॥ मन एवं मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्ष्यो॥

December 1978

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घटना 21 जनवरी 1793 की है। मादाम लुहरवेट अपने 4 वर्षीय पुत्र आरमण्ड को लेकर फ्रान्स के सम्राट लुई सोलहवें को दिया जाने वाला मृत्युदण्ड देखने गये। लुई सोलहवें की हत्या इतनी नृशंसतापूर्वक की गयी कि वहाँ का वीभत्स दृश्य देखकर आरमण्ड बहुत सहम गया मादाम लुहरवेट अपने बच्चे को लेकर घर लौट आयीं और आरमण्ड खेलने लगा। खेलते-खेलते उसे वह वीभत्स दृश्य याद आया और अचानक बेहोश होकर गिर पड़ा। बेहोश आरमण्ड को अस्पताल ले जाया गया। डॉक्टर ने जाँच की और बताया कि बच्चे के मन पर किसी घटना का बहुत अधिक प्रभाव पड़ा है।

आरमण्ड होश में तो आ गया पर उस घटना का प्रभाव उसके मन मस्तिष्क पर इस बुरी तरह हावी हो गया कि वह सो नहीं सका। एक दिन, दो दिन, सप्ताह, दो सप्ताह, उपचार किया गया। महीनों तक ट्रैंकुलाइजर्स (नींद की औषधि) दी गयी, मालिश भी की गयी। किन्तु नींद नहीं आयी तो नहीं ही आयी।

माता-पिता को इस बात की चिन्ता हुई कि उनके बेटे के स्वास्थ्य पर न सोने के कारण प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। एक दो दिन ही न सोने से मन उद्विग्न हो उठता है। विक्षिप्तता आने लगती है। सामान्य व्यक्ति यदि आठ घण्टे प्रतिदिन नींद न ले तो उन्हें अपना सामान्य जीवन क्रम भी चलाना कठिन हो जाय। परन्तु आरमण्ड को देखकर यह सारी धारणाएं निर्मूल सिद्ध हुईं।

न सोने के बावजूद भी आरमण्ड नियमित रूप से पढ़े, वे और लोगों की तरह शारीरिक श्रम करते। इतना ही नहीं पढ़-लिखकर वकील बन गये। रात में जब लोग सो जाया करते तब भी वह मुकदमों के मजबून तैयार किया करते। आरमण्ड जैक्विस के नाम से विख्यात उपर्युक्त वकील जीवन के अन्तिम क्षणों तक नहीं सो पाये। 71 वर्ष की आयु में आरमण्ड की मृत्यु सन् 1864 में हुई। इस बीच उन्हें एक क्षण को भी नींद नहीं आयी।

इस तरह की और कई घटनाओं को संकलित करने और उनका अध्ययन करने के बाद डॉ0 सोलेमन ने एक पुस्तक लिखी है- “माइण्ड मिस्ट्रीज एण्ड मिरकल्स।” इस पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि मन एक बहुत ही सूक्ष्म रहस्यमयी और अद्भुत शक्तिशाली सत्ता है। उसके रहस्यों को समझ पाना अति दुष्कर है। भारतीय तत्वदर्शन में तो मन को ही सब सफलता असफलताओं का मूल कहा है। यहाँ तक कि उसे ही बन्धन और मोक्ष का कारण कहा गया- “मन एवं मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयो” अर्थात् बन्धन और मुक्ति का कारण यह मन ही है।

उपरोक्त घटना का विश्लेषण करते हुए डॉ0 सोलेमन ने लिखा है- “लुई को दिये गये मृत्यु दण्ड से आरमण्ड की मनश्चेतना इतनी आतंकित या विचलित हो गयी थी कि उसमें 71 वर्ष की आयु तक आरमण्ड को सोने नहीं दिया। परिस्थितियों और घटनाओं से प्रभावित मन शरीर को किस प्रकार नचाता है इसके उदाहरण तो आये दिन देखने में आते ही हैं। क्षुब्ध स्थिति में लटका हुआ विवर्ण चेहरा, चिन्ता और परेशानी के समय नींद का उड़ जाना, प्रसन्नता के समय खिल उठना आदि बातें मन और शरीर के सम्बन्धों को प्रमाणित करती हैं।

यह तो सामान्य जीवन की छोटी-छोटी बातें हैं जिनमें मन का शरीर पर प्रभाव परिलक्षित होता है। अन्यथा मनुष्य का मन बड़ा समर्थ और बलवान है। भगवान् श्रीकृष्ण ने भी कहा है-

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहंचलम्। (गीता 6।35)

अर्जुन! निस्सन्देह यह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है।

सभी शास्त्रकारों और योगी सिद्ध महापुरुषों ने मन को समस्त शक्तियों का भण्डार निरूपित करते हुए इसको कटा हुआ है। बताया है क्योंकि जीवसत्ता और ब्रह्मसत्ता के बीच यदि कोई चेतन सत्ता काम करती है, उन्हें मिलाती है या विलग करती है तो वह मन ही है।

