जीवन के प्रति घटती आस्था-कारण और निवारण

December 1979

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

पहले की अपेक्षा दुनिया में समृद्धि-साधन बढ़े है। जीवन जीना पहले की अपेक्षा सरल हुआ है। यातायात और संचार-साधनों का जिन दिनों अभाव था, उन दिनों लोगों का अपने स्वजन संबंधियों से संपर्क भी वर्षों बीत जाने पर कभी-कभार एकाध बार होता था, किंतु अब लोग सुबह निकलते है और मीलों दूर कार्यालयों, कारखानों में काम करके शाम को वापस घर आ जाते है। किसी वस्तु का अभाव हो तो उसे तुरंत दूसरे शहर से मंगाया जा सकता है। आसन्न विपत्तियों के समय शुभेच्छुओं, मित्रों की सहायता भी प्राप्त की जा सकती है, जबकि पहले प्रत्येक परिस्थिति का सामना मनुष्य को स्वयं अकेले ही करना पड़ता था।

सुविधा-साधनों में इतनी प्रचुर अभिवृद्धि होने के उपरांत भी मनुष्य पहले की अपेक्षा उदास, उद्विग्न और खिन्न हुआ है। पहले की अपेक्षा उसमें मनोबल का अभाव है। प्रमाण है— प्रतिदिन सैकड़ों व्यक्तियों द्वारा जिंदगी से निराश और हताश होकर की जाने वाली आत्महत्याएँ। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रतिदिन कम से कम एक हजार व्यक्ति आत्महत्याएँ करते है और लगभग दस हजार व्यक्ति आत्महत्या का प्रयास करते हैं, किंतु किन्हीं कारणों से वे अपने प्रयासों में सफल नहीं हो पाते।

इसका कारण क्या है? खोजने पर यह तर्क सामने आता है कि आत्महत्याएँ तो पहले भी लोग करते थे, किंतु संचार-साधनों के अभाव के करण उनकी जानकारी अधिक लोगों तक नहीं पहुँच पाती थी। इस कारण कितने लोग प्रतिदिन आत्महत्याएँ करते हैं, यह भी जान पाना कभी संभव नहीं रहा। यह तर्क तब धराशाई हो जाता है जब यह तथ्य सामने आता है कि पिछले बीस-तीस वर्षों में आत्महत्या करने वालों की संख्या कई गुना बढ़ गई है।

ब्रिटेन के एक प्रतिष्ठित मनोरोग चिकित्सक डाॅ. डब्ल्यू. जे. स्टेनले के अनुसार, पिछले बीस वर्षों में आत्महत्या करने वालों की संख्या तीस गुना बढ़ी है। उनके अनुसार ब्रिटेन में तीन चौथाई व्यक्ति अपने जीवन में एक न एक बार आत्महत्या की चेष्टा करते है। उनके पास आने वाले सैकड़ों मनोरोगियों में से हर पाँचवाँ व्यक्ति ऐसा होता है जो दूसरी बार आत्महत्या का प्रयत्न करता है।

अमेरिका के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य संस्थान के अनुसार, विश्व में आत्महत्या मृत्यु का दसवाँ बड़ा कारण है। नौ दूसरे कारण होते हैं, जिनमें बीमारी, हत्या, आक्रमण अथवा रोगों के कारण लोग मरते हैं। अकेले अमेरिका में ही 10,000 व्यक्ति प्रतिवर्ष अपना गला आप घोंट लेते है। जापान, डेनमार्क, स्वीडन तथा आस्ट्रिया में स्वयं मृत्यु को गले लगाने वाले लोगों की संख्या सबसे अधिक है। कनाडा, आस्ट्रिया, डेनमार्क, फिनलैंड, जर्मनी, हंगरी, स्वीडन और स्विट्जरलैंड इन आठ देशों में मरने वाला प्रत्येक चौथा व्यक्ति आत्महत्या के कारण मरता है। पोलैंड में इसका पाँचवाँ स्थान है। इन देशों में जिन प्रथम तीन-चार कारणों से लोग मरते हैं, उनमें दुर्घटनाएँ, कैंसर तथा हृदय रोग आते है। अर्थात आत्महत्या इन राजरोगों के बाद स्थान प्राप्त करने लगी है।

