प्राचीनकाल में चंद्रवंश में चित्र नामक नरेश हुआ। दक्षिण में समुद्रतटवर्ती द्रविड़ राज्य का वह अधिपति था। वह धार्मिक प्रवृत्ति का था तथा सभी धर्म-मतों का सम्मान करता था।
एक बार पर्यटन के समय अरण्य में उसे एक भव्य आश्रम दीखा। कौतूहलवश राजा चंद्र वहाँ गया। आश्रम के प्रमुख लोगों ने अपने तर्कों से राजा को यह बताया कि," मात्र उनका ही धर्म-मत श्रेष्ठ है।" उन्होंने अपना धर्मग्रंथ दिखाया, जिसमें उल्लेख था कि इस धर्म के मानने वालों का कर्त्तव्य था कि वे अपने इष्टदेव को प्रसन्न करने के लिए अन्य मतावलंबियों का निश्शंक वध करे।
राजा उन दाढ़ी-बाल रखे हुए साधुवेशी चालाकों के जाल में फँस उसी धर्म-मत में दीक्षित हो गया। लौटकर राजधानी पहुँचा तो घोषणा कर दी कि," सभी नागरिक इस धर्म-मत को मानने को बाध्य है। अन्य धर्मावलंबी दंडित होंगे।"
अनेक प्रतिभासम्पन्न लोग, विद्वान, विचारक, धनिक कलाकार आदि जो भिन्न मत रखते थे, यह घोषणा सुन राज्य छोड़ चल दिए। चापलूसों और पाखंडियों की बाढ़ आ गई, जो राजा के मत के कट्टर अनुयायी बने फिरने लगे और मनमानी करने लगे। इस सांप्रदायिकता के परिणामस्वरूप शीघ्र ही राज्य में श्रेष्ठ नागरिकों की कमी हो गई, अव्यवस्था फैलने लगी, राजकोष रिक्त हो चला, उद्योग उखड़ गये, व्यापार-बाजार अनियंत्रित हो गया। विद्वजन उस राजा को नर-पिशाच कहने लगे। जब स्थिति काबू से बाहर हो गई, तब राजा को भूल का भान हुआ, पर शीघ्र ही शत्रुओं ने उस राज्य पर आक्रमण कर दिया। और अव्यवस्थित राज्य को पराजित कर दिया।