुषार्थ की प्रेरणा जगाती है। प्रेरणा मरे पराक्रम में प्रचण्ड चुंबकत्व होता है। वह तीन दिशा में काम करता है। प्रथम— व्यावहारिक गतिविधियों को अभीष्ट की प्राप्ति के अनुरूप बनाना है। द्वितीय—प्रसुप्त क्षमताओं को जगाकर प्रगति-पथ पर अग्रसर होने के लिए अदृश्य आधार खड़े करता है। तृतीय—दिव्य लोक से दैवी अनुदानों के बरसने का विशिष्ट लाभ मिलता है। तीनों ही आधार मिलकर त्रिवेणी संगम बनते है।

इष्टनिर्धारण प्रगतिक्रम का सुनिश्चित आधार-पथ निश्चित करता है। ईश्वरीय सत्ता का मनुष्य में अवतरण उत्कृष्टता के रूप में होता है। चिंतन और चरित्र में उच्चस्तरीय उमंगें उठने लगती हैं तथा उसी स्तर की गतिविधियाँ चल पड़ती हैं। उत्कृष्टता की उपासना ही ईश्वर की उपासना है। यही उपास्य है, लक्ष्य भी इसी को बनाना पड़ता है। इष्टदेव का निर्धारण किस रूप में किया जाए, आज इस संदर्भ में अनेकों विकल्पों के जंजाल बने खड़े हैं। प्राचीनकाल में ऐसा न था। तत्वज्ञानी एक निश्चय पर पहुँचे थे और उन्होंने उसी निष्कर्ष को उपयोगी बताकर समस्त साधकों को उसे अपनाने का परामर्श दिया था। भारतीय संस्कृति, जिसे वस्तुतः विश्व संस्कृति कहा जाना चाहिए—साधना-संदर्भ में एक ही निश्चय पर पहुँची है कि आत्मिक-प्रगति की साधना के लिए इष्टरूप में गायत्री का ही वरण होना चाहिए।

यों गायत्री का स्थूलरूप चौबीस अक्षरों के एक शब्दगुच्छक के रूप में है और उसकी प्रतिमा हंसारूढ़ देवी के रूप में बनती है। यह नाम और रूप का निर्धारण है। उसके बिना मस्तिष्कीय-संरचना किसी तथ्य को पकड़ने, समझने में ही समर्थ नहीं होती। इसलिए चिंतन को किसी दिशा में आगे बढ़ाने के लिए नाम, रूप का अवलंबन अनिवार्य होता है। उपासना-उपक्रम इस निर्धारण के बिना बन ही नहीं पाता। समस्त देव प्रतिमाओं का निर्धारण इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए किया गया। श्रद्धा का आरोपण और संवर्द्धन इस प्रतिमा-प्रतिष्ठापन के सहारे ही सहज-सुलभ रीति से अग्रगामी बनता है। वस्तुतः समस्त देवालयों का अस्तित्व मनुष्य की श्रद्धा-समुच्चय पर ही आधारित होता है। एक के लिए वह शक्ति-स्त्रोत बनता है। दूसरे के लिए उपहासास्पद बनकर रहता है। अनेकानेक आकृतियों के देवताओं का गठन यही सिद्ध करता है कि मानवी श्रद्धा अपनी अभिरुचि के अनुरूप किसी केन्द्रबिंदु का, आस्था का समीकरण करती है, उसे सशक्त बनाती है और उससे असाधारण लाभ उठाती है। एकलव्य के द्रोणाचार्य, मीरा के गिरधर गोपाल, रामकृष्ण परमहंस की काली, इसी प्रकार के भाव निर्धारण कहे जा सकते हैं। श्रद्धा की शक्ति अपार है। उसके द्वारा परिपोषित तत्त्व देवताओं की तरह ही अनंत सामर्थ्यसंपन्न,अजस्र वरदायिनी एवं अद्भुत चमत्कारी बनकर प्रकट होते हैं। गायत्री महाशक्ति के नामरूप का निर्धारण भी इसी स्तर का समझा जा सकता है इसके बिना साधक का भावनात्मक समाधान हो ही नहीं सकता। ऋतंभरा प्रज्ञा को गायत्री माता के रूप में इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए प्रतिष्ठित किया गया है।

