श्रद्धा सत्यमाप्यते

December 1978

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जीवन को किसी निर्दिष्ट ढाँचे में ढाल देने वाली सबसे प्रबल एवं उच्चस्तरीय शक्ति श्रद्धा है। यह अन्तःकरण की दिव्यभूमि में उत्पन्न होकर समस्त जीवन को हरियाली से सजा देती है। श्रद्धा का अर्थ है- श्रेष्ठता के प्रति अटूट आस्था। यह आस्था जब सिद्धान्त एवं व्यवहार में उतरती है तो उसे निष्ठा कहते हैं। यही जब आत्मा के स्वरूप जीवन दर्शन एवं ईश्वर भक्ति के क्षेत्र में प्रवेश करती है तो श्रद्धा कहलाती है।

आत्म कल्याण चाहने वाले और ईश्वर प्राप्ति के विभिन्न प्रयासों के लिए इस शक्ति का उभार एवं अवलम्बन आवश्यक है। इसके बिना उस महान लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। अपने अन्तरात्मा में बैठे हुए परमात्मा को देखने, उसे प्राप्त करने का उपाय बताते हुए मनीषियों ने इसी श्रद्धा की गरिमा को प्रस्तुत किया है। रामचरित मानस में श्रद्धा को भवानी और विश्वास को शंकर बताया गया है। इन्हीं दोनों की सहायता से भगवान को प्राप्त किया जा सकता है।

श्रद्धा के अभिसिंचन से पत्थर में देवता का उदय किया जा सकता है। हिन्दू संस्कृति में प्रतिभा प्रतिष्ठापित करने तथा उनका पूजा उपासना करने का दर्शन इसी श्रद्धा तत्व पर आधारित है। अपने इष्ट के प्रति अटूट श्रद्धा आरोपित करके ही उपासक, उसके साथ अनन्य एकता स्थापित कर लेते हैं। ईश्वर, कर्मफल, जीवनोद्देश्य कर्तव्यपालन, आत्मा की गरिमा जैसे सत्य तथ्यों पर सघन श्रद्धा रखने वाले लोग ही सामान्य जीवन से उठकर महामानवों, देवदूतों की पंक्ति में बैठ सके हैं।

आध्यात्मिक क्षेत्र की उच्चस्तरीय साधनाओं में श्रद्धा की ही अपरिमेय शक्ति काम करती है। श्रद्धाहीन कर्मकाण्ड तो सामान्य अंग संचालन के व्यायाम के समान ही लाभप्रद हो सकते हैं। किन्तु वे ही श्रद्धा और विश्वास के आधार पर साधना के लक्ष्य प्राप्ति में सिद्धिदायक सिद्ध होते हैं। श्रद्धा भावना न केवल उपासनात्मक क्षेत्र में वरन् जीवन के प्रति अपने दृष्टिकोण तथा उद्देश्य को भी प्रभावित करती है।

जिन लोगों को आस्था मानवीय जीवन की श्रेष्ठता तथा महानता में नहीं होती वे इसे पशुवत् पेट भरने एवं प्रजनन के सुखों तक ही सीमित रखते हैं। उनकी यह अनास्था मानवीय समाज के प्रति अविश्वास ही उत्पन्न करती है।

आस्थाओं की कमी के कारण ही अगणित समस्याएं तथा विविध-विविधा उलझनें खड़ी होतीं और समाज व्यवस्था को विचलित करती हैं। आदर्शों और मर्यादाओं की उपेक्षा होने से ही व्यक्तिगत जीवन में दुष्टता, उद्दण्डता और सामाजिक जीवन में भ्रष्टता अनैतिकता अव्यवस्था पनपती जा रही है। इस विकट परिस्थिति में समाज में रहने वाला हर व्यक्ति स्वयं को विपन्न तथा असुरक्षित पाता है। साधनाओं की विपुल मात्रा और सुखोपभोग के कुबेर जैसे भण्डार भी उसे तृप्त नहीं कर सकते क्योंकि शरीर की अपनी सीमा मर्यादा है केवल उसके ही सुखों की तृष्णा की पूर्ति में जुट पड़ने वालों का भौतिक जीवन तो व्याधि ग्रस्त बनता ही है, अन्तःकरण क्षेत्र में शुष्क, नीरस, भावना विहीन, चिन्ताग्रस्त, द्वेष और आवेशग्रस्त होता जाता है। इस तरह के व्यक्तियों की स्थिति प्रेत-पिशाच से कम नहीं होती। स्पष्ट है यह स्थिति कितनी भयंकरता उत्पन्न कर सकती है। आज पश्चिमी देशों में यही सब हो रहा है।

मनुष्य स्थूल कम सूक्ष्म अधिक है। वह भावनाओं के सहारे पैदा होता, भावनाओं में ही जीवित रहता और भाव जगत में ही विलीन होता है। भावनाओं के प्रति सम्मान ही श्रद्धा है। यह सम्वेदना जहाँ भी होगी वहीं सन्तोष की निर्झरिणी प्रवाहित हो रही होगी। भगवान् कृष्ण ने कहा है :-

सत्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत। श्रद्धा मयोऽयं पुरुषों यो यच्छृद स एव सः॥ गीता 17।3

अर्थात्- हे अर्जुन ! यह सृष्टि श्रद्धा से विनिर्मित है जिसकी जैसी श्रद्धा होती है वह पुरुष वैसा ही बन जाता है अर्थात् बुराइयों के प्रति श्रद्धा व्यक्ति को समस्याओं में कैद कर देती है तो आदर्शों के प्रति आस्था मनुष्य जीवन को सुख-शान्ति और प्रसन्नता से भर देती है।

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