निश्चित रूप से आपने आत्महत्या करना चाहा

December 1979

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“किसी भी इमारत की सबसे ऊपरी मंजिल की छत पर चढ़कर तुम अगर नीचे झाँकते हो तो डरने क्यों लगते हो?"—ब्रिटेन के प्रसिद्ध मनःशास्त्री डा. स्टेनले ने अपने छात्रों से प्रश्न किया। छात्रों ने इसके अलग-अलग उत्तर दिए, किंतु उनमें से एक भी उत्तर सही नहीं था। बाद में स्वयं डा. स्टेनले ने अपने ही प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा—”क्योंकि, उस समय तुम्हें यह भय होने लगता है कि कहीं मैं यहाँ से गिर न जाऊँ। किसी भी व्यक्ति के दिमाग में बहुत ऊँचे स्थान पर चढ़कर नीचे झाँकने से यह विचार आ सकता है कि यदि मैं यहाँ से कूद जाऊँ तो क्या होगा? यह विचार अकारण नहीं, बल्कि मनुष्य का अपना अवचेतन मन ही उसे कूद पड़ने या गिर जाने के लिए प्रेरित करता है।”

डा. स्टेनले का यह प्रतिपादन विवाद का विषय हो सकता है, पर इसमें काई संदेह नहीं है कि अधिकांश लोग अपने जीवन को निस्सार, व्यर्थ और निरर्थक अनुभव करते हैं। यही कारण है कि सामान्य-सी रोग, बीमारियों के समय, थोड़ी-सी प्रतिकूल परिस्थितियाँ आने पर व्यक्ति मर जाने अथवा जीवन का अंत हो जाने की कामना करने लगता है। एक मनोवैज्ञानिक के मतानुसार प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में एक से अधिक बार आत्महत्या कर लेने की बात सोचता है। यह बात अलग है कि वह अपने जीवन का अंत कर लेने का साहस नहीं जुटा पाता है।

फिर भी कई दुस्साहसी व्यक्ति परीक्षा में असफलता, नौकरी छूट जाने या उन्नति न होने, परिवार में कलह होने, मुकदमेबाजी में हार जाने के छोटे-छोटे कारणों से आत्महत्या कर लेते हैं। इन कारणों से आत्महत्या करने वालों की संख्या दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिर्पोट के अनुसार प्रतिदिन 12 हजार व्यक्ति आत्महत्या का प्रयास करते है। अर्थात एक मिनट में लगभग 9 व्यक्ति आत्महत्या की चेष्टा करते हैं। इन नौ व्यक्तियों में से आठ व्यक्ति या तो बचा लिए जाते हैं अथवा मृत्यु की यंत्रणा न सह पाने के कारण स्वयं ही सहायता के लिए पुकारने लगते है और किसी न किसी प्रकार बच जाते है। नौ में से एक व्यक्ति प्रति मिनट आत्महत्या करता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार आत्महत्या करने वालों की संख्या पिछले बीस वर्षों में तीन गुना बढ़ी है। प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि लोग आत्महत्या क्यों करते है? मनोवैज्ञानिक इस प्रश्न के अलग-अलग उत्तर देते है। कुछ लोगों का कहना है कि व्यक्ति अपने चारों ओर के निराशापूर्ण वातावरण से इतना घबड़ा उठता है कि उसे इसके अलावा कोई चारा ही नहीं सूझता। कुछ मनोविश्लेषणकर्त्ताओं के अनुसार, जो व्यक्ति हिंसक प्रवृत्ति के होते है और वे इसे व्यक्त नहीं कर पाते, वे इस प्रवृत्ति से स्वयं को ही नष्ट कर लेते है। इसके समर्थन में यह तर्क दिया जाता है कि युद्ध के दिनों में आत्महत्या की घटनाएँ कम होती है, क्योंकि उस समय लोगों की हिंसावृत्ति युद्ध में होने वाले नरसंहार से तृप्त हो लेती है।

