प्रकृति-उपभोग्य ही नहीं उपास्य भी

December 1978

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मनुष्य की बुद्धि ने जाने वह कौन-सी अभिशापित घड़ी थी जब यह मान लिया प्रकृति जड़ है, उसे चाहे जब जिलाने और चाहे जब सर्वनाश कर डालने का अधिकार है सेवा, सद्भावना, परिपोषण के रूप में प्रकृति को दिये गये अनुदान किस तरह प्रतिफलित होते हैं यह किसी को देखना हो तो बानमुड़ा के राल्फ सेन्डर का इतिहास पढ़ कर देख ले। जिसने केवल मात्र पौधों के प्रति असीम प्यार दुनिया भर के फल−फूल एकत्र करने रोपने की कठिन साधना से भौतिक समृद्धि का शिखर पार कर लिया पर यदि उसके साथ दुर्भावना व्यक्त की जाये तो प्रकृति में इतनी जबर्दस्त सामर्थ्य है कि मनुष्य को परास्त करके ही छोड़ देती है फिर उसे अपने आपमें चाहे जितना शक्तिशाली और सामर्थ्य होने का ही अभिमान क्यों न हो?

बात अमेरिका के एक छोटे से नगर की है। कोरेफोर्ड नामक व्यक्ति के घर के साथ लगा हुआ एक सुन्दर बगीचा था। बगीचे की देख-रेख के लिए उसके पिता ने टोनी नामक एक माली नियुक्त रखा। टोनी उस बगीचे की पूरी तरह देखभाल नहीं करता था तो भी चीकू, अमरूद, आम, नासपातियाँ सभी फल देते थे, तब आज तक की तरह रासायनिक खादों का प्रचलन नहीं हुआ था, गोबर की साधारण खाद और थोड़े बहुत पानी से ही बाग में लगाई जाने वाली सब्जियां उतनी सब्जी देती थीं जिससे पूरा परिवार भरपेट सब्जी खाता था, फल फूल मित्रों और सम्बन्धियों में भी बाँटते थे। सब ओर बड़ी प्रसन्नता बिखेर रखी थी थोड़ी-सी मिट्टी के इन थोड़े से पौधों ने।

दरवाजे के सहन पर उन्हीं दिनों एक पौधा उग आया। यह पौधा मिश्र जाति का था उससे घर की शोभा निखर उठती थी, दरवाजे पर सघन छाया के अतिरिक्त उसमें नन्हें-नन्हें पक्षी बैठ कर प्रातः सायं चहचहाते तो वहाँ प्राकृतिक संगीत का आनन्द प्रवाहित होने लगता। बसंत ऋतु में उसमें फूल लद जाते तो उसके आकर्षण से मधुमक्खियाँ, तितलियाँ दूर-दूर से दौड़े चली आयीं।

अन्याय की सीमा यहीं तक नहीं रही इन लोगों ने उसके नीचे आग जलाना, खाना पकाना भी प्रारम्भ कर दिया जिससे पक्षीगण वहाँ से भाग गये। आत्मीयता की भावना से ओत-प्रोत वृक्ष ने अपनी डालें बढ़ाकर उनके आँगन में भी छाया कर दी तो उन लोगों ने न केवल डालें ही छाँट दी अपितु उसे जड़ से सुखा डालने की गरज से उसकी तमाम सारी जड़ें भी काट डालीं। जिस तरह संत और सज्जन गाली देने वाले के प्रति भी विनम्र हितैषी और मृदुभाषी बने रहते हैं उसी तरह उस वृक्ष ने इतनी व्यथा सहकर भी अपनी प्रवृत्ति रोकी नहीं। उसे न जाने किस शक्ति का बल था जो निरन्तर बढ़ता ही रहा।

इस बीच विलक्षण दुर्घटना घटी, अब तक जो वृक्ष वनस्पति पेड़-पौधे इस परिवार के प्रति आत्मीयता उदारता और सहयोग का भाव रखते थे अपने एक सजातीय के प्रति दुर्व्यवहार देखकर क्रुद्ध हो उठे। अर्थात् उन सब ने असहयोग प्रारम्भ कर दिया। चीकू के पौधे कुम्हला कर सूख गये, अँगूर की बेलों ने फल देना बन्द कर दिया, अमरूदों में कीड़े पड़ने लगे और सब्जियों तक ने फल देने से इनकार कर दिया। लॉन में लगी दूब ने अपने भाइयों का साथ दिया वह भी पीली पड़ गई।

