अर्चन, पूजन तो बहुत हुए, पर मिला न अब तक परिष्कार!
पत्थर की पूजा से भी क्या, संशोधित होते संस्कार?
जब तक श्रद्धा के फूल न हों, निष्ठा गंगा के कूल न हों!
इस अखिल विश्व की पीड़ा से, उठता अन्तर में शूल न हो!!
कैसे पा जाओगे प्रज्ञा? मनु सत! सुन लो हो सावधान!
पौरुष विहीन को भिक्षा में-मिलता न कभी भी दिव्य दान!!
भिक्षा से किसको शक्ति मिली, क्यों मांग रहा फिर व्रतीदान? पौरुष प्रतीक! पुरुषार्थ करो, बन सकते हो, हिमगिरि समान!
दीनता त्याग, करके अपनी रे! छेड़ पुनः भैरवी राग, सागर के अन्तर में भर दे श्रम से, नव युग का सस्मित-सा विहान!
पौरुष विहीन को भिक्षा में-मिलता न कभी भी दिव्य दान!!
झुकता न यहाँ पर शीश व्यर्थ, श्रम गौरव शीश झुकाते हैं!
युगधारा को जो बदल सकें, वह मानव पूजे जाते हैं!!
वह काल पुरुष कहलाता है, शिव बन विष को जो पीता है!
प्रत्यक्ष देवता तो वह है, जग हित, जग में जो जीता है!!
उसके ही लिए विशेषण हैं ‘‘युग कान्ति’’ ‘‘महामानव’’ महान!
पौरुष विहीन को भिक्षा में, मिलता न कभी भी दिव्य दान!!
-राजेन्द्र कुमार पाण्डेय
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*समाप्त*