दुःखों की जननी—आसक्ति

December 1979

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वीतराग, सर्वत्यागी और निष्काम ऋषि भरत इतने निश्छल और निर्विकार रहते थे कि लोगों ने उपहास में उन्हें जड़ कहना आरंभ कर दिया। जड़ शब्द उनके लिए लोकव्यवहार में इतना प्रचलित हुआ कि उनके मूलनाम से जुड़कर उन्हें जड़भरत ही कहा जाने लगा। लोग उन्हें कुछ भी कहते, मान करते या अपमान, निंदा करते या प्रशंसा—इसकी उन्हें न कोई अपेक्षा रहती ओर न ही किसी तरह की चिंता। सरल इतने कि लोग उन्हें मूर्ख समझकर रोटी के बदले कोई भी बेगार करने को कहते तो वह भी अविचलभाव से कर लेते।

एक दिन की घटना है। सिंधु सौवीर प्रदेश के राजा रहूगणा महर्षि कपिल का सत्संग करने के लिए शिविका में बैठकर जा रहें थे। रास्ते में एक कहार बीमार पड़ गया। संयोग से उसी स्थान पर जड़भरत विचरण करते दिखाई दिए। वेश-विन्यास देखकर उन्हें महर्षि तो क्या कोई ब्राह्मण भी नहीं समझ सकता था। शरीर से हृष्ट-पुष्ट और मुद्रा से प्रसन्न सरल भरत को भारवाहकों ने कोई चरवाहा समझा और उन्हें पकड़कर सौवीर नरेश की पालकी उठाने में बीमार साथी के स्थान पर लगा दिया। स्वभाव से ही न करना, नहीं जानने वाले महर्षि भरत ने सहर्ष इस कार्य को स्वीकार किया और रुग्ण व्यक्ति के स्थान पर स्वयं आ गए।

उन्हें इस कार्य का अभ्यास तो था नहीं, इसलिए वे भारवाहकों की तरह उनके साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल पा रहे थे। इसके अलावा उन्हें इस बात का भी ध्यान रहता था कि धरती पर रेंगने या चलने वाला कोई जीव पैरों से कुचलकर न मर जाए, इस सतर्कता और अनभ्यस्त होने के कारण उनके पैर लड़खड़ा जाते। जब दो-तीन बार ऐसा हुआ और अन्य भारवाहकों की तरह पालकी को कंधा न दे पाने के कारण भरत रह-रहकर लड़खड़ा जाते तो भीतर बैठे सौवीर नरेश भी उछल पड़ते।

जब तीन-चार बार ऐसा हुआ तो राजा रहूगण ने बाहर देखा। उनकी दृष्टि से ही कहरों ने समझ लिया कि नरेश क्रुद्ध हैं। कहीं एक के किए का दंड सभी को न भुगतना पड़े, इसलिए उन्होंने भरत की गलती के बारे में बता दिया। इस पर सौवीर नरेश ने व्यंग किया—"ओह बंधु! तुम कितने दुर्बल हो गए हो, वृद्धावस्था ने तुम्हें कैसा बना दिया? यह वार्धक्य भी कितना बुरा है? अच्छे-भले मनुष्य को जीर्ण और दुर्बल बना देता है, शायद तुम थके हुए भी हो और प्रतीत होता है कि तुम्हारे साथी भी ठीक से तुम्हारी सहायता नहीं कर पा रहें हैं।"

भरत ने इस बात का कोई उत्तर नहीं दिया। वैसे भी कोई कुछ कहता रहे, चुप रहना उनका स्वभाव था। कुछ दूर आगे चलकर वे फिर लड़खड़ा गए। अब तो राजा क्रोध से विफर उठा—“क्या बात है मूर्ख? तुम्हें मेरी बात समझ में नहीं आई या तुम बहरे हो।”

मौन तोड़कर भरत ने कहा—“राजन्! आपकी पिछली बात मैंने सुनी थी और उसका आशय भी समझा था। मुझे ज्ञात है कि बोझा ठीक से ढोने के लिए होता है और उसे ठीक से ढोना चाहिए। पर मुझे यह समझ में नहीं आता कि आदमी-आदमी के ऊपर ही बोझा क्यों बने?”

राजा को इस उत्तर की आशा नहीं थी। एक साधारण-सा भारवाहक या सामान्य-सा व्यक्ति राजपद कर आसीन व्यक्ति को प्रत्युत्तर दे, एक तो इसी की आशा नहीं थी, उस पर से इतना कड़ा उत्तर, राजा को आग-बबूला कर देने के लिए पर्याप्त था, सौवीर नरेश तुरंत पालकी से उतर पड़े। पालकी से उतरते- उतरते ही उन्होंने अपना खड्ग भी निकाल लिया था। अन्य भारवाहक भय के कारण काफी दूर जाकर खड़े हो गए। राजा रहूगण ने कहा—"रे दुष्ट! तेरी यह धृष्टता। किस से किस तरह व्यवहार करना चाहिए, यह भी तुझे नहीं पता। ठहर, मैं अभी तुझे मारकर किए का मजा चखाता हूँ।”