कुछ लोग अपने आपको इतना अकेला और असहाय अनुभव करते है कि उन्हें जीवन में कोई लाभ नहीं दिखाई देता और वे सोचने लगते हैं कि क्यों न आत्महत्या कर ली जाए। जीने में क्या रखा है? कोई व्यक्ति आत्महत्या का विचार भावात्मक उत्तेजना में आकर करने लगता है और उस उत्तेजना की स्थिति में कार्यक्रम भी बना लेता है। इस संदर्भ में न्यूयार्क की एक घटना का प्रायः उल्लेख किया जाता है, जिसमें एक युवक ने 200 फुट ऊँचे पुल से पानी में छलांग लगा ली थी। संयोगवश उधर से बचाव के लिए पुलिस की नाव भी आ गई। नाव में सवार पुलिस वालों ने उस युवक से बाहर निकलने के लिए कहा और पकड़ भी लिया। इस पर युवक छटपटाने लगा कि,"मुझे अकेला छोड़ दो, मैं मरना चाहता हूँ, मुझे मर जाने दो।" इस पर पुलिस वालों ने कहा—”ठीक है, हम तुम्हारी इच्छा पूरी किए देते है।" यह कहकर उन्होंने युवक को निशाना बनाकर बंदूक तान दी तो उसका मरने का उत्साह न जाने कहाँ काफूर हो गया।

मनोविश्लेषज्ञ आत्महत्या का प्रमुख कारण अवसाद बताते है, जो किसी भी कारण से उत्पन्न हो सकता है। चाहे वह शारीरिक रोग के कारण उत्पन्न हुआ हो, अथवा परीक्षा, प्रेम या प्रतियोगिता में असफलता के कारण। एक लड़का,जिसकी माँ मर चुकी थी, आत्महत्या करने के लिए ढेर-सारी गोलियाँ खा गया। यह बात किसी तरह घर के अन्य लोगों को पता चल गईं और उन्होंने उसे दिल्ली के अस्पताल में भर्ती कर दिया। उपचार के बाद जब वह ठीक हो गया तो उसने बताया कि,"इस प्रकार वह अपनी मृतक माँ से मिलना चाहता था।"

कुछ मनःशास्त्री आत्महत्या के पीछे प्रतिशोध की भावना भी देखते हैं। उनके मतानुसार परिवार का कोई सदस्य अपने परिवार के अन्य सदस्यों को सबक सिखाने के लिए भी आत्महत्या कर लेता है। उस समय आत्महत्या करने वाला यही सोचता है कि इससे इन लोगों को काफी परेशानियाँ उठानी पड़ेंगी और इन्हें यह पता चल जायगा कि मैं कितना अच्छा था? कई व्यक्ति अपराध-भावना से दबे रहने के कारण भी आत्महत्या कर लेते है। क्योंकि उन्हें इसके अलावा अपराध-बोध से मुक्त होने का कोई दूसरा अच्छा उपाय ही नहीं सूझता। दूसरे कई लोग वृद्धावस्था, जीवनसाथी की उपेक्षा, बेरोजगारी, मुकदमेबाजी जैसे कारणों से तंग आकर आत्महत्या करते है।

कुल मिलाकर आत्महत्या का कारण जीवन की व्यर्थता का अनुभव होना है और यह सच है कि प्रत्येक व्यक्ति जीवन में एक नहीं, अनेक बार अपने जीवन को व्यर्थ तथा कई बार तो भारस्वरूप समझने लगता है। उस भार से छुटकारा पाने के लिए ही वे आत्महनन की बात सोचते हैं। प्रश्न उठता है कि जीवन क्या सचमुच इतना व्यर्थ है कि छोटी-छोटी बातों से निराश होकर उसका अंत करने की बात सोची जाए? गंभीरतापूर्वक आत्मविश्लेषण किया जाए तो प्रतीत होगा कि प्रत्येक व्यक्ति कई बार अपने जीवन को व्यर्थ और भाररूप अनुभव करता है। कारण कुछ भी हो सकता है, पर जीवन की व्यर्थता इतनी तीव्रता के साथ अनुभव होती है कि उसे रहने, न रहने देने से कोई अंतर प्रतीत नहीं होता। बल्कि भला इसी में दीखता है कि ऐसे निरर्थक जीवन को फटे हुए कपड़ों की तरह फेंक दिया जाए, कूड़े-कचरे की तरह नष्ट कर दिया जाए।