यह औसत पिछले कुछ ही वर्षों से बढ़ा है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि आत्महत्या लोग पहले भी करते थे और अब भी करते हैं, अंतर केवल इतना है कि अब इनका पता सबको लग जाता है और पहले नहीं लगता था। यह रोग इतना अधिक फैलता जा रहा है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने प्रत्येक देश में आत्महत्या निरोधक-केंद्र खोलने का आह्वान किया है। संगठन के अनुसार ऐसे व्यक्ति प्रायः अपने इरादे के बारे में पहले ही इरादा व्यक्त कर देते है। लोग उनकी बातों को हलके ढंग से लेते है,पर यह नहीं कहा जा सकता कि आत्महत्या की बात कहने वाला व्यक्ति अपने कहे अनुसार इसे कार्यरूप में परिणत नहीं करेगा। संगठन का कहना है कि जो व्यक्ति पहली बार आत्महत्या करते है वह अपने को बचाने के लिए पुकारते भी है। ऐसा कम ही देखा गया है। जो लोग एक बार आत्महत्या का प्रयास करते समय बचा लिए गए हों, उन पर बाद में ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए तथा आत्महत्या निरोधकेंद्र के सुपुर्द करना चाहिए।

कानूनन आत्महत्या दंडनीय अपराध है, पर इस कानून की पकड़ में वही लोग तो आते है जो आत्महत्या करने से किसी प्रकार बचा लिए गए हों। जो अपने प्रयासों में सफल हो गए उनका तो केवल शव ही हाथ आता है। खैर, हमारा उद्देश्य यहाँ कानूनी बहस में उलझना नहीं है बल्कि यह देखना है कि जीवन की जटिलताएँ दिनों-दिन कम होते जाने के साथ-साथ लोगों में आत्महत्या की प्रवृत्ति क्यों बढ़ती जा रही है?

वस्तुतः आत्महत्या की इस बढ़ती हुई प्रवृत्ति का कारण मनुष्य में दिनों-दिन मनोबल का टूटते या कम होते जाना है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, आत्महत्या एक मानसिक रोग है जो निराशा, मोहभंग, अवसाद, गरीबी, पारिवारिक और सामाजिक परिस्थितियों की प्रतिक्रियास्वरूप जन्म लेती है। यह कारण तो पहले भी विद्यमान थे, बल्कि जीवन की जटिलताएँ आधुनिक काल में उन्नत संसाधनों का कहीं कोई चिन्ह न मिलने की स्थिति में और भी ज्यादा थी। फिर क्या कारण है कि लोगों में इन्हीं दिनों यह प्रवृत्ति ज्यादा फैली है? इसका मूल कारण मनुष्य का बाहरी साधनों पर निर्भर रहने, सुविधाओं का आदी हो जाने के कारण जीवन से संघर्ष की क्षमता कम होते जाना है।

मनुष्य के सामने जितनी ही ज्यादा चुनौतियाँ होती है, संघर्ष के जितने ही ज्यादा अवसर होते हैं उसका मनोबल भी उतना ही बढ़ा-चढ़ा होता है। इसके विपरीत सुविधा-साधनों के बढ़ने पर उनका अभ्यस्त हो जाने की स्थिति में मनुष्य की मनोभूमि इस ढंग से ढल जाती है कि वह प्रतिकूल अथवा अनपेक्षित परिस्थितियों को जरा भी सहन नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए कोमल गद्दों पर सोने वाले, शीत और गर्मी दोनों से अपने को बचाने का पूरा प्रबंध रखने वाले व्यक्तियों का शरीर उन सुविधाओं का इतना आदी हो जाता है कि जरा भी असुविधा नहीं सह सकता।

शरीर की भाँति ही मनुष्य की मनःस्थिति भी पूर्वापर, कोमल, असहिष्णु तथा दुर्बल बनी है। यही कारण है कि संघर्ष का अनपेक्षित अवसर आते ही व्यक्ति या तो उससे भागने लगता है अथवा सिर पर आ पड़ने की स्थिति में आत्महनन कर लेता है। जीवन में संघर्ष के अवसर प्रायः 15 से 45 वर्ष की आयु के बीच आते है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 15 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति, जिन्हें बच्चे ही कहा जा सकता है, आत्महत्या नहीं करते। जहाँ कहीं ऐसी घटनाएँ होती है वे अपवादस्वरूप ही हैं। जब कि वृद्ध व्यक्ति किसी असह्य रोग के कारण अकेलेपन, जीवनसाथी के पिछोह अथवा शारीरिक असमर्थता के कारण ही आत्महत्या करते है। इस प्रकार अपनी इहलीला समाप्त करने वालों में १५ से ४५ वर्ष की आयु वाले व्यक्तियों का प्रतिशत ही सबसे ज्यादा है। बल्कि कहा जा सकता है कि इस आयु वर्ग के लोग ही मुख्यतः आत्महत्या करते है।

