युग-चिंतन को उभारने के लिए मनीषा का आह्वान

December 1979

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ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान का कार्यक्षेत्र बहुत व्यापक है। उसमें मानवी चेतना को निकृष्ट दुष्प्रवृत्तियों से विरत करने और उत्कृष्टता की सत्प्रवृत्तियों के साथ जोड़ने वाले उन सभी प्रतिपादनों का समावेश है जो जीवन-प्रक्रिया के साथ जुड़े हुए किसी भी मर्मस्थल का स्पर्श करते हैं। आज भौतिक कारणों से मनुष्य के प्रभावित होने की मान्यता ही सर्वत्र छाई हुई है। इसलिए प्रायः सभी के प्रयत्न अधिक संपन्नता—अधिक अनुकूलता पाने के लिए गतिशील रहते हैं। ऐसे लोग नगण्य ही मिलेंगे जो वस्तुस्थिति को समझते हों। मनःस्थिति को प्रधानता देते हों और यह स्वीकार करते हों कि चिंतन अपने आप में एक प्रचंड-शक्तिसंपन्न तथ्य है। उसके प्रवाह दृष्टिकोण में अंतर होने पर व्यक्तित्व का समूचा ढाँचा बदल सकता है। दिशा बदलने से परिस्थितियों में अंतर आना, सुधार होना तनिक भी कठिन नहीं है। परिस्थितियों की अनुकूलता किसी के हाथ की बात नहीं, किंतु मनःस्थिति को कोई भी मोड़ सकता है और प्रचुर प्रसन्नता तथा सफलता तक पहुँचने के लिए एक अतिसरल पगडंडी हस्तगत कर सकता हैं।

परिस्थिति से मनःस्थिति के प्रभावित होने की मान्यता का नाम 'भौतिकवाद' है। मनःस्थिति के अनुरूप परिस्थितियों के ढलने-बदलने की मान्यता— ‘अध्यात्मवाद’। यों उपेक्षणीय दोनों में एक भी नहीं, फिर भी जिसकी प्रधानता समझी जाएगी, पुरुषार्थ उसी में नियोजित होगा। आज भौतिकवादी दर्शन ने मानवीसत्ता को पूरी तरह अपने शिकंजे में कस रखा है। फलतः मनःस्तर को ऊँचा उठाने की आवश्यकता भी नहीं समझी जाती।

करना यह होगा कि चिंतन की समर्थता और वरिष्ठता को उजागर करने वाले अध्यात्मवादी प्रतिपादनों को जनविवेक के सम्मुख नए सिरे से प्रस्तुत किया जाए। नए सिरे से इसलिए कि आधार बदल जाने से निर्धारण भी नए स्तर पर करने पड़ेंगे। बुद्धिवाद ने इन दिनों उत्साहवर्धक प्रगति की है। अब तो तथ्य- प्रमाण की साक्षी पग-पग माँगी जाने लगी है। श्रद्धा को एक प्रकार से अमान्य ही ठहरा दिया गया है। हर महत्त्वपूर्ण तथ्य के संदर्भ में यह अपेक्षा की जाती है कि उसकी पुष्टि विज्ञान के सहारे होनी चाहिए। यहाँ तक कि तर्क के आधार पर अपनी विशिष्टता सिद्ध करने वाला दर्शनशास्त्र भी अपने प्रतिपादनों को सही सिद्ध करने के लिए वैज्ञानिक पुष्टि का मुँह ताकता है।

स्थिति विचित्र है। अध्यात्मतत्त्व दर्शन का घोड़ा चिरकाल से श्रद्धा के सहारे मजे में चल रहा था। अब कोई कहीं मान्यता मिली भी तो उसे शास्त्र या संस्कृति के सहारे नहीं, बुद्धिवाद और विज्ञानवाद के पहियों का सहारा लेकर ही अपनी गाड़ी आगे चलानी पड़ेगी। यही है विवशता, जिसके कारण अध्यात्मतत्त्व दर्शन का प्रतिपादन नए सिरे से, नए आधार पर करना होगा। यह कार्य उतना ही कठिन है जितना कि भौतिकवादी मान्यताओं का नए सिरे से निर्धारण। यह दोनों काम एक साथ करने होंगे। इसके लिए समूचे चिंतन-क्षेत्र को मथना पड़ेगा।

