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December 1979

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अध्यात्म मान्यताओं के अनुसार सभी प्राणियों में एक ही चेतना का अस्तित्व विद्यमान है। शरीर की दृष्टि से वे भले ही अलग-अलग हों, पर वस्तुतः आत्मिक मान्यता है। विश्वमानस एक अथाह और असीम जलराशि की तरह है। व्यक्तिगत चेतना उसी विचार महासागर (यूनिवर्सल माइंड) की एक नगण्य -सी तरंग है। इसी के माध्यम से व्यक्ति अनेकविध चेतनाएँ उपलब्ध करता है और अपनी विशेषताएँ सम्मिलित करके फिर उसे वापस उसी समुद्र को समर्पित कर देता है।

अब तक इस तरह की अध्यात्म मान्यताओं को कल्पित और मनगढ़ंत समझा जाता था। पर जबसे मनुष्य की अतींद्रिय क्षमताओं के वैज्ञानिक प्रमाण मिलने लगे है, तब से परामनोविज्ञान भी इस दिशा में सक्रिय हुआ और जो निष्कर्ष प्राप्त हुए उनसे उपरोक्त अध्यात्म मान्यताओं की ही पुष्टि होती है। विदेशों में इस विषय पर काफी खोज-बीन हुई है, तथा अनेकों प्रयोग-परीक्षण और अतींद्रिय क्षमताओं के प्रदर्शन किए गए हैं। कुछ वर्ष पूर्व ही मैक्सिको (अमेरिका) में डाॅ. राल्फ एलेक्जेंडर ने इच्छाशक्ति की प्रचंड क्षमता का सार्वजनिक प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन में प्रायः सभी प्रतिष्ठित पत्रों के प्रतिनिधि और अन्यान्य वैज्ञानिक, तार्किक, बुद्धिजीवी तथा संभ्रान्त नागरिक आमंत्रित किए गए थे। प्रदर्शन यह था कि आकाश में छाए बादलों को किसी भी स्थान से किसी भी दशा में हटाया जा सकता है और उसे कैसी भी शक्ल दी जा सकती है। इतना ही नहीं, बादलों को बुलाया और भगाया जा सकता है।

नियत समय पर प्रदर्शन आरंभ हुआ। उस समय आकाश में एक भी बादल नहीं था। पर डाॅ. राल्फ ने देखते ही देखते घटाएँ बुला दीं तथा दर्शकों की माँग के अनुसार पूर्वघोषणा सहित बादलों के टुकड़े अभीष्ट दिशाओं में बिखेर देने तथा उनकी चित्र-विचित्र शक्लें बना देने का सफल प्रदर्शन किया। इस अद्भुत प्रदर्शन की चर्चा उन दिनों अमेरीका के प्रायः सभी अखबारों में मोटे हेडिंग देकर छपी थी। उपरोक्त प्रदर्शन पर टिप्पणी करते हुए एक प्रसिद्ध विज्ञानी ऐलेन एप्रागेट ने ‘साइकोलॉजी’ पत्रिका में एक विस्तृत लेख छापकर यह बताया कि, "मनुष्य की इच्छाशक्ति अपने ढंग की एक सामर्थ्यवान विद्युत-धारा है और उसके आधार पर प्रकृति की हलचलों को प्रभावित कर सकना पूर्णतया संभव है। इसे जादू नहीं समझना चाहिए।"

इच्छाशक्ति द्वारा वस्तुओं को प्रभावित करना अब एक स्वतंत्र विज्ञान बन गया है, जिसे ‘साइकोकिर्नास्त्रस’ कहते है। इस विज्ञान-पक्ष का प्रतिपादन है कि ठोस दीखने वाले पदार्थों के भीतर भी विद्युत अणुओं की तीव्रगामी हलचलें जारी रहती है। इन अणुओं के अंतर्गत जो चेतनातत्त्व विद्यमान है, उन्हें मनोबल की शक्ति-तरंगों द्वारा प्रभावित, नियंत्रित और परिवर्तित किया जा सकता है। इस प्रकार मौलिक जगत पर मनःशक्ति के नियंत्रण को एक तथ्य माना जा सकता है।

