बीसवीं सदी में प्रत्यक्षवादी मान्यताओं के प्रति विशेष उमंग उमड़ा। उत्साह इस सीमा तक बढ़ा कि अदृश्य परमात्मसत्ता के अस्तित्त्व से भी इनकार किया गया। पदार्थसत्ता को ही सर्वोपरि ठहरानेवाले एक ऐसे वर्ग का प्रादुर्भाव हुआ, जिसने आत्मा, परमात्मा, कर्मफल की मान्यताओं पर भी कुठाराघात किया। इस वर्ग का कहना है कि ईश्वर पर विश्वास करने से मनुष्य पुरुषार्थवादी नहीं रहता, भाग्यवादी बनकर भ्रम-जंजालों एवं अंधविश्वासों में भटकता है। वास्तविकता के धरातल से परे हटकर काल्पनिक दुनिया में अपना समय एवं श्रम गँवाता रहता है। नास्तिक वर्ग का यह तर्क विचारणीय है।
निस्संदेह वह ईश्वर जो मनुष्य को पुरुषार्थहीन बनाता हो, भ्रम-जंजालों में भटकाता हो, की मान्यता से इनकार किया जाना चाहिए। सच तो यह है कि ईश्वरविश्वासी के समान पुरुषार्थी कोई नहीं होता। जहाँ सामान्य व्यक्ति का पुरुषार्थ व्यक्तिगत दायरे में सिमटा रहता है, वहीं आस्तिक की प्रखरता प्रचंड पुरुषार्थ के रूप में मानवमात्र के कल्याण के लिए समर्पित होती है। जिन्होंने भी उस सत्ता का अवलंबन लिया, स्वयं तो श्रेष्ठ बने ही, अन्यों को भी श्रेष्ठता के मार्ग पर चलने के लिए बाध्य किया। आस्तिकतावादी महापुरुषों के इतिहास इस बात के साक्षी हैं कि उन्होंने अपनी तेजस्विता के बलबूते समाज को एक ऐसा श्रेष्ठ-प्रवाह दिया, जिसमें असंख्यों व्यक्ति बहते चले गए तथा महामानवों की श्रेणी में जा पहुँचे। जहाँ कहीं भी अकर्मण्यता दिखाई पड़ती है वहाँ समझा यह जाना चाहिए कि ईश्वर का अवलंबन नहीं, उसका खोखला कलेवर अपनाया गया है। भ्रम-जंजालों एवं अंधविश्वासों की नहीं, प्रचंड विवेक की उत्पत्ति ईश्वरीय विश्वास से उत्पन्न होती है। अंधविश्वास तो विकृतियाँ हैं, ईश्वरीय विश्वास की उपलब्धियाँ नहीं।
चर्च संघ के मूर्धन्य धर्माध्यक्ष डाॅ. हैरीएमरसन फासगिक से नास्तिक वर्ग की इन विकृतियों की चर्चा की। तो उन्हीं ने उत्तर दिया—" ईश्वर के उस स्वरूप को जो अंधविश्वासों विकृतियों को जन्म देता हो, को न मानना ही श्रेष्ठकर है।" उन्होंने कहा कि, “पुरुषार्थ से विमुख करने वाली ऐसी किसी भी आस्तिकवादी मान्यता को स्वीकार करने के पक्ष में मैं नहीं हूँ।”
आस्तिकता के विरोध में इसका तर्क यह दिया जाता है कि ईश्वर है तो फिर दिखाई क्यों नहीं पड़ता? किंतु यदि दिखाई पड़ने के आधार पर ही ईश्वरीय अस्तित्व को स्वीकार करने की बात होगी तो वह शक्ति न होकर व्यक्ति, असीम न होकर ससीम सत्ता होगी। उस महान सत्ता को उसकी बिखरता से खींचकर सीमित क्षेत्र में प्रत्यक्ष कर देने की कल्पना वस्तुस्थिति अनुपयुक्त एवं उसकी गरिमा के प्रतिकूल होगी। दिखाई तो नेत्रों से पंचतत्वों से बना यह संसार ही पड़ता है। जो सतत परिवर्तित एवं विखंडित होता रहता है। परमात्मा को भी इन तत्त्वों से गढ़ी ऐसी ही शक्ति मानी जाए तो यह एक भारी भूल होगी।
स्थूलनेत्रों से दृष्टिगोचर होना ही मात्र किसी सत्ता के अस्तित्व का प्रमाण नहीं है। चुंबक, विद्युत, ताप जैसी अनेकों शक्तियाँ प्रत्यक्ष दिखाई नहीं पड़ती है, किंतु उनका परिचय विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाओं के रूप में मिलता है। विद्युत— पंखे में चलती, बल्ब में चमकती एवं हीटर को गरम करती देखी जाती है। चुंबक अपना परिचय आकर्षणशक्ति के रूप में देता है। प्रत्यक्ष न दिखाई पड़ते हुए भी उसकी सत्ता को स्वीकार किया गया है। प्रतिक्रियाओं के आधार पर इन शक्तियों की प्रकृति एवं विशेषताओं की जानकारी मिलती है।
