पेड़ तो चल पड़े, पर मनुष्य बैठा है।

December 1978

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‘नेचर मैगज़ीन’ के सितम्बर के 61 वे अंक में श्री हेनरिक हाज ने मेन ग्रोव नामक एक ऐसे वृक्ष का उल्लेख किया है जो यायावर जिन्दगी बिताता है, परिव्राजकों की तरह धूम-धूम कर लोगों में कौतूहल, सौन्दर्य और जीवन का मात्र प्रवास मानने की प्रेरणा देता रहता है।

‘दि ट्री बैट बाक्स’ शीर्षक से लिखे इस लेख को पढ़ने के बाद कुछ क्षणों के लिए ‘कैटर पिलर’ जीव की बात याद आये बिना नहीं रही, यह जीव जब लाख की स्थिति में होता है तो उसकी आँखों के ऊपर से सींग की तरह बर्रो की मूँछ के समान दो बाल फूटते हैं। धीरे-धीरे यह बाल ऊपर बढ़ने शुरू होते हैं और कीड़ा एक पौधे की शक्ल में बदल जाता है। वृक्षों में जीवन और प्रकृति में चेतना का दिग्दर्शन कराने वाला यह बहुत ही कौतूहलवर्द्धक उदाहरण है। चेतना शरीर छोड़ कर बाहर जाने की अपेक्षा अन्तर्मुखी होकर एक वृक्ष का रूप ग्रहण कर सकती है तो शरीर छोड़कर कुछ समय चेतन शरीर, परमाणुओं से बने शरीर, जीन्स प्रसुप्त स्थिति में रहकर नव जीवन धारण की शक्ति संग्रह का वृक्ष वनस्पति का रूप धारण करते हों तो उसमें आश्चर्य क्या? भारतीय योग दर्शन में जीवन की जड़ अवस्था को ही वृक्ष का रूप बताया है, आत्म चेतना की दृष्टि से मानव सत्ता और वनस्पति सत्ता में कुछ अन्तर नहीं हैं। यह वृक्ष उस प्रतिपादन की अगली शृंखला को भी पूरा कर देता है। अर्थात् आत्म सत्ता वाली वस्तु को गतिशील होना चाहिये। वृक्षों के गतिशील होने का यह प्रत्यक्ष उदाहरण है।

इस घुमक्कड़ वृक्ष मैन गाँव की जन्मभूमि मियामी, फ्लैरिड तथा बिस्कैनी की खाड़ी हैं। फ्लैरिडा के कुछ वृक्ष वहाँ से 1000 मील का समुद्री सफर तय करके पेनिनसुला तक तथा कैरेबियन समुद्र से होकर प्रशान्त और हिन्द महासागर के तट तक फैलकर इन्होंने चरैवैति-चरैवैति के शास्त्रीय अभिमत का पालन किया हैं। सम्भवतः अपने इस गतिशील स्वभाव के कारण की यह रोग-शोक से मुक्त परमात्मा की सृष्टि के मात्र दृष्टा होने का आनन्द लेते रहते हैं।

जिन दिनों भारत वर्ष में वानप्रस्थ परम्परा थी, सामान्य गृहस्थ उन्हें अत्यधिक सम्मान दिया करते थे उसके पीछे उनका तपस्वी और जन प्रवाह के विपरीत नैसर्गिक जीवन की साधना जुड़ी रहती थी। पेट और प्रजनन का जीवन पीने और मनुष्य जीवन की चादर को दाग धब्बों से गन्दी कर लेने वालों को यह तपस्वी ही सच्ची शान्ति का आध्यात्मिकता का पाठ पढ़ाते थे और स्वयं सांसारिक रोग-शोक और प्रकृति की प्रतिकूलता से पड़ने वाली कठिनाइयों में भी आनन्द भरा जीवन जिया करते थे। यह विशेषताएं अब मनुष्य समाज से तो नष्ट हो गई है, पर इस वृक्ष के जीवन में परिव्राजक की इस पवित्रता का ही प्रभाव है कि वह तूफानों, ज्वार-भाटों में भी अपनी सत्ता-सामर्थ्य को बनाये रखता है, विलक्षण साम्य यह है कि न तो भरण-पोषण का कोई आधार परिव्राजक के पास होता है और न ही, इस वृक्ष के पास। क्योंकि चलने वाले वृक्ष की जड़ें स्थिर हो ही नहीं सकती। समाज अपनी सेवा के बदले, सन्त के निर्वाह की व्यवस्था आप करता है। इसी तरह समुद्र का सौन्दर्य बढ़ाने वाले इस मैनग्रोव के लिए जीवन व्यवस्थाएं समुद्र से उसे स्वयं मिल जाती हैं। खारे पानी में अन्य वृक्ष उसी तरह नहीं पनप सकते जिस तरह हर क्षण सुविधाओं के परावलम्बी थोड़ी-सी कठिनाइयों से ही घबरा उठते हैं दूसरी ओर उसी पानी में यह वृक्ष अपना गुजारा आसानी से कर लेते हैं शुद्ध पानी की कमी को यह पौधे अपनी पत्तियों से संचित जलकणों से उसी तरह पूरी कर लेते हैं। जिस तरह मरुस्थल के ऊँट शरीर में बनी थैली में संचित जल से।