अमेरिका के ही ओरीलियो शहर में डाॅ. एलेक्जेंडर ने एक शोध संस्थान खोल रखा हैं, जहाँ वस्तुओं पर मनःशक्ति के प्रभावों का वैज्ञानिक अध्ययन विधिवत किया जा रहा है। कई शोधकर्त्ता और विद्यार्थी इस संस्थान में शोधनिरत हैं। एक व्यक्ति के विचार दूरवर्ती दूसरे व्यक्ति तक भी पहुँच सकते है और वस्तुओं को ही नहीं व्यक्तियों को भी प्रभावित कर सकते है, यह तथ्य अब असंदिग्ध हो चला है। अनायास घटने वाली घटनाएँ ही इसकी साक्षी नहीं है, वरन् प्रयोग करके भी यह संभव बनाया जा सका है कि यदि इच्छाशक्ति आवश्यक परिमाण में विद्यमान हो या दो व्यक्तियों के बीच पर्याप्त घनिष्ठता हो तो विचारों के वायरलैस द्वारा एकदूसरे से संपर्क संबंध स्थापित किया जा सकता है और अपने मन की बात कही-सुनी जा सकती है।

इच्छा और संकल्पशक्ति के आधार पर असंभव लगने वाले दुष्कर कार्य भी किए जा सकते है। सन् १९०२ में बंगाल के एक हठयोगी साधु ने प्रतिज्ञा की कि वह १० वर्षों तक अपना बायाँ हाथ उठाए ही रहेगा, कभी नीचे नहीं गिराएगा और सचमुच ही वह लगातार १० वर्षों तक बिना हिलाए अपना बायाँ हाथ ऊँचा किए रहा। हठयोगी साधु का नाम था—'अगस्तिया'। साधु अगस्तिया के हाथ में इस बीच एक चिड़िया ने घोंसला भी बना लिया और उसमें अंडे भी दिए। हाथ इतना स्थिर रखा जाता था कि चिड़िया को भी संभवतः यह भ्रम हो गया कि वह किसी पेड़ पर रहती है। सो उसने बड़े मजे के साथ योगी के उठाए हुए हाथ की हथेली पर घोंसला बना लिया। योगी अगस्त्य के हाथ की हड्डियाँ सीधी और मजबूत हो गईं। इतने समय तक हाथ उठाए रहने के कारण हड्डियाँ इतनी सख्त हो गईं कि उनका मुड़ना बंद हो गया और इस तरह एक प्रकार से हाथ बेकार ही हो गया। पर योगी का कहना था कि इस प्रतिज्ञा के पालन में उसे जरा भी कष्ट नहीं हुआ। योग की ऐसी साधनाओं के पीछे कोई विशेष सिद्धांत नहीं है। है भी, तो इतना मात्र ही कि तितिक्षा के अभ्यास द्वारा अपनी इच्छाशक्ति को प्रखर बनाया जाए।

शरीर में यदि एक नन्हीं-सी सुई भी चुभ जाती है तो बड़ा कष्ट होता है किंतु सिंगापुर के एक भारतीय योगी ने अपने शरीर में ५० भाले आर-पार घुसेड़ लिए तथा इस स्थिति में भी वह लोगों से हँस-हँसकर बात-चीत करता रहा। लोगों ने कहा—"यदि आपको कष्ट नहीं हो रहा है, तो आप थोड़ा चलकर दिखाइए।" इस पर योगी ने तीन मील चलकर भी दिखा दिया। उन्होंने बताया कि कष्ट दरअसल शरीर को होता है, आत्मा को नहीं। इस योगी का उल्लेख—'ए वंडर बुक ऑफ स्ट्रेंज फैक्ट्स' नामक प्रसिद्ध पुस्तक में भी किया गया है, साथ ही योगी का यह अभिवचन भी कि यदि अनुभव अपने को आप को आत्मा में स्थित कर ले तो जिन्हें सामान्य लोग यातनाएँ कहते है वह कष्ट भी साधारण खेल जैसे लगने लगते हैं।

विंध्याचल के एक योगी गणेश गिरि ने अपने होठों के आगे ठोडी वाले हिस्से में थोड़ी गीली मिट्टी रखकर उसमें सरसों बो दिए। जब तक सरसों उगकर बड़े नहीं हो गए और उनकी जड़ों ने खाल चीरकर अपना स्थान मजबूत नहीं कर लिया तब तक वे धूप में चित्त लेटे रहे। साहिब उल्लाह शाह नामक लाहौर का एक मुसलमान फकीर ६०० पौंड से भी अधिक वजन की मोटी साँकलें पहने रहता था। वृद्ध हो जाने पर भी इतना वजन अभ्यास के कारण भार नहीं बना। पंजाब में आज भी यह फकीर साँकल वाला और जिगलिंग के नाम से याद किया जाता है। उसकी मृत्यु के बाद साँकलों की तौल की गई तो वह 670 पौंड निकलीं।

