प्रार्थना का अर्थ माँगना नहीं है।

December 1978

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ईश्वर सर्वशक्तिमान है और उस सर्वशक्तिमान सत्ता से मनुष्य इसीलिए सम्बन्ध सम्पर्क जोड़ना चाहता है कि वह उसका लाभ अपने स्वार्थ को पूरा करने में उठा सके। यही कारण है कि इस सर्वशक्तिमान सत्ता के अति निकट रहते हुए भी जैसा का तैसा ही बना रहता है और अपना मूल्य ईश्वर की दृष्टि में गिरा देता है।

किसी बड़े और प्रतिष्ठित व्यक्ति की गरिमा के अनुरूप ही उससे सहयोग प्राप्त करने की आशा की जाती है और उसके सामने वैसा ही प्रार्थना प्रस्ताव लेकर प्रस्तुत हुआ जाता है। परन्तु लोग अपनी क्षुद्र कामनाओं तथा तुच्छ इच्छाओं को लेकर ईश्वर के पास पहुँचने की बात सोचते हैं तथा उन्हें पूरी करने की प्रार्थना करते हैं।

प्रार्थना- ईश्वर से कुछ माँगना नहीं है परन्तु लोग यही समझते हैं कि प्रार्थना के द्वारा ईश्वर से पुत्र-कलत्र, धन-वैभव, यश-मान मांगा जा सकता है। यह विपर्यय प्रार्थना का अर्थ न समझ पाने के कारण ही होता है। ईश्वर अपने प्रिय पुत्र को जो कुछ दे सकता था, वह श्रेष्ठतम रूप में दे चुका अब वह देखना चाहता है कि उसके पुत्र ने उन उपहारों का मूल्य समझा अथवा नहीं। वह उपलब्ध साधन और शक्तियों का श्रेष्ठतम उपयोग करने में समर्थ हो सका है या नहीं। उसके बाद भी वह अपने पुत्र को रोते, गिड़गिड़ाते, मनुहार करते देखता है और इससे उसे कोई क्षोभ होता होगा तो यही होता होगा कि सृष्टि में अन्य प्राणियों की तुलना में उसे दिये गये सारे उपहार व्यर्थ ही गये। क्योंकि वह उनका मूल्य नहीं पहचान सका।

किसी भक्त के सम्बन्ध में प्रसिद्ध है कि उसके गुरु ने उसे कुछ समय के लिए पारस पत्थर देकर यह कहा था कि वह इससे अपनी गरीबी दूर कर ले। भक्त जानता नहीं था कि पारस पत्थर का क्या उपयोग किया जाय। इसलिए साल भर तक वह पत्थर से तौलने का काम ही लेता रहा। साल भर बाद जब गुरु लौटा तो वह सोचता था कि मेरा शिष्य अब तो काफी सम्पन्न हो गया होगा। परन्तु उसे देख कर निराशा ही हुई कि भक्त अभी भी मैली कुचैली दुकान पर बैठा चीजें तौल रहा है और अपनी गरीबी का रोना रो रहा है। यह पूछा जाने पर कि पारस पत्थर का क्या किया? शिष्य का उत्तर था- उस से कोई वस्तु तौलने में बड़ी सुविधा हो रही। इससे पहले वह ईंट पत्थर के टुकड़ों से ही चीजें तौला करता था, अतः कठिनाई होती थी। यह पत्थर आ जाने से उसे तौलने में बड़ी सुविधा होने लगी है।

देख कर गुरु को अपने शिष्य की बुद्धि पर बड़ा तरस आया। और वैसा ही तरस परमात्मा को भी मनुष्य पर आता होगा जब वह इतनी श्रेष्ठतम वस्तुएं, समर्थ साधन और प्रचुर सामर्थ्य देने के बाद भी मनुष्य को रोता झींकता देखता है। निश्चित ही ये सुविधा साधन इसलिए मिले हैं कि इनके सहारे वह अपना जीवन सरलता पूर्वक चलाये और सृष्टि उपवन की-शोभा सुन्दरता भी बढ़ाये।

प्रार्थना इस आत्मिक दैत्य के निवारण और परम-पिता परमात्मा से निकट सम्पर्क, सम्बन्ध सान्निध्य स्थापित करने के लिए ही की जानी चाहिए जिसका कि वह सनातन अंश हो। जिसका वह अंश है, उससे तादात्म्य स्थापित कर वह भी उसी के समान समर्थ बन सकता है। छोटे-छोटे नाले, नदियों में मिल कर स्वयं भी नदी स्वरूप हो जाते हैं। आग में पड़कर ईंधन अग्नि स्वरूप हो जाता है, नदियां सागर में मिल कर सागर ही हो जाती हैं। नालों का नदी से संयोग, नदी का सागर से मिलन और ईंधन का अग्नि में प्रवेश, उन्हें उसी रूप में परिणत कर देता है। ठीक उसी प्रकार प्रार्थना भी मनुष्य को उसके अन्तिम लक्ष्य से मिला देती है। विराट् से क्षुद्र को संयोग गति के माध्यम से ही होता है। प्रार्थना को भी गति कहा जा सकता है जो क्षुद्र से महान्, अणु से विराट् तथा जीव से ब्रह्म की ओर चलती है। यही प्रार्थना का अर्थ है याचना नहीं है।

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