यह वृक्ष प्रारम्भ में तट के कीचड़ वाले भागों में पैदा होता है विचारवान् व्यक्तियों के द्वारा इन्द्रिय लिप्सा और सांसारिक सुखों से विरक्ति की तरह यह पौधे ठंडक में ठिठुरते रहने की अपेक्षा परिव्राजन की उष्णता का आनन्द लेते हुए वहाँ से समुद्र की ओर चल देते हैं। इनकी जड़ों में एक विलक्षण प्रक्रिया होती है ऊपर से हवा कीचड़ के भीतर जड़ को जाती है जिससे जड़ों में उस तरह की क्रिया होती है जिस तरह रेंगने वाले कीड़े अपनी पीठ वाले हिस्से को उठा कर चिमटी की-सी आकृति बना लेते हैं। फिर सिर की तरफ का भाग आगे बढ़ाते हैं। इसी तरह वे एक लम्बी यात्रा करते रहते हैं। सामान्य अवस्था में मैनग्रोव की जड़ें जहाज द्वारा लंगर डाल लेने के समान कीचड़ को पकड़े रहती है और वायु द्वारा कीड़े की तरह जड़ें आगे भी बढ़ती रहती हैं। यह गति यद्यपि मन्द होती है, पर कुछ ही समय में वे जाने कहाँ से कहाँ चले जाते हैं। बुद्ध द्वारा आपातकालीन प्रव्रज्या आन्दोलन के लिए सैकड़ों परिव्राजक एक साथ धर्म चक्र प्रवर्तन के लिए झोंक देने का परिणाम यह हुआ कि उस समय विकराल रूप धारण किये अश्रद्धा अन्धविश्वास, अधार्मिकता और अपवित्रता का असुर वहीं रोक दिया गया। इस वृक्ष ने भी एक बार द्वितीय विश्व युद्ध के समय अमरीकी सैनिकों को बर्बर आक्रमण से रोक दिया। जिस समय अमरीकी नौ सैनिक आग बढ़े इन वृक्षों की पूरी की पूरी कालोनियाँ आगे सामना करने के लिए उसी तरह डटी पाई गईं जिस तरह युग निर्माण मिशन के परिव्राजक युग की अन्ध तमिस्रा से जूझने के लिए उठ खड़े हुए हैं।

परिव्राजन के विकास का अपना विलक्षण इतिहास है। मैनग्रोव वृक्ष की वंश वृद्धि भी वैसी ही प्रेरणाओं से भरी हुई है। कोई यह न समझ ले कि यह पौधे बौने होते होंगे। इनकी पूरी ऊँचाई सौ-सौ फुट तक होती हैं। ज्ञान से परिपक्व परिव्राजक जब क्षेत्रों में जाते हैं तो उन प्रतिभाओं और विभूतियों को जो, क्षमतावान् होकर भी युग के अन्धे प्रवाह में बहते रहते हैं, झकझोर कर जगा देते हैं और उन्हें लोक मंगल की दिशा में चल पड़ने के लिए विवश कर देते हैं। यह कार्य वे उनके हृदयों में परमात्मा द्वारा सौंपी गई मानवीय गरिमा के बोध और मानवीय पतन व पीड़ा के प्रति संवेदना के अंकुर जगा कर करते हैं। ऐसे ही यह वृक्ष भी हैं। पीले रंग के फूलों से आच्छादित इस वृक्ष के फल जब पकते है तो उन फलों में अंकुर भी डाल में लगे-लगे ही फूट पड़ते हैं। जब तक यह अंकुर आठ दस फुट के नहीं हो जाते तब तक पौधे की डाल से उसी तरह लगे रहते है जिस तरह परिव्राजक योग्य व्यक्तियों को आत्मोत्कर्ष के संदेश देकर तब-तक पकाते रहते है, जब तक उनकी घनिष्ठता, श्रद्धा और निष्ठा में परिणत नहीं हो जाती। इस तरह अंकुरित फल एक धड़ाके के साथ टूटता है और 10-12 इंच का नुकीला अंकुर तेजी से समुद्र की गहराई में धँसता चला जाता है। यदि उसने धरती पाली तो वही से नये वृक्ष के रूप में पनपना प्रारम्भ कर देता है। कदाचित ऐसा न हुआ तो वे फिर जल की ऊपरी सतह में आकर तैरना प्रारम्भ कर देते हैं। तैरते-तैरते वे एक संगठन बना कर काम करने की तरह कई ऐसे अंकुरित फल मिलकर कालोनी बना लेते हैं और जहाँ कहीं उचित स्थान मिला वहीं अपनी जड़ें जमाकर आत्म विकास प्रारम्भ कर देते हैं।

हजारों की संख्या में इस तरह यह वृक्ष पैदा होते, आगे बढ़ते हुए मनुष्य को अध्यात्म की, गतिशीलता की, पवित्रता की, कर्त्तव्य-निष्ठा की प्रेरणा देते रहते हैं। पर मनुष्य अपने कर्त्तव्यों से इतना निष्ठुर हो गया है कि युग की पीड़ा सुनकर भी जागता नहीं। जड़ बना बैठा है।


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