मन की इस शक्ति को भारतीय महर्षि मुनियों ने पहले ही जान लिया था। आधुनिक विज्ञान भी अब उसकी प्रचण्ड सामर्थ्य को स्वीकार करने लगा है। साइकोलॉजी, पेरा साइकोलॉजी, मेटा फिजिक्स और फेथहीलिंग आदि विज्ञान की धारायें मनःशक्ति के ही अध्ययन और शोध की धारायें हैं। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि जिस तरह मनुष्य ने शरीर को भोग की वस्तु मानकर अपने आपको महान आध्यात्मिक सुख सम्पदाओं से वंचित कर लिया है। उसी प्रकार मन जैसी प्रचण्ड शक्ति का उपयोग भी वह केवल लौकिक स्वार्थों और इन्द्रिय भोगों तक ही सीमित रखकर उसे नष्ट करता रहता है।

मन भौतिक शरीर की चेतन शक्ति है। आई के शक्ति सिद्धान्त के अनुसार एक परमाणु से 3,45,960 लाख कैलोरी शक्ति उत्पन्न हो सकती है वस्तुतः एक परमाणु में कितनी शक्ति है इसका तो अभी ठीक-ठीक पता भी नहीं चलाया जा सका है क्योंकि इस क्षेत्र में नित नये रहस्य खुलते जा रहे हैं। फिर भी पदार्थ को शक्ति में बदलने की जितनी सम्भावनायें सामने आयी हैं उनके अनुसार एक पौण्ड अर्थात् 450 ग्राम पदार्थ की शक्ति 14 लाख टन कोयला जलाने पर प्राप्त होने वाली शक्ति होगी।

यद्यपि पदार्थ को पूरी तरह शक्ति में बदल पाना अभी सम्भव नहीं हुआ है। यदि वह सम्भव हो जाये तो 450 ग्राम कोयले से सम्पूर्ण अमेरिका के लिए एक माह तक चलने वाली बिजली तैयार हो सकती है। विज्ञान के लिए पदार्थ को शक्ति में रूपान्तरित करना भले ही सम्भव न हुआ हो परन्तु परमात्मा ने मनुष्य शरीर को इस प्रकार सृजा है कि उसके पास शरीर की विद्युत शक्ति मन के रूप में पहले से ही विद्यमान है। मन शरीर द्रव्य की विद्युत शक्ति ही है और यदि इसका पूरी तरह उपयोग किया जा सके तो 60 किलोग्राम वाले शरीर की विद्युत शक्ति अर्थात् मन की सामर्थ्य पूरे भारत को 10 वर्ष तक विद्युत देती रह सकती है।

डॉ0 बैनेट ने इसी आधार पर मन के लिए कहा है कि यह एक महान विद्युत शक्ति है। इस शीर्षक से उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी है जिसका नाम है ‘माइण्ड ए ग्रेट इलेक्ट्रिकल फोर्स’, इस पुस्तक में उन्हें बहुत सारे तथ्य और आँकड़े दिये हैं तथा बताया है कि इस शक्ति को एक निश्चित दिशा में नियोजित कर दिया जाय तो उसके चमत्कारी परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं।

वेद ने इस शक्ति को “ज्योतिषां ज्योति” कहा है। इसकी प्रचण्ड क्षमता से ही भारतीय योगी ऋषि प्राचीन काल में शून्य आकाश में स्फोट किया करते थे और इसी शक्ति द्वारा समस्त भूमण्डल की मानवीय समस्याओं का समाधान और नियन्त्रण करते थे। शेर और गाय को एक ही घाट पर पानी पिलाने की क्षमता इसी शक्ति में विद्यमान थी।

इस सन्दर्भ में गीताकार ने छठवे अध्याय में एक और महत्वपूर्ण निर्देश दिया है -

आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥5॥ बधुरात्मा त्मनस्वस्य यैनात्मौवात्मनाजित अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतस्मैव शुत्रवत्॥6॥

अर्थात्- आत्मचेतना आप ही अपना मित्र हैं और आप ही अपना शत्रु। आत्मसत्ता जिसे यहाँ मन के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है उस व्यक्ति का तो आप ही अपना मित्र है जिसने जीत लिया है और जिसने मन पर कोई नियन्त्रण नहीं कर रखा है उसके साथ यह आप ही शत्रु की तरह बर्तता है।

