॥ ऐसा मद भूल न पीवई जे बहुरि पछताया॥

December 1979

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ब्याह-शादियों और अन्य अवसरों पर शराब पी लेने के कारण बड़ी संख्या में लोगों के मर जाने की घटनाएँ आए दिनों समाचारपत्रों में प्रकाशित होती रहती हैं। उस समय लोग थोड़ी देर तक शराब की हानियों और उसकी बुराईयों की चर्चा करने लगते हैं, पर जिन्हें यह दुर्व्यसन लगा हुआ है, उन पर न तो ऐसी घटनाओं का कोई प्रभाव पड़ता है और न इसके बाद होने वाली चर्चाओं का ही। मद्यपान के दुर्व्यसन वाले व्यक्ति ऐसे अवसरों  पर यह कहकर छुटकारा पा लेते हैं कि इन लोगों ने घटिया किस्म की शराब पी होगी अथवा ज्यादा पी ली होगी या सहन नहीं कर सके होंगे, इस कारण यह दुर्घटना घटी।

ऐसे तर्क अपने व्यसन को बुरा सिद्ध न होने देने के लिए ही दिए जाते हैं। अन्यथा शराब कैसी भी और कितनी भी क्यों न हो, स्वास्थ और बुद्धि पर निश्चित रूप से अपना दुष्प्रभाव डालती है। कई लोगों की यह मान्यता है कि यदि थोड़ी मात्रा में शराब का सेवन किया जाए तो उससे भूख खुलकर लगती और पाचनशक्ति ठीक रहती है, शरीर में स्फूर्ति आती है और मानसिक तनाव दूर होता है। ऐसा मानने वाले व्यक्ति सीमित मात्रा में शराब का सेवन करने को कोई बुराई नहीं समझते। पहले कभी चिकित्सा विज्ञान की भी यही मान्यता थी, किंतु जैसे-जैसे इस क्षेत्र में प्रयोग और अनुसंधान किये गए, वैसे-वैसे नए  तथ्य सामने आने लगे और पुरानी मान्यता ध्वस्त हो गई।

कुछ वर्षों पूर्व अमेरिका में संपन्न हुए एलाई निस्ट्रस एंड न्यू रोला निस्ट्स के नेशनल कन्वेशन (राष्ट्रीय सम्मेलन) में सम्मिलित चिकित्सकों ने इस विषय में एक राय व्यक्त की कि किसी भी रूप में ली गई शराब शरीर और मस्तिष्क तक के लिए विष का काम करती है। चिकित्सा विज्ञान में पुष्टिकारक औषधि अथवा खाद्य के रूप में इसकी उपयोगिता किसी भी प्रकार सिद्ध नहीं हुई है, बल्कि इसके कारण पागलपन, मृगी, मानसिक दुर्बलता जैसे विकार उत्पन्न होते है, इसमें कोई संदेह नहीं है।

शराब का घूँट हलक से नीचे उतरते ही आमाशय की श्लेष्मा झिल्ली से छेड़छाड़ करती है, और खून में मिलकर मस्तिष्क तक पहुँच जाती है। मस्तिष्क में पहुँचने के लिए पाँच मिनट से भी कम समय लगता है और वहाँ पहुँचते ही वह मस्तिष्क के उन भावों को निष्क्रिय कर देती है, जो विचार, विश्लेषण और निर्णय करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाहते हैं। मदिरा का जो अंश मस्तिष्क को चेतनाशून्य बनाता और नशा देता है, उसे इथाइल अल्कोहल कहते हैं। यह विशुद्ध रूप से बेहोश करने वाला तत्त्व है। जब शराब के माध्यम से अल्कोहल मस्तिष्क में पहुँचता है तो मस्तिष्क का शरीर और उमंग पर नियंत्रण घटने लगता है तथा धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है। यही कारण है जो, मद्यपान के बाद लोग मस्ती में झूमने लगते हैं। चूँकि उनकी समीक्षाशक्ति दुर्बल या निष्क्रिय पड़ जाती है तो वह अपने और दूसरों के बारे में न जाने क्या-क्या सोचने लगता है। दुबला-पतला और कृशकाय व्यक्ति भी पीने के बाद अपने को किसी पहलवान से कम नहीं समझता। निरक्षर भट्ट होने पर भी व्यक्ति समझने लगता है, उसे अपनी शक्तियों और स्थितियों के बारे में इतना अधिक भ्रम होने लगता है कि पिया हुआ व्यक्ति यदि कार चला रहा हो और उसे किसी स्थान पर कार पास करनी हो तो वह दो कारों के बीच तीसरी कार खड़ी करने जितनी जगह न होने पर भी अपनी ड्राइवरी का घमंड करता हुआ उस जगह में अपनी कार घुसा ही देता है, भले ही कार में टक्कर लग जाए या खरोंच आ जाए।