प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने वाली यह सृष्टि ही परमात्मा का साकार स्वरूप हो सकती है। इसकी सुव्यवस्था एवं सौंदर्य में ईश्वरीय चेतना को क्रीड़ा-कल्लोल करते भावनेत्रों द्वारा देखा जा सकता है। उसका एक अंश चेतना के रूप में सृष्टि की व्यवस्था संचालित करता है। पूर्ण ब्रह्म को देख सकना अथवा अनुभव कर सकना असंभव है। नास्तिक वर्ग द्वारा परमात्मा के संदर्भ में यह प्रश्न किए जाने पर कि परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता। डाॅ. फासगिक ने उत्तर दिया कि, “सागर को एक प्याले में उड़ेल देना संभव नहीं है। पूरी तरह से उस सत्ता का वर्णन कर सकना अथवा देख सकना इन नेत्रों से संभव नहीं है। सागर के जल का प्रतिनिधित्व करने वाला प्याला सागर के जल की विशेषता को दर्शाता तो है, किंतु उसकी समग्र विशेषताओं का परिचय नहीं दे सकता। इसी प्रकार ईश्वर की विशेषताओं का अध्ययन सृष्टि में कर तो सकते हैं, किंतु पूर्णरूपेण उसे जान सकना इन प्रतीकों द्वारा संभव नहीं है।” डा. फासगिक ने आगे कहा कि, “जिस प्रकार समुद्र के निकट पहुँचकर भी उस का एक बड़ा भाग सदा अज्ञात बना रहता है। उसमें स्नान किया जा सकता है। उसकी शीतलता का लाभ उठाया जा सकता है। उसी प्रकार परमात्मा इतना विराट है कि वह बुद्धि एवं इंद्रियों के पकड़ से बाहर है। सांकेतिक रूप से प्रकृतियों की संरचनाओं एवं उसकी विशेषताओं में उसका दर्शन किया जा सकता है। ईश्वर को निकटवर्ती रूप में सौंदर्य, प्रेम, दिव्यता, श्रेष्ठता, सत्य एवं सच्चरित्रता जैसे गुणों के रूप में देखा जा सकता है।”
यह पूछे जाने पर कि सामान्य व्यक्ति ईश्वर को पाने का प्रयत्न करते है, किंतु सफल नहीं होते, ऐसा क्यों है? डाॅ. फासगिक ने कहा कि, “संपूर्ण रूप से तो उसको कोई नहीं जान सकता और न ही यह संभव है। उसकी दिव्यता का जितने अंश में दर्शन कर सके, जान सके, उसी को आधार मानकर अपनी साधना आरंभ करें। विचारक श्रेष्ठ विचारों के रूप में, कलाकार सौंदर्य के रूप में, साधक श्रद्धाभावना के रूप में तथा कर्मयोगी श्रेष्ठ कर्मों के रूप में अपनी साधना आरंभ करके उस परमात्मा की अनुभूति कर सकता है। सृष्टि की सुव्यवस्था एवं महापुरुषों के उदात्त चरित्र में भी उस महती चेतना का दर्शन किया जा सकता हैं। गणित के नियमों के समान नियम व्यवस्था एवं अनुशासन में बंधी सृष्टि प्रत्येक विचारशील को यह सोचने को बाध्य करती है कि क्या यह सब बिना किसी विचारशील नियामक सत्ता के संभव है।”
ईश्वरीय सत्ता में अविश्वास करने वाले वर्ग ने डाॅ. फासगिक से पूछा कि, "आपके ईश्वर की परिभाषा क्या है।" उन्होंने कहा कि, "परिभाषाएँ बुद्धि की उपज हैं। जो ईश्वर बुद्धि की परिभाषा के क्षेत्र में आता है। उसका स्तर मानवी होगा, असीम सामर्थ्यों से मुक्त सत्ता के रूप में नहीं होगा। मानवी परिभाषाओं में बँधने वाला ईश्वर विराट न होकर सामान्य होगा। ऐसा ईश्वर शक्ति नहीं व्यक्ति होगा। स्पष्ट है कि ईश्वर की परिभाषा दे सकना संभव नहीं हैं।”डाॅ. फासगिक का उपरोक्त कथन गीता के इस तत्त्वज्ञान का समर्थन करता है, जिसमें गीताकार कहता है—
वह परमात्मा इंद्रियों से बुद्धि से परे है—
इन्द्रियाणी पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः। मनसस्तु परा बुद्धर्यो बुद्धेः परतस्तु सः॥ गीता३/४२
स्थूलशरीर से इंद्रियाँ, इंद्रियों से मन, मन से बुद्धि सूक्ष्म और श्रेष्ठ है, किंतु जो बुद्धि से भी परे है। उसे ही (परम) आत्मा कहा जाता है अर्थात् परमात्मा इंद्रियों एवं बुद्धि की पकड़ से परे है।
इसे जानने के लिए इंद्रियों एवं बुद्धि की सीमा से निकलकर भाव-जगत में प्रविष्ट होना होगा। ऋषियों द्वारा बताए हुए सनातन मार्ग पर चलने, श्रेष्ठ जीवनक्रम अपनाने से ईश्वरीय अनुभूति संभव है। महानता अपनाना एवं श्रेष्ठता की ओर बढ़ चलने का साहस जुटा पाना अंधविश्वास—अकर्मण्यता नहीं, प्रचंड पुरुषार्थ एवं विवेक का परिचायक है। जिसको अपनाने वाला स्वयं तो महान बनता है, दूसरों को भी श्रेष्ठता की ओर बढ़ चलने की प्रेरणा दे सकने में समर्थ होता है। आस्तिकता का अवलंबन ही वस्तुतः जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ एवं वास्तविक ज्ञान का परिचायक है।