मनोबलः बलं बलः

December 1979

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भिक्षु संघ के साथ विहार करते हुए भगवान बुद्ध शाल्यवन में एक वटवृक्ष के नीचे बैठ गए। धर्म चर्चा के प्रसंग में एक शिष्य ने उनसे पूछा—भगवन्! कई लोग दुर्बल और साधनहीन होते हुए भी बड़े-बड़े कार्यकर दिखाते है, जबकि अच्छी स्थिति वाले साधनसंपन्न लोग भी उन कार्यों को करने में असफल रहते हैं। इसका क्या कारण है? क्या पूर्वजन्मों के पाप अवरोध बनकर खड़े हो जाते है?

नहीं! तथागत ने कहा और एक कथा सुनाने लगे—विराट नगर के राजा सुकीर्ति के पास लौहश्रृंग नामक एक हाथी था। राजा ने कई युद्धों में इस पर आरूढ़ होकर विजय प्राप्त की थी। शैशव से ही लौहश्रृंग को इस तरह प्रशिक्षित किया गया था कि वह युद्धकला में बड़ा प्रवीण हो गया था। सेना के आगे चलते हुए पर्वताकार लौहश्रृंग जब अपनी क्रुद्ध अवस्था में प्रचंड हुंकार भरता हुआ शत्रु सेनाओं में घुसता था तो देखते ही देखते विपक्षियों के पाँव उखड़ जाते थे।

लेकिन जन्म के बाद जिस प्रकार सभी प्राणियों को युवा और जरावस्था से गुजरना पड़ता है, उसी क्रम से लौहश्रृंग भी वृद्ध होने लगा, उसकी चमड़ी झूल गई और युवावस्था वाला पराक्रम जाता रहा। अब वह हाथीशाला की शोभामात्र बनकर रह गया। उपयोगिता और महत्त्व कम हो जाने के कारण उसकी ओर पहले जैसा ध्यान भी नहीं था। उसे मिलने वाले भोजन में कमी कर दी गई। एक बूढ़ा सेवक उसके भोजन-पानी की व्यवस्था करता, वह भी कई बार चूक कर जाता और हाथी को भूखा-प्यासा ही रहना पड़ता।

बहुत प्यासा होने और कई दिनों से पानी न मिलने के कारण एक बार लौहश्रृंग हाथीशाला से निकलकर पुराने तालाब की ओर चल पड़ा, जहाँ उसे पहले कभी प्रायः ले जाया जाता था। उसने भरपेट पानी पीकर प्यास बुझाई और गहरे जल में स्नान के लिए चल पड़ा। उस तालाब में कीचड़ बहुत था। दुर्भाग्य से वृद्ध हाथी उसमें फँस गया। जितना भी वह निकलने का प्रयास करता उतना ही फँसता जाता और आखिर गरदन तक कीचड़ में फँस गया।

यह समाचार राजा सुकीर्ति तक पहुँचा, तो वे बड़े दुःखी हुए। हाथी को निकलवाने के कई-कई प्रयास किये गए, पर सभी निष्फल। उसे इस दयनीय दुर्दशा के साथ मृत्युमुख में जाते देखकर सभी खिन्न थे। जब सारे प्रयास असफल हो गए, तब एक चतुर सैनिक ने युक्ति सुझाई। उसके अनुसार हाथी को निकालने वाले सभी प्रयत्न करने वालों को वापिस बुला लिया गया और उन्हें युद्ध सैनिकों की वेषभूषा पहनाई गई। वे वाद्ययंत्र मँगाए गए, जो युद्ध अवसर पर उपयोग में लाए जाते थे।

हाथी के सामने युद्ध नगाड़े बजने लगे और सैनिक इस प्रकार कूच करने लगे जैसे वे शत्रुपक्ष की ओर से लौहश्रृंग की ओर बढ़ रहे हैं। यह दृश्य देखकर लौहश्रृंग में न जाने कैसे यौवनकाल का जोश आ गया। उसने जोर से चिंघाड़ लगाई तथा शत्रु सैनिकों पर आक्रमण करने के लिए पूरी शक्ति से कंठ तक फँसे हुए कीचड़ को रौंदता हुआ तालाब के तट पर जा पहुँचा और शत्रु सैनिकों पर टूट पड़ने के लिए दौड़ने लगा। बड़ी मुश्किल से उसे नियंत्रित किया गया।

यह कथा सुनाकर तथागत ने कहा—"भिक्षुओं! संसार में मनोबल ही प्रथम है। वह जाग उठे तो असहाय और अवश प्राणी भी असंभव होने वाले कामकर दिखाता है तथा अप्रत्याशित सफलताएँ प्राप्त करते हैं।”


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118