जाने-अनजाने प्रत्येक व्यक्ति के मन में अपने जीवन के प्रति निराशा, हताशा और निरर्थकता की भावना भी होती रहती है। कभी असफलताजन्य खिन्नता के रूप में तो कभी थकान के कारण उत्पन्न हुए तनाव के रूप में, कभी अधिक परिश्रम के कारण खीझ के रूप में तो कभी किसी के व्यवहार से क्षुब्ध होने के रूप में। इस तरह के जितने भी निषेधात्मक भाव है, वे सब निरर्थकता बोध की ही प्रच्छन्न अभिव्यक्तियाँ है। अन्यथा जीवन है— एक पुष्प की भाँति, जो अपने चटखने से लेकर धरती पर गिरने तक निरंतर खिला ही रहता है और अपनी सुगंधित सुवास चतुर्दिक बिखेरता रहता है। जीवन है—एक सरिता की भाँति, जो अपने स्त्रोत से लेकर सागर तक निरंतर बहती ही रहती है। कहीं न रुकती है और न सड़ांद फैलाती है। यदि जीवन व्यर्थ अनुभव होता है तो इसका अर्थ है—उसे खिलने नहीं दिया गया, खिलने से पहले ही तोड़ दिया गया और न उसमें प्रवाह ही आने दिया गया।

फूल खिलेगा नहीं तो धरती पर गिरेगा भी नहीं—यह निश्चित है। नदी बहेगी नहीं तो सागर तक नहीं ही पहुँचेगी, यह भी निश्चित है और साथ ही यह भी सच है कि वह नदी न रहकर झील बन जाएगी। इस दृष्टि से डाॅ. स्टेनले की यह व्याख्या शत-प्रतिशत सही सिद्ध हो सकती है कि ऊँचाई पर चढ़ने के बाद कोई व्यक्ति नीचे झाँकता है तो उसके मन में केवल इसलिए भय उत्पन्न होने लगता है कि कहीं मैं आत्महत्या न कर लूँ? कहीं नीचे न कूद पड़ूँ? स्पष्ट ही यह भय इस कारण अनुभव होता है कि उसके अवचेतन में भरा हुआ जीवन के प्रति व्यर्थता का बोध उसे नीचे कूद पड़ने के लिए प्रेरित करता है। अन्यथा इतनी ऊँचाई पर से कौन नीचे धकेलना चाहता होगा।

माना कि भय ऊँचाई पर उपस्थित अन्य लोगों की उपस्थिति से उत्पन्न होता होगा। या हवा के झोकों से गिर जाने का डर पैदा होता होगा। किंतु देखा यह गया है कि भीड़ की अपेक्षा अकेले होने पर यह भय और तीव्रता के साथ व्यापता है। हवा शांत हो, वातावरण निस्पंद हो तब तो और अधिक स्पष्ट अनुभव होता है कि कोई नीचे कूद पड़ने के लिए प्रेरित करता है। भीड़ होने पर तो फिर भी सुरक्षा का भाव रहता है कि गिरने से कोई भी बचा लेगा, किंतु एकांत में व्यक्ति नितांत असुरक्षित और असहाय अनुभव करता है। क्यों? इसलिए कि उस समय सुरक्षा का ऐसा कोई आश्वासन कहीं से मिलता दिखाई नहीं देता।