लोक-चिंतन का नवनिर्धारण आज का समुद्र-मंथन है। यदि यह प्रक्रिया ठीक तरह संपन्न हो सकी तो दुहरा लाभ होगा। अहंकारी स्वार्थ-संकीर्णता का, तृष्णा और विलासिता का व्यामोह अपने युग का हलाहल है, जिसके कारण ऋषिभूमिका निभाने में पूर्णसमर्थ होते हुए भी मनुष्य पाशविक और पैशाचिक प्रवृत्तियों में तल्लीन हो रहा है। वारुणी वह है— जिसने दूरदर्शिता और उदारता को अनावश्यक ठहराने और कुसंस्कारों में मदमस्त रहने में ही प्रसन्नता मानी है। लोक-मानस में से सर्वप्रथम इन्हीं दोनों अनुपयुक्तताओं का निष्कासन करना है। यह बड़ा मोर्चा है। इसके समान ही वह उत्तरदायित्व है जो निकृष्टता हटने से खाली हुए स्थान को उत्कृष्टता के प्रबल प्रतिपादन से तत्काल भर सके। यह दुहरा काम दो मोर्चों पर एक साथ लड़ने क समान है।

‘विचार-क्रान्ति अभियान’ किसी सामाजिक कुरीति सांप्रदायिक प्रथा मान्यता जैसी छोटी परिधि तक सीमित नहीं है। ऐसा होता तो उस क्षेत्र को प्रभावित करने वाले थोड़े से सुधारकों से भी काम चल सकता था। पर बात गहरी भी, विस्तृत भी और साथ ही अतिमहत्वपूर्ण भी है। इससे भी बड़ी एवं विचित्र कठिनाई यह है कि उसे वीर बलिदानी भी नहीं कह सकते। इसके लिए ‘सद्भावसंपन्न मनीषा’ की आवश्यकता पड़ेगी। अकेली मनीषा तो सहज उपलब्ध है। उसे पैसा देकर कहीं भी खरीदा जा सकता है और उचित-अनुचित कुछ भी कराया जा सकता है। मिशन के लिए इसे प्रयुक्त करना तो गरिमा के प्रतिकूल है ही, प्राप्त करना तक कठिन है। खरीदी हुई मनीषा श्रद्धारहित होने पर अभीष्ट प्रयोजन में गहराई तक उतर भी न सकेगी। ऐसी लंगड़ी-लूली, कानी-कुबड़ी शोध किसी प्रकार किसी हद तक चल भी पड़ी तो वह निर्जीव होने के कारण वाँछित प्रयोजन सिद्ध करने में निरर्थक एवं असफल ही सिद्ध होगी।

चिंतन के दा पक्ष हैं—एक बुद्धि और दूसरा भाव। बुद्धि का क्षेत्र मस्तिष्क और भाव का हृदय माना गया है। हृदय का तात्पर्य रक्त फेंकने वाली थैली नहीं, वरन अतःचेतन का वह मर्मस्थल है जहाँ आस्थाओं और आकांक्षाओं के समन्वय से बना अंतःकरण प्रतिष्ठित है। व्यक्तित्व का उद्गम आधार नाभिक एवं ध्रुवकेंद्र यहीं है। सत्प्रवृत्तियों को अपनाने के लिए साहस प्रदान करने वाली सद्भावसंपन्न उमंगें यहीं से उठती हैं। बुद्धि का उपयोग तथ्यों को समझने तक सीमित है। स्वभावतः बुद्धि जिस निष्कर्ष पर पहुँचती है, वे सुख-सुविधाओं के पक्षधर ही होते हैं। उत्कृष्टता को अपनाने में निश्चय ही आकर्षणों पर नियंत्रण करना और उपभोग में संयम बरतना होता है। इस निर्णय पर पहुँचना बुद्धि का नहीं, भावना-संवेदनाओं की पृष्ठभूमि पर होगा। इस तत्त्व को अध्यात्म भाषा में ‘भक्ति अर्थात प्रकारांतर में ‘श्रद्धा’ भी उसी को कहते हैं। त्याग-बलिदान हेतु, तप-परमार्थ हेतु किसी को सहमत करना हो तो उसके लिए उसी भक्तिभावना का अवलंबन लेना होगा।