शराब पीने पर व्यक्ति थोड़ी स्फूर्ति और उत्साह का अनुभव करता है। इस कारण यह मान लिया गया है कि शराब उत्तेजक है, किंतु सचाई यह है कि शराब से मस्तिष्क उत्तेजित नहीं होता, बल्कि दमित होता है। चूँकि मस्तिष्क का दमन होने के कारण व्यक्ति की चिंता, पीड़ा अनुभव करने की क्षमता भी दमित होने लगती है। इसलिए यह भ्रम होने लगता है कि पीने के बाद अपनी मानसिक एवं शारीरिक क्षमताएँ सहसा बढ़ गईं हैं। शराब जैसे-जैसे आदतन मजबूरी बनने लगती है वैसे-वैसे उसकी मात्रा भी बढ़ानी पड़ती है और यह बढ़ी हुई मात्रा व्यक्ति के विवेक तथा संयम को नष्ट करने लगती है। धीरे-धीरे स्थिति यहाँ तक जा पहुँचती है कि न पिए होने पर व्यक्ति अपना मानसिक संतुलन स्थिर नहीं रख पाता।

सहनशक्ति से थोड़ी अधिक मात्रा होने पर व्यक्ति का अपने शरीर पर भी नियंत्रण नहीं रह पाता, उसकी जबान लड़खड़ाने लगती है, कदम डगमगाने लगता है, कोई वस्तु अपने हाथों से उठाना चाहता है तो उठा नहीं पाता। इससे भी आगे घबराहट होने लगती है। शरीर के विभिन्न अंगों की माँस-पेशियों पर से नियंत्रण और संतुलन हट जाता है। ऐसी स्थिति में आँखों से कोई चीज एक की दो दिखाई देने लगती है। कई बार इस स्थिति में टट्टी-पेशाब भी छूट जाता है और धीरे-धीरे आदमी बेहोशी की ओर बढ़ने लगता है। कुछ और पी लेने पर सांस तथा हृदय की धड़कन भी रुकने एवं बंद होने लगती है। इस दशा में यदि तुरंत उपचार न किया जाए तो मृत्यु तक हो जाती है।

फ्रेंच अकादमी आफ मेडीकल के डाॅ. पैरिर्सन ने सन् 1945 में यह बताया कि, "शराब मस्तिष्क के अतिरिक्त हृदय और रक्तवाहिनियों को भी प्रभावित करती है। उसके कारण रक्तवाहिनी नलिकाएँ फूल जाती हैं, जिससे पीने वाला गर्मी अनुभव करता है और उसका रक्तसंचार बढ़ जाता है। रक्तसंचार बढ़ जाने से पीने वाले का चेहरा भी लाल दिखाई पड़ने लगता है।"

यह लालिमा इसलिए भी दिखाई देती है कि रक्त शरीर के भीतरी अवयवों से चमड़ी की ओर अधिक आ जाता है। इस कारण चमड़ी तपने लगती है और उसकी तपिश बाहर हवा में चली जाती है। इस प्रकार शराब पीने के कारण गर्मी प्राप्त नहीं होती, बल्कि खोती अधिक है। रक्तनलिकाओं में फैलाव आ जाने के कारण शराब प्रायः हृदय रोगों को भी जन्म देती है।

शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों में एक तथ्य यह भी है कि उसे पचाने में पेट की अपेक्षा जिगर को अधिक मेहनत करनी पड़ती है। कुछ एंजाइमों की सहायता से जिगर इथाइल अल्कोहल को आक्सीजन देकर उसे कार्बन-डाई-आक्साइड तथा पानी में बदलता है। इस प्रक्रिया में काफी समय लगता है और शरीर का पोषण करने वाले कुछ बहुमूल्य विटामिन तथा एंजाइम भी इस प्रक्रिया में नष्ट होते है। दूसरे इस प्रकार शराब को पचाने में जिगर को अधिक समय भी लगता है। जितनी मात्रा में एक बार पी ली जाती है, वही काफी देर में रच-पच पाती है। निरंतर या अधिक समय तक पीते रहा जाए तो उतने ही समय में पच पाने के कारण नशा चढ़ा का चढ़ा ही रहता है। कहना नहीं होगा कि इस स्थिति में जिगर पर बहुत अधिक मात्रा में अतिरिक्त भार पड़ता है और उस पर चर्बी चढ़ने लगती है।

इस प्रकार शराब कई प्रकार से मानसिक शक्तियों और शारीरिक क्षमताओं को नष्ट करती है। इसके कारण सर्वप्रथम मस्तिष्क बुरी तरह आक्रांत होता है। इतना अधिक कमजोर हो जाता है कि दैनिक क्रियाकलाप भी ठीक से संपन्न नहीं हो पाते। कई बार तो स्थिति यहाँ तक पहुँच जाती है कि मदयपान करने वाले  स्थायी रुप से पागल हो जाते हैं। शारीरिक-दृष्टि से शरीर का संतुलन नियमन करने वाले सैरे-बेलम कोश क्षतिग्रस्त होते है। फलतः वह पिए हुए हो अथवा न पिए हुए हों, कोई भी काम स्थिरता से नहीं कर सकते। हमेशा डगमगाते ही रहते है। दूसरे मद्यपान के कारण स्नायु तंतुओं को क्षति पहुँचती है। हाथ-पैरों की पेशियाँ दुखने लगती है। कभी-कभी वे सुन्न भी पड़ जाती हैं। इस कारण तथा शराब के कारण शरीर में विटामिन बी.-वन की कमी के कारण लकवा जैसे रोग तक होते देखे गए हैं।