मनुष्य इतनी अतुल शक्ति संपत्ति का स्वामी होते हुए भी केवल उसका नियन्त्रण और नियोजन न कर पाने के कारण परमुखापेक्षी तथा दीन बना रहता है। अनियन्त्रित और अपरिष्कृत मन के दुष्परिणाम शक्ति के दुरुपयोग की तरह के ही तो होंगे। आग से खाना बनाया जाय या आग लगायी जाय। बिजली से रोशनी पैदा की जाय अथवा प्राण संकट खड़ा किया जाय, अणुशक्ति का उपयोग मानव कल्याण के लिए किया जाय अथवा नरसंहार के लिए, यह उपयोग की दिशा पर ही निर्भर है। मनःशक्ति को विकृत और घृणित बनाये रखकर उसके दुरुपयोग दुष्परिणाम का आधार ही खड़ा किया जाता है।

हाल ही में हुए प्रयोगों और परीक्षणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि रोगों की जड़ शरीर में नहीं मनुष्य के दूषित मन में है। अमेरिका में रोगियों का मनोविश्लेषण करने के बाद यह पाया गया कि यों तो अधिकांश रोगी मानसिक दृष्टि से अस्वस्थ थे किन्तु पेट के मरीज शत-प्रतिशत रूप से दूषित मनोविकारों वाले व्यक्ति थे। डॉ0 केनन ने जिनकी अध्यक्षता में अमेरिका के डाक्टरों और मनश्चिकित्सकों ने यह अध्ययन किया लिखा है आमाशय को सीधा सम्बन्ध मस्तिष्क के ‘‘आटोनेमिक’’ केन्द्र से होता है। सिंपेथेटिक और पैरासिंपेथेटिक यह ओटोनेमिक केन्द्र के दो भाग हैं जो पेट की क्रियाओं को संचालित करते हैं तथा पाचन रस उत्पन्न करते हैं। यदि व्यक्ति की मनःस्थिति अस्त-व्यस्त और आवेग ग्रस्त होती है तो उसका पेट की क्रियाओं पर विपरीत प्रभाव पड़ता है और उसका पेट हमेशा के लिए खराब रहने लगता है।

यह तो शरीर पर पड़ने वाले मन के प्रभाव का उल्लेख है। समाज में भी रोग, शोक, संहार, युद्ध, दंगे और लड़ाई-झगड़े दूषित मनःस्थिति और विकृत विचारों वाले व्यक्तियों के कारण ही उत्पन्न होते हैं। जितने भी युद्ध और नरसंहार हुए उनके कारण प्रायः ऐसी मनःस्थिति के व्यक्ति ही होंगे। विकृत मनःस्थिति किस प्रकार के अनर्थ उत्पन्न करती है इसका ताजा उदाहरण द्वितीय विश्व-युद्ध है जिसमें दो करोड़ से भी ज्यादा व्यक्ति मारे गये। एक व्यक्ति की क्रूरता, हिंस्रता और अहंवादिता के कारण ही संसार के लाखों लोग अकाल युद्ध के गाल में कवलित हुए। और एक व्यक्ति की परिष्कृत, शुद्ध सात्विक मनःस्थिति का प्रभाव देखना हो तो वह महात्मा गाँधी, अब्राहम लिंकन, मार्टिन लूथरकिंग आदि पुरुषों के रूप में देखा जा सकता है जिन्होंने अकेले ही अपने समाज व संसार में महत्वपूर्ण क्रान्तिकारी परिवर्तन प्रस्तुत किये।

आणविक शक्ति के सदुपयोग और विध्वंस प्रयोगों की तुलना मनःशक्ति से की जा सकती हैं। संसार में सूखते जा रहे ऊर्जा स्रोतों से पूरी तरह चुक जाने के बाद वैज्ञानिकों की आँखें अणुशक्ति की संभावनाओं पर ही टिकी हुई है। अणुशक्ति का विध्वंसकारी रूप कितना भयावह है, यह संसार पिछले विश्व युद्ध में देख ही चुका है और अब जबकि उस क्षेत्र में काफी विकसित तकनीक उन्नत कर ली गयी है तब तो कहा जा रहा है कि दो-पाँच बम ही इस सारी पृथ्वी का जीवन नष्ट करने के लिए काफी होंगे।

मन की शक्ति अणुशक्ति से किसी प्रकार भी कम नहीं है। बल्कि उससे अधिक ही समर्थ और प्रचंड है। इतिहास पुराणों में वर्णित शाप और वरदान की घटनायें इसी मनःशक्ति के विध्वंस और सृजन उपयोगों के उदाहरण हैं। इस तथ्य को भारतीय तत्वदर्शियों ने बहुत पहले ही लिख दिया है-- “मनः मातस देवी चतुर्वर्ग प्रदायकम्’’ -अर्थात् मन की शक्ति में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष दिलाने वाली सभी शक्तियाँ भरी पड़ी हैं, उसकी शुद्ध, सात्विक और विधेयक शक्ति का ज्ञान होने के कारण ही वे प्रातःकाल प्रार्थना किया करते थे-

यस्मान्न ऋत किंचन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिव संकल्प नस्तु

अर्थात्- जिसके बिना संसार का कोई कर्म नहीं हो सकता, वह मेरा मन शिव संकल्प वाला हो।

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