गायत्री को इष्ट मानने की अनादि परंपरा है। सृष्टि के आदि में ब्रह्मा जी ने कमलपुष्प पर बैठकर आकाशवाणी द्वारा निर्देशित गायत्री उपासना की थी और सृष्टिसृजन की सामर्थ्य प्राप्त की थी। इसका उल्लेख पुराणों में मिलता है। त्रिदेवों की उपासना गायत्री रही है। देवगुरु बृहस्पति ने दक्षिणमार्गी और दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने वाममार्गी-साधनाएँ गायत्री के ही आत्मिक और भौतिक पक्षों को लेकर प्रचलित की थी। आदिमानव देवों से सप्तऋषियों का नाम आता है। वे सभी गायत्री की सप्त व्याहृतियों के प्रतीक माने जाते हैं। राम-कृष्ण आदि अवतारों की इष्ट गायत्री रही है। इसी महामंत्र की व्याख्या में चारों वेद तथा अन्यान्य धर्मशास्त्र रचे गए हैं। दत्तात्रेय के चौबीस गुरु गायत्री के चौबीस अक्षर ही हैं। चौबीस योग और चौबीस तप प्रसिद्ध हैं। यह सभी गायत्री के तत्त्वज्ञान और साधना-विधान का विस्तार है। गायत्री गुरुमंत्र है। दीक्षा में उसी को माध्यम बनाया जाता है। हिंदू धर्म के दो प्रतीक है—शिखा और सूत्र। दोनों ही गायत्री के प्रतीक है। गायत्री का ज्ञानपक्ष मस्तिष्क पर शिखा के रूप में और कर्मपक्ष कंधे पर यज्ञोपवीत के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता हैं परंपरागत उपासनाविधि संध्या हे। संध्या में गायत्री का समावेश अनिवार्य है। इस तथ्यों का पर्यवेक्षण करने से स्पष्ट हो जाता है कि गायत्री ही अनादि  धर्मपरंपरा एवं अध्यात्म-प्रक्रिया का आधारभूत तथ्य है। उपासना में उसी का उपयोग सर्वोत्तम है।

तत्त्व दर्शन की दृष्टि से गायत्री ऋतंभरा प्रज्ञा है। ऋतंभरा अर्थात विवेकसंगत- श्रद्धा। प्रज्ञा अर्थात् श्रेय-साधना दूरदर्शिता। समग्र विवेकशीलता को गायत्री कह सकते है। इसी बीजमंत्र का विशाल वृक्ष ब्रह्मविद्या है। अध्यात्म का यह दार्शनिक पक्ष है। साधना-प्रयोजन में इसी के विभिन्न उपचार योगाभ्यासों, तप-साधना एवं धर्मानुष्ठानों के रूप में प्रचलित हैं। इष्ट का, लक्ष्य का, उपास्य का निर्धारण दिव्यदर्शियों ने गायत्री के रूप में गहन अध्यवसाय और अनवरत अनुभव, अभ्यास के आधार पर किया है। वह प्राचीनकाल की तरह आज भी अपनी उपयोगिता यथावत् अक्षुण्ण रखे हुए है। विज्ञ-साधकों के लिए उसी का अवलंबन ग्रहण करना हर दृष्टि से उपयोगी है।

गायत्री—सार्वभौम और सार्वजनीन है। उसे किसी देश, धर्म, जाति, संप्रदाय तक सीमित नहीं किया जा सकता। भारत में उत्पन्न होने के कारण उसका नाम भारतीय संस्कृति पड़ा है, पर उसकी कोई प्रक्रिया उन परिधि में रहने वाले लोगों तक सीमित नहीं रखी जा सकती। मालवा वालों को मालवीय, कन्नौज वालों को कान्यकुब्ज, मिथिला वालों को मैथिल, मथुरा वालों को माथुर कहा तो जाता है, पर वे उतने ही क्षेत्र में रहने के लिए बाध्य नहीं हैं। काश्मीरी सेब, नागपुरी संतरे, बंबइया केला—उसी क्षेत्र में बिकें और खाए जाएँ, ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है। गायत्री-भारतीय-संस्कृति की आत्मा कही जाती है, पर इसका तात्पर्य यह नहीं है। कि इसी देश के निवासी या इसी धर्म के अनुयायी उसका उपयोग कर सकते है। भारतीय संस्कृति वस्तुतः दैवी संस्कृति है, उसे ‘मानवी’ कह सकते है। गायत्री की उपयोगिता सबके लिए समान है। यह देश, धर्म, जाति, भाषा संप्रदाय आदि के नाम का अपने-पराए की विभाजन रेखा नहीं बननी चाहिए।

ऋतंभरा प्रज्ञा को इष्ट माना जाए। जहाँ मानव जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि है। आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान इसी को कहा गया है। विवेकशीलता, दूरदर्शिता वही है। न्याय और औचित्य इसी के प्रतिफल हैं। सत्य को नारायण कहा गया है, उस सत्य का अन्वेषण कर सकना और पूर्णसत्य तक पहुँचने का साहसिक यात्रा-पथ पूर्ण करना—इस तथ्यान्वेषी बुद्धि के सहारे संभव होता है। वह ब्रह्मविद्या इसीलिए है, कि ब्रह्म को जीव के लिए उपलब्ध करा सकना उसी के बस की बात है।