मद्यपान के कारण ‘कोसीकोफ’ नामक मानसिक रोग होने की अधिक संभावना रहती है। इस रोग के शिकार व्यक्ति की स्मरणशक्ति कमजोर पड़ते-पड़ते बहुत क्षीण हो जाती है। नेत्र रोगों के होने का भी भय रहता है, जिसमें एक वस्तु भी दो वस्तुएँ दिखाई देने लगती है। प्रसिद्ध हृदय रोग विशेषज्ञ डाॅ. डब्ल्यू. जी.सी. अम के अनुसार प्रायः सभी शराबियों का हृदय अपने सामान्य आकार से कुछ कम हो जाता हैं और इस कारण उसे साँस लेने में तकलीफ होने लगती है। मद्यपान पेट और आँत की झिल्लियों को भी सीधा नुकसान पहुँचाता है। तेजाब की मात्रा बढ़ जाने से अल्सर की शिकायत होने का डर रहता है। बहुत अधिक पी लेने के कारण कभी-कभी खून की उल्टियाँ भी होने लगती हैं।

बदहजमी और अपच की शिकायत बने रहना तो जैसे शराबी के लिए आम बात है। और इस कारण उसका वजन तेजी से घटने लगता है। मद्यपान के कारण पैंक्रियाज ग्रंथि और पेट को जोड़ने वाली नलिका कभी-कभी सुजन के कारण बंद हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में भयंकर उदरशूल उठता है। रक्तचाप तेजी से गिरने लगता है। अगर तुरंत उपचार न हो तो यह स्थिति जीवन-संकट भी उपस्थित कर देती है। पैंक्रियाज ग्रंथि का यह रोग बराबर बना रहता है और शराब के कारण खराब हो जाने से वह बहुत कम मात्रा में इंसुलिन बनाती है। इस कारण मधुमेह रोग होने की सम्भावना भी रहती है।

मद्यपान के कारण जिगर को होने वाला सिरोसिल बीमारी इतनी भयंकर हैं कि वह छह महीने तक रोगी को बुरी तरह तड़पा-तड़पा कर उसका प्राणहरण कर लेती है। इसके अतिरिक्त हृदय की भाँति ही जिगर का आकार भी फैलने लगता है। मरने वाले शराबियों में 30 प्रतिशत प्रायः जिगर के रोगों से ही मरते हैं, क्योंकि इस विषैले तत्त्व को परास्त करने और उससे संघर्ष करने में शराबी को ही अधिक मेहनत करनी पड़ती है।

ये प्रभाव प्रायः प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देते और न ही ऐसा लगता है कि इनका कारण मद्यपान है। शराब की हानियों को देखने के लिए दैनिक-जीवन में मद्यपान करने वालों की दुर्दशा देखना ही पर्याप्त होता है। जब कोई व्यक्ति शराब पीता है तो उसकी बुद्धि और स्मृति अस्त-व्यस्त हो जाती है। कहावत भी है कि, ‘शराब अदर, तो अक्ल बाहर।’ शरीर और मस्तिष्क का नियंत्रण खोकर शराबी जिस तरह कहीं भी सड़क पर, नालियों में, कूड़े के ढेर पर जिस बुरी स्थिति में पड़े पाए जाते हैं, उन्हें देखकर ही किसी समझदार व्यक्ति को घृणा होने के साथ-साथ, पीने वाले के प्रति दया का भाव भी उत्पन्न होने लगता है। इस स्थिति को लक्ष्य बनाकर ही किसी सत-कवि ने गाया हैं कि ‘ऐसा मद भूल न पीबई, जे बहुरि पछताया।' वस्तुतः शराब पीने के बाद इस तरह की दुर्दशाग्रस्त स्थिति में पड़े व्यक्ति को होश आने पर अपनी स्थिति का पता चले तो वह शर्मिंदा हुए बिना नहीं रह सकता। स्वाभाविक ही उसे पश्चाताप भी होता है।

मनुष्य के शारीरिक, मानसिक और नैतिक स्वास्थ्य को क्रमशः चौपट करने वाली शराब किसी भी दृष्टि से मानव शरीर और जीवन के लिए उपयोगी नही है और न अनुकूल ही सिद्ध होती है। इसके विपरीत यह जीवनीशक्ति, मानसिक क्षमता, आर्थिक और सामाजिक स्थिति तथा नैतिक मूल्यों का विध्वंस ही करती है। अस्तु, मद्यपान को उचित बताने वाले सभी तर्कों और कारणों पर विचार करना चाहिए तथा ऐसे मदमूल से मुक्त ही रहना चाहिए, जिसके अपनाने के बाद पछताने के सिवा और कुछ भी हाथ न लगे। उन व्यक्तियों को भी, जो किसी प्रकार इसके चंगुल में फँस गये हैं, इसकी जकड़ से बाहर निकालना एक श्रेष्ठ परोपकार हो सकता है।



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