मानव जीवन का अवसर (Kahani)

December 1979

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आरण्यकवासी विद्वान हरिमित्र पशु-पक्षियों से भी उनकी भाषा में वार्त्तालाप करने में निष्णात थे। एक दिन वे रास्ते से जा रहें थे तो देखा, जिस राजा भुवनेश के राज्य में वे पहले रहते थे, उसका शव एक उलूक नोच-नोचकर खा रहा है।

हरिमित्र ने उलूक से पूछा कि, "यह शव तो भुवनेश नृप का है। यह यहाँ क्यों है? क्या इसका दाह संस्कार नहीं हुआ? तुम इसे खा क्यों रहें हो?"

उलूक ने विनयपूर्वक कहा—”महाराज! यह भुवनेश का ही शव है। मैं स्वयं भुवनेश हूँ। आपको भिन्न धर्मपद्धति का अनुयाई देखकर मैंने ही आपके राज्य से निष्कासन की आज्ञा दी थी। मैं इसे धर्म-कर्त्तव्य मानता था कि अपनी धर्मपद्धति का प्रचार करूँ।

मेरा लड़का बड़ा होने पर भिन्न धर्मपद्धति वालों के प्रचार में पड़कर उनसे दीक्षित हो गया। उस मत में शव का दाह कर्म वर्जित है। अतः मेरी मृत्यु के बाद उस मेरे पुत्र ने मेरा शव यहाँ फिंकवा दिया। उधर यमराज ने मेरे बारे में यह व्यवस्था की है कि मैं अपनी धार्मिक मान्यता को हिंसा, आतंक और भय के द्वारा दूसरों पर थोपने का प्रयास करता था। इसलिए मुझे नया जन्म उलूक के रूप में लेना होगा तथा अपना ही मांस खाना होगा। वहीं दंड मैं भोग रहा हूँ। प्रायश्चित-भावना से अंतःकरण शुद्ध होने के बाद मुझे पुनः मनुष्य योनि में जन्म पाने का अवसर मिलेगा।"


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