वानप्रस्थ नव-युग का प्रमुख आधार

December 1978

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प्राचीन काल में वानप्रस्थ की सामान्य योग्यता दो बातों पर निर्धारित थी एक यह कि आधा आयुष्य पूरा हो गया हो। दूसरा यह कि पारिवारिक उत्तरदायित्व से निवृत्ति मिल गई हो। यह दोनों की शर्तें सामान्य और सौम्य परिस्थितियों की दृष्टि से सही है, पर इन्हें पत्थर की लकीर नहीं समझा जाना चाहिए। विशेष परिस्थितियों के विशेष नियम भी बन जाते हैं आपत्ति काल के लिए शस्त्रों में आपत्ति धर्म का निरूपण हैं। वह सामान्य परिस्थितियों से सर्वथा भिन्न है। महामारी, भूकम्प, अग्निकाण्ड आदि की विशेष परिस्थितियाँ सामने आ जाने पर लोग अपने घरों के सामान्य काम-काज छोड़कर उस विपत्ति से ग्रसित लोगों की सहायता करने दौड़ पड़ते हैं, कोई दुर्घटना घटित हो जाने पर नई आपत्ति का सामना करने की व्यस्तता में स्नान, भोजन, निद्रा जैसे सामान्य नित्य कर्मों की भी उपेक्षा कर दी जाती है। यह आपत्ति धर्म है।

शत्रु का देश पर आक्रमण होने की दशा में सभी नागरिकों को अनिवार्य रूप से सेना में भर्ती होना पड़ता है। सामान्य नियम यह है कि जिसकी इच्छा हो वह अर्जी देकर सेना में भर्ती हो। वे नियम आपत्ति काल में नहीं चलते। सैनिक की निर्धारित आयु से न्यून या अधिक रहने पर भी उन दिनों भर्ती के लिए दबाव दिया जाता है और युद्ध मोर्चे पर जाने की ट्रेनिंग करने की अवधि पूरी न होने पर भी बन्दूक चलाने आदि की थोड़ी सी जानकारी देकर उन रंगरूटों को रण क्षेत्र में भेज दिया जाता है। आपत्तिकाल में, विशेष परिस्थितियों में, ऐसी ही उतावली करनी पड़ती है। विवशता में ऐसी उलट-पुलट का होना आश्चर्यजनक नहीं माना जाता।

भगवान बुद्ध ने स्वयं किशोरावस्था पूरी होते-होते परिव्रज्या लेली थी। उनकी पत्नी भी नव-वधू थी और उसकी गोदी में एक ही नवजात शिशु था। गृह प्रबन्ध सम्भालने का उत्तरदायित्व भी किसी दूसरे को विधिवत् नहीं सौंप सके थे। समय ने उन्हें पुकारा और वे बिना आगा पीछा सोचे चल पड़े। वानप्रस्थ की निर्धारित परम्परा का पालन करने के लिए उन दिनों उतना अवसर ही नहीं था। आपत्ति धर्म का पालन ही उन्हें उपयुक्त लगा। सामान्य प्रचलन के अनुसार समय की प्रतीक्षा करने से असंख्यों का अहित होता था नियम के व्यतिक्रम में तो एक ही परिवार के थोड़े से व्यक्तियों को असुविधा सहनी पड़ती थी। बहुत के लिए थोड़े का त्याग करना ही उस स्थिति ने, विवेक ने सही बताया सो अन्तरात्मा की पुकार पर वे बिना आगा पीछा सोचे युग की आवश्यकता पूरी करने के लिए आत्माहुति लेकर बढ़ ही गये।

न केवल अपने लिए वरन् अन्य सभी भावनाशील लोगों के लिए उन्होंने वह रास्ता खोल दिया न केवल रास्ता खोला वरन् आह्वान भी किया। एक लाख से अधिक भिक्षु और भिक्षुणी उनके जीवनकाल में ही परिव्रज्या की दीक्षा ले चुके थे। वे सभी नव यौवन में प्रवेश कर रहे थे। वानप्रस्थ की निर्धारित तिथि आने में देर थी। उतनी प्रतीक्षा की नहीं जा सकती थी। समय की गुहार कानों को फोड़ती और हृदय को चीरती थी। सामान्य नियम पालन--असामान्य समय में कैसे बन पड़ता? यदि बुद्ध ने इस मर्यादा का व्यतिक्रम न किया कराया होता तो उन दिनों का नैतिक और सामाजिक संकट अपनी सर्व भक्षी विनाश लीला में शालीनता के रहे बचे तत्वों को भी समाप्त कर देता।