महामानवों, ऋषियों, मनीषियों में बुद्धि का अभाव तो नहीं होता पर मूलतः उनकी चेतना पर  उमंगभरी भावनाओं का ही आधिपत्य होता है। अल्पशिक्षितों और अभावग्रस्तों में से भी असंख्यों ने एक से एक बढ़-चढ़कर परमार्थ संपन्न किए हैं। इसका कारण उनकी वह आदर्शवादी अन्तःप्रेरणा ही थी जिसके भाव- प्रवाह में उनने संकटों की परवाह न करके त्याग-बलिदान के आश्चर्यजनक उदाहरण प्रस्तुत किए। नवयुग में भाव-संवेदना को उभारना, भक्तितत्त्व को तरंगित करना अतिमहत्वपूर्ण पक्ष है। इस महान प्रयोजन में धर्म और अध्यात्म की सांस्कृतिक परंपराओं का अनिवार्य रूप से आश्रय लेना पड़ेगा। उसकी उपेक्षा करके मात्र बौद्धिक कलाबाजियों पर आश्रित रहा गया तो लोग सब कुछ समझ जाने पर भी उत्कृष्टता अपनाने के लिए तत्पर न होंगे। भले ही उथले मन से उसका समर्थन करते रहें।

बुद्धिमान मनुष्य आमतौर से धूर्त होते हैं। तथाकथित बुद्धिजीवियों पर आज दृष्टिपात करते हैं तो लगता है कि इस विशिष्टता ने उन्हें चतुर, कुशल, प्रवीण तो बहुत बनाया, पर आदर्शों के निर्वाह में वे एक प्रकार से असमर्थ ही बने रहे। लेखक, कवि, वक्ता, वकील, नेता, कलाकार वर्ग के बुद्धिजीवी संख्या में थोड़े ही होते हैं, पर यदि उनकी प्रतिभा सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धन में लग सकी होती तो उसका प्रभाव-परिणाम निश्चिततः भविष्यनिर्धारण की दृष्टि से अत्यंत श्रेयस्कर रहा होता, पर स्थिति निराशाजनक हैं। सच तो यह है कि बुद्धिमत्ता ने समाज को जितना लाभ दिया है उससे कहीं अधिक हानि पहुँचाई है।

चर्चा बुद्धि की महत्त्व को घटाने की नहीं भाव-संवेदनाओं को उभारने की हो रही है। यह भक्तितत्त्व का पुनर्जीवन-पुनर्जागरण है। अमृत इसी को कहते हैं। मस्तिष्क में बुद्धि बढ़े, यह प्रयत्न दूसरे लोग कर रहे हैं। हमें चिंतन की उत्कृष्टता और अन्तःकरण की भावश्रद्धा के संवद्धन में लगना हैं। ब्रह्मवर्चस् का        शोधकृत्य इसी उत्पादन-परिवर्द्धन में केंद्रिभूत हो रहा है। समग्र मानवता के उत्कर्ष को ध्यान में रखते हुए इस प्रयत्नशीलता की एक स्वर से सराहना करनी पड़ेंगी।

ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान का कार्यक्षेत्र कितना बड़ा है, इसका अनुमान इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए लगाया जा सकता है कि चार सौ करोड़ मनुष्यों के विशाल समुदाय के अंतर्गत आने वाले सहस्त्रों वर्गों को सहस्त्रों प्रकार से प्रभावित करने वाली सहस्त्रों प्रवृत्तियों और परिस्थितियों पर प्रकाश डालना होगा। पशुप्रवृत्तियों की पक्षधर कुसंस्कारी मान्यताएँ एक दिन में नहीं बनी हैं। सतयुग के बाद निकृष्टता ने अपनी जड़ें जमाने के लिए अनेक तर्क, तथ्य, उदाहरण और प्रमाण प्रस्तुत किए हैं। तभी लोगों ने उन्हें लाभदायक माना और अपनाया है। यों कुड़े-कचरे के पर्वत को एक चिनगारी जला सकती है, पर अग्निकांड को हानिरहित एवं सुनियोजित ढंग से संपन्न करने के लिए सूझ-बूझ और व्यवस्था का उपयोग करना पड़ेगा। विचार-क्रांति-क्षेत्र इतना विस्तृत है कि उसकी परिधि में हर मान्यता, हर प्रथा, हर अभिरुचि एवं व्यक्तित्व को समझने एवं उपयोगी परिवर्तन लाने की अभीष्ट सामग्री संपादित करनी पड़ेगी।

यह समग्र विश्व क्रांति है। ‘समग्र’ इस अर्थ में कि वस्तुतः चिंतन ही सब कुछ है। चेतना का ‘चिंतन’ ही गुण-धर्म है। सामर्थ्य का स्रोत वही है। लोक-चिंतन को जिस अनुपात से परिष्कृत किया जा सकेगा, उसी मात्रा में समस्याओं और विपत्तियों का समाधान होता चलेगा। निश्चय ही यह बड़ा काम है। बड़े काम के लिए बड़े साधन चाहिए। इन साधनों में सर्वोपरि आवश्यकता ‘सद्भावसंपन्न मनीषा’ की है। शोधकार्य की सफलता उस उपलब्धि को समुचित मात्रा में मिल सकने पर निर्भर है।

ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान ने अपने आरंभिक चरण में चार प्रयोजन हाथ में लिए हैं— (1) मनः तत्त्व की सामर्थ्य और उसकी प्रयोगपद्धति।

(2) शरीर, मन और अंतःकरण को निरोग बनाने में समर्थ यज्ञ उपचार-प्रक्रिया।

(3) चेतना और प्रकृति के अजस्र भंडार से उपयोगी लाभसंपादन।

(4) अध्यात्म और धर्म के तत्त्व दर्शन का सार्वभौम रूप।

इन चारों को मिला देने से नवयुग के तत्त्व दर्शन की एक मोटी रूप-रेखा बनती है जिसे ढाँचा या खाका कह सकते हैं। अभी इतने ही साधन संभव हैं इसलिए जितनी सौर उतने पाँव पसारे जा रहें हैं। इनमें से प्रत्येक के कई भेद-उपभेद हैं और इनमें से हर प्रभेद इतना महत्त्वपूर्ण है कि उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। समर्थ विचार-क्रांति का तात्पर्य ही यह है कि किसी भी छेद से नाव में पानी न घुसने पाए। प्रतिगामिता और कुसंस्कारिता के लिए कोई भी मोर्चा ऐसा खाली न छोड़ा जाए जिसमें होकर शत्रु को भीतर घुस पड़ने का अवसर मिल जाए।

ब्रह्मवर्चस् शोध-प्रक्रिया के पहले चरण की मोटी रूप-रेखा काबू में आते ही अगले चरण उठेंगे। और एक-एक करके उन सभी प्रसंगों का स्पर्श करेंगे जिनकी ओर अभी मात्र संकेत किया गया है। शोध का आरंभ हो रहा है। अंत होने में संभवतः एक पूरी पीढ़ी खा जाएगी। इनके लिए कितने मनीषियों की आवश्यकता पड़ेगी, कहना कठिन है। साधन अधिक होने से काम जल्दी होता है। यों मंथरगति से चलने वाली चींटी भी कभी न कभी तो पर्वत शिखर पर जा पहुँचने में सफल हो सकती है।

