जनक के यहाँ विद्वानों की सभा में अष्टावक्र भी आमंत्रित थे। अष्टावक्र थे तो शरीर से टेड़े मेढ़े, परंतु उनकी बुद्धि बड़ी विलक्षण थी। उनकी विद्वत्ता की प्रसिद्धि चारों ओर फैली थी। जब वे सभा में प्रविष्ट हुए तो सभा में बैठे विद्वजन हँसने लगे। अष्टावक्र ने कारण जानना चाहा तो उन्हें बताया गया कि, "वे लोग उनकी टेड़ी- मेढ़ी हड्डियों एवं देह को देखकर हँस रहे हैं।"
अष्टावक्र जी ने जनक जी से पूछा—“राजन्! विद्वानों की सभा कहाँ हो रही है। मुझे वहाँ ले चलिए।" सभासद और हँसे कि इस महाशय को अभी भी नहीं मालूम कि यही विद्वानों की सभा है। अष्टावक्रजी ने तपाक से कहा—"यह सभा विद्वानों की कैसे हो सकती है? यहाँ तो हड्डी व चमड़ी की पहचान करने वाले बैठे हैं।"