किस पुण्य का कितना मूल्य

December 1979

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सम्राट वीरभद्र अपनी दान-वीरता के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। उनके संबंध में कहा जाता था कि प्रातः होते ही राजमहल के द्वार पर आने वाला कोई भी याचक उनके यहाँ से खाली हाथ नही जाता था। याचकों की भीड़ लग जाती और वीरभद्र अपने अंतःपुर से निकलकर याचकों को पर्याप्त दान दिया करते थे।

इस तरह दान देने के कारण राजकोष खाली होता चला गया। दान के अतिरिक्त राजपरिवार की सुख-सुविधाओं के लिए भी पर्याप्त राशि खर्च होती थी। इस प्रकार खाली होते राजकोष को भरने के लिए जनता पर नए-नए कर लगाने पड़ते। एक ओर लोग जहाँ सम्राट की दानवीरता का गुणगान करते थे, वहीं     करभार और अन्यान्य अव्यवस्थाओं के प्रति असंतोष भी व्यक्त करा चुके थे। इस अस्त-व्यस्तता का लाभ उठाकर राज्य को अपने राज्य में शामिल करने के लिए पड़ौसी राजा ने वीरभद्र के राज्य पर आक्रमण कर दिया। दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया गया और राजा वीरभद्र को रानी सहित वंदी बना लिया गया, पर कुछ ही दिनों बाद वे दोनों वंदीगृह से निकल भागे।

उनके पास ऐसे कोई साधन तो थे नहीं, जिससे गुजारा चलाते। इसलिए दोनों वन-वन भटकने लगे। एक दिन परेशान होकर रानी ने कहा—”सुना है! सेमरगढ़ नगर का एक सेठ पुण्य खरीदा करता है। आप तो जीवन भर दान देते रहे हैं। यदि हम लोग सेमरगढ़ जाकर अपने दान-पुण्य का एक अंश बेच दें तो उससे कम से कम उदरपूर्ति की व्यवस्था तो जुट ही सकती है।”

वीरभद्र भी रानी के इस विचार से सहमत हो गया और दोनों सेमरगढ़ की ओर चल पड़े। जिस स्थान पर वे लोग भटक रहे थे, वहाँ से गंतव्य स्थान काफी दूर पड़ता था अतः मार्ग में निर्वाह की व्यवस्था दोनों पति-पत्नी मजदूरी करके जुटाते, साथ ही अपने दुर्दिनों और भाग्य को भी कोसते थे। एक स्थान पर मजदूरी भी बड़ी मुश्किल से मिल पाई। उस दिन केवल इतना ही कुछ कमाया जा सका कि जैसे-तैसे चार रोटियाँ ही बनाई जा सकें। इतना आटा लेकर ही वे आगे का रास्ता तय करने के लिए निकल पड़े। चलते-चलते शाम हो गई तो वे एक गाँव में ठहर गए। आस-पास के वृक्षों से लकड़ियाँ तोड़कर आग जलाई और चार मोटी-मोटी रोटियाँ सेंक लीं।

रोटियाँ तैयार करने के बाद वे ग्रास तोड़ने ही वाले थे कि एक भिखारी रोटी माँगता हुआ वहाँ आया और बुरी तरह गिड़गिड़ाने लगा। वीरभद्र के स्वभाव में दया और उदारता तो थी ही। उसने अपने पास की दोनों रोटियाँ क्षुधार्त भिक्षुक को दे दीं और शेष दो रोटियों में से दोनों पति-पत्नी ने एक-एक रोटी खाई।

इसी तरह किसी प्रकार चलते-चलते राजा-रानी सेमरगढ़ पहुँचे। सेठ के सामने पहुँचने पर उसने अपने आने का उद्देश्य बताया। सेठ ने कहा—”आप अपने जिन पुण्यों को बेचना चाहते हैं। उन्हें एक कागज पर लिखकर इस तराजू के पलड़े में रख दीजिए।”

राजा ने वैसा ही किया, पर तराजू ज्यों की त्यों रही। सेठ ने वस्तुस्थिति समझते हुए कहा—”ऐसा प्रतीत होता है कि आपने अनीति और अधर्म की कमाई का दान किया है।"

आगे कुछ कहने का साहस ही नहीं जुट पा रहा था। राजा क्या कहता, वह लज्जा से अवनत हुआ नीचे देखने लगा। सेठ ने कहा—"मुझे आपकी दुःखदाई और त्रासपूर्ण स्थिति से पूरी सहानुभूति है। आप किसी ऐसे पुण्य का स्मरण कर लें, जो ईमानदारी से अर्जित कमाई द्वारा संचित किया गया हो।"

वीरभद्र काफी देर तक सोचते रहे। फिर उसे पिछले दिन वाली घटना याद आई,जब उसने अपने हाथ से भिखारी को अपने सामने की रोटी खाने के लिए दे दी थी। भिखारी को रोटी दान में देने की बात एक कागज पर लिखकर ‘वीरभद्र’ ने उसे तराजू के पलड़े में रख दिया। दूसरे ही क्षण राजा ने देखा। पलड़ा नीचे झुक गया है। सेठ ने अनेक स्वर्णमुद्राएँ उसमें रखीं, फिर भी कांटा बराबर न हो रहा था। उसे आश्चर्य हुआ कि इस छोटे से पुण्य के लिए सेठ को पाँच हजार स्वर्णमुद्राएँ रखनी पड़ीं तब जाकर कहीं काँटा बीचों-बीच आया।

यह कथा सुनाते हुए मुनि अमरनाथ ने अपने शिष्यों से कहा—”दान वही सार्थक होता है जो नैतिक साधनों द्वारा अर्जित किए गए धन से करे।         अनीतिपूर्वक अर्जित की गई समस्त संपदा का पारमार्थिक मूल्य नीतिपूर्वक कमाई गई एक रोटी के बराबर भी नहीं होता है।"


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