इस पर भी जड़भरत अविचलित भाव से चुपचाप खड़े राजा की केंद्रित मुद्रा को सदयभाव से देख रहे थे। राजा ने खड्ग तानते हुए कहा—"तुझे अपनी भूल का कोई पछतावा नहीं।’"

"भूल! भूल तो राजन् मैंने भी की है और आपने भी। इस भूल के कारण ही तो हमें इस संसार में पुनः आना पड़ा। पर मेरी भूल बड़ी थी कि मैं जान-बुझ कर मोह में पड़ा।"— भरत ने कहा। 

राजा ने समझा— शायद, यह पागल है और ऐसे प्रलाप कर रहा है। उसने अन्य कहारों की ओर क्रुद्ध दृष्टि से देखा, जिन्होंने भरत को पकड़कर पालकी में जोत दिया था, साथ ही कहा—“तुम लोग हो सही में दंड के भागी। तुमने इस पागल को क्यों पकड़ लिया?”

भारवाहक थर-थर काँपने लगा।

क्रोध के कारण लाल अंगारे हुई आँखों को देखकर भरत और भी सदय हो उठे—"‘राजन्! इन लोगों का कोई दोष नहीं है। आप दंड तो मुझे देने वाले थे। मुझे ही दीजिए न।

अब राजा रहूगण फिर चौंका। कुछ समय पहले पहेलियाँ बुझाने वाला यह व्यक्ति अब कितनी विनम्रतापूर्वक बात कह रहा है। राजा की कुछ समझ में नहीं आ रहा था, तभी भरत ने कहा—"दीजिए न राजा, दंड! आप किसे दंड देने वाले थे। आपने मेरे इस स्थूलशरीर को देखकर ही व्यंग किया था न, लेकिन इसे काटकर तो आप मुझे मार नहीं सकते। जिस तरह आप इस शरीर से धड़ को काटकर अलग गिरा हुआ, छटपटाता देखेंगे उसी प्रकार मैं भी देखूँगा।”

कहते-कहते भरत के मुखमंडल पर सौवीर नरेश को एक तेजस्विता दिखाई देने लगी। जड़भरत कहे जा रहें थे—"शरीर से आत्मा का क्या वास्ता? भूख, प्यास, क्रोध, अभिमान, क्षीणता, पीनता, उसके लिए है जो इद्रियों के स्वाद में लीन है, देहासक्ति में डूबा हुआ है और आसक्ति का दंश मुझे एक बार हो चुका है; इसलिए आप निःशंक निस्संकोच दंड दीजिए।"

ब्रह्मविद्या के इन गूढ़ रहस्यों को सुनकर क्रोधाविष्ट राजा का क्रोध शांत हुआ और वे इतने विस्मित तथा पश्चाताप में दग्ध होने लगे कि उनके सामने धरती-आसमान घूमने लगा। महर्षि भरत के तत्त्वज्ञान ने उनको पूरी तरह पराभूत कर दिया और वे पैरों में गिरकर क्षमा माँगने लगे पूर्णतः अविचलभाव से भरत सौवीर नरेश के क्षण-क्षण बदलते रूप को देख रहें थे और करुणार्द्र हो रहे थे। इधर सौवीर नरेश कहें जा रहे थे—"भगवन्! मैं आपको पहचान न सका। अवश्य ही आप उच्च कुल के योगी हैं। मुझसे जो अपराध हुआ है, उसके लिए मैं क्या प्रायश्चित करूं?”

“अपराध तो तब होता राजन्! जब आप के किए से मुझे वेदना या पीड़ा होती। मुझे तो ऐसा कुछ भी आभास नहीं हुआ फिर आपको कैसे दोषी मानूँ और प्रायश्चित या क्षमा का विधान करने वाला मैं कौन होता हूँ"— भरत ने कहा।

सौवीर नरेश ने अपनी यात्रा वहीं स्थगित कर दी और महर्षि जड़भरत के चरणों में बैठकर ही ब्रह्मविद्या का ज्ञान प्राप्त किया। महर्षि भरत ने कहा— "राजन्! आसक्तिवश ही मुझे मृगयोनि में जन्म लेना पड़ा।

यह आसक्ति ही मनुष्य को तरह-तरह के दुख देती और बंधनों से बाँधती हैं। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि कुल, वंश और पद तो क्या, इस शरीर से आसक्ति न करे। अनासक्त रहकर कर्त्तव्य-कर्म का आचरण करने से मनुष्य जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।"

महर्षि भरत के उपदेश सुनकर सौवीर नरेश को जैसे तमिस्रापूर्ण मार्ग में प्रकाश आलोकित हो उठा और उन्होंने अपना सारा राज्य गुरुचरणों में          दक्षिणास्वरूप समर्पित कर दिया। महर्षि भरत ने यह कहकर राज्यसंचालन का दायित्व राजा रहूगण को सौंप दिया कि कर्त्तव्य समझकर कर्म करो। इसे अपना प्रायश्चित भी समझ सकते हो।


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