जीवन व्यर्थ होने का भाव आत्महनन की प्रेरणा देता है, यह इस बात से भी सिद्ध होता है कि मनुष्य केवल उपयोगी और सार्थक वस्तुओं को ही अपने पास रखना चाहता है। व्यर्थ का कूड़ा-कर्कट जमा करने में, ऐसी वस्तुएँ संग्रहित करने में जिनकी कोई उपयोगिता नहीं है, किसी की भी रुचि नहीं होती। इसलिए जीवन भी व्यर्थ अनुभव हो रहा है तो उसे बचाने की अपेक्षा नष्ट कर देने में ही मनुष्य की प्रवृत्ति होना स्वाभाविक है। कहीं कोई सूत्र होते है, जो मोह और आसक्ति के कारण उसे बचाए रखने का संतुलन साधते है और जब कभी ये सूत्र टूट जाते है तो आत्महनन की स्पष्ट इच्छा होने लगती है। यह इच्छा भी तभी पूरी हो पाती है, जब वैसा करने का साहस जुटाया जा सके। अन्यथा व्यक्ति केवल कामना करके ही रह जाता है।

इस व्यर्थता के बोध से ही अधिकांश व्यक्ति खिन्न, दुखी, उदास, म्लान और उद्विग्न हुए देखे जाते हैं। अन्यथा ऐसा कोई बाहरी कारण नहीं हैं जिससे दुखी हुआ जाए। प्रश्न उठता है कि व्यर्थता के इस बोध से कैसे छुटकारा पाया जाए? और किस प्रकार जीवन को सार्थक बनाया जाए? उत्तर स्पष्ट है। अब तक जिन त्रातों में जीवन की सार्थकता खोजी गई है, वे व्यर्थ और दिग्भ्रांत ही सिद्ध हुई हैं। किंहीं ने धन में जीवन की सार्थकता खोजी, किंतु धनवान् व्यक्ति भी आत्महत्या करते देखे गए हैं। यश, ख्याति और प्रसिद्धि प्राप्त कर अनेकों ने अपने जीवन को सफल बनाने का प्रयास किया है। उन प्रयासों के सफल होने पर भी आत्मसंतोष नहीं मिलता दिखाई दिया। कोई सोचते है कि विद्वता, पांडित्य और ज्ञान-संपादन से जीवन सार्थक होता है, किंतु बड़े-बड़े विद्वान पंडित और ज्ञानी-विज्ञानी आत्महत्या करते देखे गए हैं। इस तरह की सभी सफलताएँ सार्थकता का भ्रम तो उत्पन्न करती है, पर जीवन को सार्थक नहीं बनातीं। यदि इनसे जीवन की सार्थकता सिद्ध होती तो बड़े-बड़े नेताओं, पंडितों और विद्वानों को कभी भी हताश, निराश और दुखी नहीं देखा जा सकता था।

फिर जीवन की सार्थकता किस बात में है? थोड़ा-सा विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है। मनुष्य की अपनी जीवन-चेतना विराट समष्टि चेतना का एक अंग है। बूँद जिस प्रकार सागर से अलग होकर वापस सागर में ही मिलने के लिए छटपटाती है, कभी मेघमाला बनकर धरती पर बरसती है और सागर की ओर दौड़ने लगती है तो कभी जलाशयों में जा गिरती है। जलाशय में गिरने के बाद फिर वह बादल बनकर उड़ती है या धरता की अतल गहराइयों में घुसकर अपने उसी विराटरूप की ओर दौड़ लगाती है। उसी प्रकार मनुष्य की सीमाबद्ध व्यष्टि-चेतना भी समष्टि-चेतना के सागर से मिलन के लिए आतुर है। जिनने भी इस आतुरता को समझा है, अपने संकीर्ण-स्वार्थों को विराट हितों में घुला देने की चेष्टा की है, उन्हें कभी भी निराश होते नहीं देखा गया है और न किसी ऐसे व्यक्ति का कोई विवरण ही मिलता है, जिसने यह दिशा ग्रहण करने के बाद आत्महनन किया हो। बूँद जिस प्रकार अपने मूलस्वरूप को प्राप्त कर स्वयं को सार्थक बनाती है, उसी प्रकार मनुष्य का जीवन भी अपने क्षुद्र-अहं की परिधि को तोड़कर विराट-चेतना से मिलकर स्वयं को सार्थक और धन्य बनाता है। फिर आत्महत्या करने का विचार आने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता।


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