इन दिनों शोध संस्थान में कानून, चिकित्सा, दर्शन, साहित्य एवं विज्ञान के पोस्ट ग्रेजुएट एवं न्यूनाधिक इसी योग्यता के प्रायः दो दर्जन कार्यकर्त्ता क्रियासंलग्न है। यह जनशक्ति बहुत स्वल्प है। इससे कई गुनी विस्तृत और गहरी मनीषा की अभी और भी आवश्यकता है। ऐसी स्वयंसेवी मनीषा अपेक्षित है, जिसके लिए पारिश्रमिक चुकाने की चिंता न करनी पड़े। इतने बड़े पुण्य-प्रयोजनों में प्रतिभाओं को पारिश्रमिक देकर उपलब्ध करना संभव भी नहीं हो सकता। जो सहयोग करने के लिए अपने को योग्य समझते हों; उन्हें यह भी देखना पड़ेगा कि उन्हें बदले का पारिश्रमिक तो नहीं माँगना पड़ेगा। आमतौर से स्वयं अपना निर्वाह व्यय उठाकर सहयोग करने के लिए उपयुक्त परिस्थिति वालों का ही आह्वान किया गया है।

इन पूर्ण समयदानियों के अतिरिक्त ऐसे लोगों की भी बड़ी संख्या में आवश्यकता पड़ेगी जो ब्रह्मवर्चस् में आकर न्यूनतम दो महीने ठहर सकते हैं, अथवा अपने घर पर रहकर ही न्यूनतम दो घंटा प्रतिदिन इस पुण्य-प्रयोजन के लिए लगाते रह सकते हैं। समीपवर्ती बड़े पुस्तकालयों से निर्धारित विषय पर पुस्तकें प्राप्त करने एवं संदर्भ ढूँढ़ते रहने का कार्य अपने घरों पर भी चलाया जा सकता है।

रामकृष्ण परमहंस मिशन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, साधु संप्रदाय आदि में भर्ती होने वाले कितने ही मनस्वी आत्मदान करते और समर्पित जीवन जीते हैं। इसी स्तर के शोधकर्ता ब्रह्मवर्चस् के लिए भी अपेक्षित हैं। शरीर निर्वाह की व्यवस्था तो भगवान सभी की करते हैं। ऐसा ब्राह्मणोचित प्रबंध तो समर्पित शोधकर्ताओं के लिए ब्रह्मवर्चस् में भी हो सकता है।

महाकाल ने विभीषिकाओं से जूझने और नवसृजन की उमंग उभारने का निश्चय किया है। उस प्रवाह को युगांतरीय चेतना के रूप में तूफानी गति से उभरता देखा जा सकता है। जागृत आत्माओं पर उसका प्रवाह सर्वप्रथम पड़ता है। इन दिनों जागृत आत्माओं के अनेकानेक स्तर अपने लिए उपयुक्त काम प्राप्त करने और उसमें प्राणप्रण से जुट पड़ने में अपनी विशिष्टता का परिचय दे रहे हैं। अब बारी ‘मनीषा’ की है। वह जहाँ कहीं भी जीवंत हो, भावना-चिंतन एवं भाव संस्थान के नवनिर्माण के लिए आगे आए। इस स्तर के अनुरूप रिटायर्ड व्यक्तियों की, आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी, गृहस्थभार से बचे हुए अविवाहितों की कमी नहीं। उनकी मनीषा को विशेष रूप से युगचेतना ने पुकारा है। ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान ने ऐसे सभी लोगों का सहयोग आमंत्रित किया हैं जिनमें मनीषा अस्तित्व ही नहीं, वरन ग्रुप सृजन के लिए आदर्शवादी उमंगें भी उमंगती हों।



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