दिल्ली स्कूल आफ सोशल वर्क के श्री आर. एम. वर्मा ने पुलिस रिकार्ड में उपलब्ध आत्महत्या के 849 केसों का अध्ययन कर बताया कि इनमें से तीन चौथाई व्यक्तियों की आयु 15 से 40 वर्ष के बीच थी। 5 प्रतिशत युवा आत्महत्याओं में से भी 42.5 प्रतिशत उन व्यक्तियों का था जिनकी आयु 20 से 30 वर्ष के बीच थी। इसके साथ ही यह तथ्य भी प्रकाश में आया कि आत्महत्या करने वालों में लगभग 70 प्रतिशत व्यक्ति शहरों के निवासी थे। इससे एक बात यह भी पता चलती है कि शहर, जहाँ सुविधा-साधनों का बाहुल्य है लोग जल्दी ही जीवन-संघर्ष में हार जाते है। स्मरणीय है कि इन साढ़े आठ सौ व्यक्तियों में से केवल 84 व्यक्ति अर्थात 1 प्रतिशत से भी कम लोगों ने आर्थिक कारणों से आत्महत्या की। बाकी लोग तो असफलता, घरेलू झगड़ों, प्रतिस्पर्धा, रोग- बीमारी आदि के कारण आत्महंता बने।

स्पष्ट है कि शहरी लोगों की अपेक्षा देहातियों में जीवन से जूझने की ज्यादा क्षमता रहती है। शहरी जीवन की आपाधापी, यांत्रिकता और मशीनी जिंदगी मनुष्य को भीतर से तोड़कर रख देती है तथा उसे जल्दी ही निर्बल, दुर्बल, बना देती है। जो भी हो, आत्महत्या की ओर प्रवृत्त होने का मूल कारण मनोबल का अभाव अथवा मानसिक दुर्बलता है। प्रश्न उठता है, यह क्यों उत्पन्न होती है? इसका निश्चित उत्तर दे पाना कठिन है, फिर भी इसका कारण मनुष्य में दिनों-दिन आध्यात्मिक आस्थाओं का विघटन होते जाना है। कहना नहीं होगा, इन दिनों मनुष्य ने भौतिक क्षेत्र में असाधारण प्रगति की है। बढ़े हुए वैभव, समृद्धि साधनों और सुविधा उपकरणों के कारण मनुष्य की दृष्टि में वहीं प्रधान हो गए है। जिन थोड़े लोगों के पास ये साधन होते है, सामान्य और मध्यम वर्ग का व्यक्ति उन्हें ही अपना आदर्श मानता है और उन जैसी स्थिति प्राप्त करने के लिए जीतोड़ प्रयत्न करता है।

जब आकर्षण का एकमात्र केंद्र वैभव, प्राप्ति का एकमात्र लक्ष्य समृद्धि और प्रतिष्ठा का एकमात्र मापदंड संपन्नता हो तो व्यक्ति का जीवन के अन्य पहलुओं की ओर से ध्यान हट जाना स्वाभाविक ही है। मौलिकता की बाढ़ आध्यात्मिक आदर्शों, धर्मश्रद्धा, ईश्वरविश्वास, तप-त्याग, पुण्य-परमार्थ जैसे तत्त्व न जाने कहाँ लुप्त-विलीन हो जाते हैं, जो कठिन से कठिन समय में भी मनुष्य के लिए अजस्र शक्तियों का प्रवाह बहाते रहते है। कहा गया है कि आध्यात्मिक -विश्वास वह दुर्ग है, जो मनुष्य की सभी परिस्थितियों में रक्षा करता है। जब यह दुर्ग ही नष्ट हो जाये तो वह कौन-सा आधार होगा जो जीवन को बल प्रदान कर सकता है?

धर्मश्रद्धा या ईश्वरविश्वास वह तत्त्व है, जो कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी जीवन के प्रति आस्था सुदृढ़ बनाए रखती है। इन तत्त्वों को जीवन की आधार भूमि बनाए रहने पर जीवन के प्रति दृष्टि ही बदल जाती है। जीवन की सार्थकता ही अन्य हो जाती है। वही दृष्टि, अर्थवत्ता और जीवनमूल्य शाश्वत है, जो जीवन को सर्वोपरि ठहराती है और भौतिक-साधनों को उसकी एक आवश्यकता मात्र सिद्ध करती है, न कि उन्हीं में सार्थकता खोजती है। तब भौतिक सफलता या असफलताएँ विचलित नहीं करती, किंतु वह दृष्टि ही इन दिनों बदल गई है, जीवनमूल्यों में ही परिवर्तन आ गया है और साधन ही साध्य बन गया है, आवश्यकता ही लक्ष्य बन गई है। जब तक यही स्थिति रहेगी, तब तक आत्महत्याओं का काम जारी रहेगा और कोई आश्चर्य नहीं कि यह क्रम बढ़ता ही जाए। मध्यकाल में इन तत्त्वों का भले ही अभाव रहा हो, किंतु तब भौतिक प्रगति भी इतनी नहीं हुई थी। अब जब कि भौतिक प्रगति पहले की अपेक्षा कई गुना बढ़ी है तो इन तत्त्वों का अभिवर्धन भी किया जाना चाहिए, तभी संतुलन सधेगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118