फोर्ड परिवार को बड़ी चिन्ता हुई उसने समझा कि पोषण तत्वों के अभाव में ऐसा हो रहा होगा अतएव मिट्टी की जाँच कराई गई, बोतलों में से नया प्लाज्मा तत्व संग्रहीत किया गया। कीटनाशक छिड़के गये, अच्छी बढ़िया खाद दी गई तो भी परिणाम शून्य रहा। न केवल वनस्पति शास्त्री अपितु रसायनज्ञों, फिजीशियनों तक की सहायता ली गई उनने जो भी उपाय सुझाये सब प्रयोग में लाये गये किन्तु समस्या अपने स्थान से टस से मस नहीं हुई।

कोरेफार्ड ने उस समय की अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए लिखा है- उस समय मैं बगीचे में आता तो मुझे हर पौधा नाराज और बीमार प्रतीत होता, यहाँ तक कि झाड़ियाँ जो मेरे लिए निरर्थक थी वह तक अप्रसन्न दीखती। शायद यह किसी विषाणु (वायरस) के कारण हो, उसकी भी जाँच कराई गई पर था रोग शरीर में नहीं प्रकृति के मन में ही, लगता था अन्यथा वैज्ञानिकों के इतने प्रयत्नों का कोई तो प्रतिफल निकलता। प्रकृति के सम्मुख पराजय का इतना बड़ा दृश्य अन्यत्र देखने में नहीं आया यह बात सम्पर्क में आये प्रत्येक वैज्ञानिक ने स्वीकार की जो पौधे ठीक वैसी ही मिट्टी में अन्यत्र फलते-फूलते उन्हें नर्सरी से लाते ही यह मनोव्यथा लग जाती और पौधा दो दिन में ही कुम्हला कर अपने भाइयों के सविनय अवज्ञा आन्दोलन में सम्मिलित हो जाता। प्रकृति में इतना घनिष्ठ सहयोग यदि कहीं सर जान स्टुअर्ट मिल को देखने को मिल गया होता तो वे ‘प्रकृति में उपयोगिता बाद’ के सिद्धान्त का प्रतिपादन न करते। बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है यह लिखने की अपेक्षा वह छोटे-छोटे लोगों में भी सहयोग की प्रवृत्ति है यह प्रतिपादित करते।

इस बीच पूर्व जन्म के किसी भयंकर अपराध के प्रतिशोध की तरह उस बड़े वृक्ष की जड़ों ने भीतर ही भीतर ऐसा विकास किया कि दरवाजे के खम्भों को ही फाड़ दिया। उससे मकान की चूलें-चरमरा गईं। प्रकृति के इस भयंकर प्रतिशोध के कारण फोर्ड परिवार बुरी तरह भयभीत हो उठा। उन लोगों ने अन्यत्र मकान ले लिया और वह घर ही छोड़ कर चले गये।

उन्होंने देखा कल तक जो पेड़ पौधे कुम्हलाए पड़े थे उन सबमें हर्ष की लहर थी, सब में नूतन चेतनता थी, पौधे बढ़ने लगे फूलने फलने लगे, पक्षी फिर लौट आये, गिलहरियाँ फिर कुतर-कुतर करने लगी, प्रातः सायं पुनः कलख गान होने लगा।

कुछ धार्मिक व्यक्तियों ने कहा फोर्ड! लगता है तुम पिछले जन्मों में कोई पूँजीपति थे और श्रमिकों का शोषण करते थे या कि मिलावट का, कम तौल का, घटिया माल बेचने वाले दुकानदार थे यह इसका प्रतिफल है, कुछ ने इसे बड़े वृक्ष का शाप बताया जो भी हो प्रकृति ने यह दिखा दिया कि मनुष्य के लिए वह अपनी इच्छा से ही उपभोग्य हो सकी है उसकी बर्बरता से नहीं वह इतनी समर्थ है कि मनुष्य उसे जीत नहीं सकता उसकी उपासना से चाहे जितने लाभ ले लें।

प्रकृति परमात्मा को व्यवस्थापिका शक्ति है। यह भूल नहीं करनी चाहिए कि परमात्मा नहीं देखता तो कुछ भी किया जा सकता है। प्रकृति का प्रत्येक तिनका उसका प्रतिनिधि, उसकी सहायक शक्ति है यह मानकर कहीं भी कुछ भी पाप करने से डर कर ही रहना चाहिए उसको उपासना के तो और भी सात्विक परिणाम उपलब्ध किये जा सकते हैं।

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