गाँधी ने सत्याग्रही सेना में भर्ती होने के लिए स्कूली छात्रों तक का पढ़ाई छोड़कर चले जाने का आमन्त्रण किया। वैसा ही हुआ भी। नियमानुसार लोक सेवा के लिए परम्परागत आयु अधेड़ों की ही होती है। यदि उन्हीं के लिए प्रतीक्षा की गई होती तो सत्याग्रही सेना में जो दो तिहाई नव युवक थे उनमें से किसी को भी प्रवेश न मिलता। ठंडे रक्त वाले वानप्रस्थी जब उस आपत्तिकालीन आवश्यकता को पूरा कर भी न पाते और स्वतन्त्रता संग्राम जीतना तो दूर प्रखर जन शक्ति के अभाव में उनका सरंजाम भी खड़ा न हो पाता। सम्भवतः भगवान बुद्ध के सामने भी ऐसा ही धर्म संकट रहा होगा अगति को प्रगति में बदलने के लिए धर्मचक्र का प्रवर्तन आवश्यक था। उसके लिए समर्थ भुजबल-मनोबल ही अपेक्षित था। वह जहाँ भी दृष्टिगोचर हुआ वहीं उन्होंने अपना अंचल जा पसारा।

समर्थ गुरु रामदास विवाह की वेदी पर कंगन बँधी वधू को बैठी छोड़कर भग दिये थे। आद्य शंकराचार्य की माता पुत्रवधू लाने और पोता गोदी में खिलाने के लिए मचल रही थी, युवक शंकर ने परिवार वालों की इच्छापूर्ण करने के लिए अपने बहूमूल्य जीवन को नष्ट करने से स्पष्ट इनकार कर दिया। ऐसे-ऐसे असंख्य उदाहरण इस संदर्भ के मौजूद हैं कि असामान्य परिस्थितियों का सामना करने के लिए सामान्य परिपाटी काम नहीं आई तो गुरुगोविन्द सिंह जैसे पिताओं ने अपने पुत्रों को बलिदान होने के लिए स्वयं प्रोत्साहित करके भेजा। पतियों को पत्नियों ने तिलक लगाकर रण क्षेत्र में विदा किया है। राजस्थान के एक इलाके में यह प्रथा थी कि घर का एक सदस्य सेना में बना ही रहता था। एक के निवृत्त होने पर उस घर का दूसरा सदस्य उस स्थान को जा संभालता था। युद्ध क्षेत्र में जूझने वाले के स्त्री-बच्चों को परिवार के अन्य सदस्य सँभालते थे।

आयुष्य कितनी है इसका ठिकाना प्राचीन काल के सौम्य जीवन क्रम में तो कुछ था भी। आज का असंयमी और असंतुलित रीति-नीति अपनाकर चलने वाला मनुष्य कब तक जीवित रहेगा। जीवित रहने पर भी मृतक तुल्य अशक्त तो नहीं बन जायगा इसका कुछ ठिकाना नहीं। फिर आधी आयु कितने वर्ष की मानी जाय? कब से परमार्थ की बात सोची जाय? यह प्रश्न उलझा हुआ ही रह जाता है।

आज की परिस्थिति में आज के अनुरूप हल सोचने होंगे। जागृत आत्माएँ यदि वर्तमान आपत्ति काल में परमार्थ प्रयोजनों के लिए अग्रसर होने का अपना उत्तरदायित्व समझती है और उसके लिए सचमुच ही कुछ करने की इच्छुक है तो समस्याओं के समाधान दूसरे ढंग से सोचने होंगे जिनके बच्चे स्वावलम्बी हो गये, उनके सामने और कोई बड़ी अड़चन ऐसी नहीं है जो उन्हें परमार्थ परायण जीवन क्रम अपनाने से रोके। यदि कुछ छोटे बच्चे अभी अपरिपक्व है तो यह देखना चाहिए कि उनके अग्रज क्या उनका दायित्व सँभालने की मन स्थिति में है। यदि हो तो उन्हें पितृऋण चुकाने का अवसर देना चाहिए कि अभिभावकों का उत्तरदायित्व बालकों को स्वावलम्बी बनाने भर का होता हैं इसके बाद संतान को अपना पितृऋण चुकाना पड़ता हैं। आवश्यक नहीं कि वह ऋण सीधा माँ-बाप को ही वापिस किया जाय। छोटे बहिन भाइयों को सँभालने के रूप में भी अभिभावकों का कर्जा चुकाया जा सकता है। यह धर्म परम्परा यदि अपनाई जा सके तो अधेड़ आयु में कुछ बच्चों का उत्तरदायित्व रहते हुए भी युग की पुकार के अनुरूप अनुदान प्रस्तुत करने का अवसर मिल सकता है।

जिनके पास गुजारे लायक संचित पूँजी चल-अचल सम्पत्ति है उसे अनुपयोगी स्थिति में पड़ी न रहने देकर बैंक में जमा कर सकते हैं और उसकी ब्याज से परिवार की निर्वाह व्यवस्था बनाकर निश्चिंततापूर्वक लोक-मंगल के पुण्य प्रयोजनों में लगे रह सकते हैं।

जिन्हें रोज कुँआ खोदना और रोज पानी पीना पड़ता है आवश्यक समय आजीविका उपार्जन तथा शरीर निर्वाह एवं परिवार व्यवस्था में लगाने के उपरान्त भी परमार्थ प्रयोजनों के लिए कुछ न कुछ समय बचा ही सकते हैं। इतना अंशदान भी यदि नियमित रूप से चलता-अवकाश के दिनों को युग धर्म की पुकार को पूरी करने के लिए लगाया जाता रह सके तो उतने भर से भी बहुत कुछ हो सकता है। बूंद-बूंद जमा करने से घड़ा भर सकता है।

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