अन्य देशों में भी अभ्यास द्वारा इच्छाशक्ति बढ़ाने और उसे प्रखर बना लेने के रूप में ऐसी कई विचित्रताएँ देखने को मिल जाती हैं जो इस बात का प्रतीक है कि मनुष्य कुछ विशेष परिस्थितियों में ही शांत, संतुलित, सुखी और संतुष्ट भले ही रहता हो, परंतु इच्छाशक्ति को बढ़ाया जाए तथा अभ्यास किया जाए तो वह अपने को चाहे जिस रूप में बदल सकता है। इंका जाति के राजा अहाहुल्लाया ने अपने कानों में वजनदार छल्ले डालकर उन्हें १५ इंच तक बढ़ा लिया था। उसका शरीर मनुष्यों जैसा होते हुए भी कान हाथी के समान लगते थे। राजा रणजीत सिंह के दरबार में प्रसिद्ध भारतीय योगी संत हरदास ने जनरल वेटुरा के सम्मुख अपनी जीभ को निकालकर माथे का वह हिस्सा जीभ से छूकर दिखा दिया था जो दोनों भौहों के बीच होता है। संत हरदास बता रहे थे कि, "जीभ को मोड़कर गरदन के भीतर जहाँ चिड़िया होता है उस छेद को बंद कर लिया जाए तो योगी मस्तिष्क में अमृत का पान करता है, ऐसा योगी अपनी मृत्यु को भी जीत लेता है।" अंग्रेज जनरल का कहना था कि,"जीभ इतनी लंबी हो ही नहीं सकती।" इस पर संत हरदास ने अपनी जीभ को आगे निकाल दिखा दिया। उन्होंने बताया कि,"कुछ विशेष औषधियों द्वारा जीभ को सूँतकर इस योग्य बना लिया जाता है।"

भारतीय योगी चांगदेव की योगगाथाएँ भारत भर में प्रसिद्ध हैं। एक-एक करके उन्होंने 14 बार अपनी मृत्यु को वापस लौटाया था। उनकी आयु 1400 वर्ष हो गई बताई जाती है। ईसा मसीह के समय से लेकर बारहवीं शताब्दी में संत ज्ञानेश्वर के समय तक उनकी गाथाओं के उल्लेख मिलते है। वह शेर की सवारी किया करते थे और शेर को हाँकने के लिए जहरीले साँप का चाबुक लिए रहते थे। एक बार उन्हें हवा में स्थिर रहने की चुनौती दी गई तब उन्होंने हजारों लोगों के सामने प्रवचन करने का प्रस्ताव किया। एक-एककर चौबीस चौकियाँ रखी गईं और सबसे ऊपरी चौकी पर बैठकर उन्होंने प्रवचन देना आरंभ किया। पीछे उनके पूर्व आदेशानुसार शिष्यों ने एक-एक चौकी नीचे से हटाना आरंभ किया और इस प्रकार सभी चौकियाँ हटा ली गईं। पर चांगदेव वैसे ही २४ वीं चौकी जितनी ऊँचाई पर बैठकर प्रवचन देते रहे। लोगों ने उनकी जय-जयकार की तो वे बोले—"भाइयों! इसमें मेरा कुछ भी बड़प्पन नहीं। योगक्रियाओं के अभ्यास द्वारा मनुष्य चाहे तो पक्षियों की तरह हवा में उड़ सकता है और सितारों की तरह हवा में अधर में लटककर संसार का दृश्य देखता रह सकता है।"

अब तक इस प्रकार की घटनाओं को कपोल-कल्पित समझा जाता था, पर हस्तगत कई प्रामाणिक तथ्य के आधार पर यह प्रतिपादित किया गया है कि मनुष्य अलग-थलग एकाकी इकाई दिखाई पड़ने पर भी वह है, तो उसी का अंश। अपनी बढ़ी हुई इच्छाशक्ति को बढ़ाकर इस संसार के सिरजनहार की तरह समर्थ और शक्तिमान बन सकता है।


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