परिस्थितियों का पर्यवेक्षण करने वाले जानते हैं कि वे मात्र मनःस्थिति की ही परिणिति होती है। बुरी परिस्थितियों के लिए बुरी मनःस्थिति हो उत्तरदाई हैं। भीतर का परिवर्तन बाहरी परिकर में आश्चर्यजनक हेर-फेर उत्पन्न करता है। दरिद्रता, विपन्नता, विग्रह, विपत्ति एवं विभीषिकाएँ आंतरिक निकृष्टता की ही प्रतिक्रियाएँ हैं। उत्कृष्ट चिंतन के कारण बन पड़ने वाले आदर्श क्रियाकलाप ही मनुष्य को आत्मसंतोष, जनसम्मान, विपुल सहयोग एवं दैवी अनुग्रह की अनेकानेक संपदाएँ तथा विभूतियाँ प्रस्तुत करते हैं। प्राचीनकाल की सतयुगी परिस्थितियाँ और देवोपम मनःस्थिति की सुखद गाथा गाने वाले जानते हैं कि अतीत को गरिमा का एकमात्र आधार उस समय अपनाया गया, उत्कृष्ट दृष्टिकोण एवं आदर्श चरित्र ही था। उस समस्त वैभव को ऋतंभरा प्रज्ञा की देन कह सकते हैं। यह प्रज्ञा की देवी का अजस्र अनुदान ही था, जिसे पाकर भारतभूमि, समस्त विश्व-वसुधा को चिरकाल तक कृतकृत्य रहने का अवसर मिला।

अपने युग की समस्याओं का, समाधान और भविष्य का उज्ज्वल निर्धारण किस प्रकार संभव हो, उसके लिए ज्ञानयज्ञ की, विचार-क्रांति की आवश्यकता अनिवार्य रूप से अनुभव की जा रही है। यह दूरदर्शी, विवेकशीलता अध्यात्म की भाषा में ऋतंभरा प्रज्ञा या गायत्री ही है। युगसृजन के लिए इसी को आधारभूत साधन मानकर चलना होगा। जनमानस का परिष्कार ही नवयुग का, सुखद संभावनाओं का आधार है। उसे वैयक्तिक एवं सामूहिक प्रगति का सुख-शांति के लिए सामयिक एवं चिरंतन आवश्यकता मानकर चला जा सकता है।

श्रेयसाधकों की उपास्य गायत्री ही हो सकती है। यह इष्ट बनने योग्य है। इसी को लक्ष्य निर्धारित किया जाना चाहिए। आत्मोत्कर्ष की चरम परिणिति पूर्णता तक पहुँचने के लिए इसी राजमार्ग को अपनाया जाना चाहिए,जिस पर चलकर देव परंपरा के अनुयाई सफलता और शांति का, ऋद्धि और सिद्धि का रसास्वादन करते रहे हैं। प्रज्ञा को इष्ट मानकर चलने वाला उन सभी लाभों को प्राप्त करता है, जो गायत्री उपासना के महात्म्य वर्णन में आकर्षक एवं अलंकारिक ढंग से बताए गए हैं। “नहि ज्ञानेन सद्दश्यं पवित्रमिह विद्यते।” आत्मा वारे ज्ञातव्य श्रोतव्य निदिध्यासितव्यं” जैसे उद्बोधन वाक्यों में जिस आत्मज्ञान की गरिमा बताई गई है—जिसे प्राप्त करके भगवान बुद्ध की तरह अनेकानेक श्रेयसाधक धन्य बनते रहे हैं, वही महाप्रज्ञा—आद्या शक्ति गायत्री है। उसी को हमें लक्ष्य एवं इष्ट वरण करना चाहिए। उपासनात्मक उपक्रम को साधना-विधान की आधारशिला इसी पृष्ठभूमि पर रखी जानी चाहिए।

गायत्री का वाहन हंस है— राजहंस। विवेकवान-प्रज्ञावान। राजहंस नीर-क्षीर विवेक से युक्त, कृमि-कीटकों का भक्षण करने से विरत, मुक्ताओं पर निर्भर— यह चित्रण बताता है कि श्रेय-साधक की मनोभूमि कैसी होनी चाहिए। गायत्री जिस पर कृपा करें वह प्रज्ञावान होता है अर्थात प्रज्ञावान को गायत्री का अनुग्रह प्राप्त होता है। दोनों प्रतिपादनों का तात्पर्य एक ही है। गायत्री का इष्ट के रूप में वरण सर्वोत्तम चयन है। इतना निश्चय-निर्धारण करने पर आत्मिक प्रगति का उपक्रम सुनिश्चित गति से, द्रुतगति से अग्रगामी बनने लगता है। तब साधना से सिद्धि के सिद्धांत में कहीं संदेह की गुंजाइश नहीं रह जाती।



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