प्रतिगृह का दान

December 1978

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महर्षि शांखल्यायन तथा महर्षि आत्रेय मुनि अपनी पत्नियों के साथ एकबार पर्यटन करते हुए राजा वृषादर्भि के राज्य में गये। साधना, तपश्चर्या द्वारा सिद्धि प्राप्त कर लेने के बाद इन ऋषियों ने परिव्रज्या ही अपना नित्यकर्म बना लिया था। वे न एक स्थान पर तीन दिन से अधिक रुकते और न ही संध्या के बाद बचने लायक धान्य ही अपने पास संग्रहीत रखते थे।

राजा वृषादर्भि के राज्य में उस वर्ष भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। जिस देश में अन्न का अभाव हो वहाँ भिक्षा नहीं मांगनी चाहिए-महर्षियों ने यह भी अपना नियम बना रखा था। इसलिए वे क्षुधार्त होकर ही घूमते रहे। उन्होंने विचार किया कि कहीं कन्द-मूल मिल जायं तो उन्हें ही आहार रूप में ग्रहण कर क्षुधा शांत की जाय। परन्तु वर्षा के अभाव में कन्दमूल भी कहाँ मिलते? जो थे भी वह लोगों ने खा-पीकर समाप्त कर दिये।

अपने राज्य में महर्षियों के आगमन की बात सुनकर राजा वृषादर्भि उनके पास पहुँचा। साथ में महर्षियों को भेंट में देने के लिए राजा ने पर्याप्त मात्रा में अन्न, स्वर्ण मुद्रायें तथा मूल्यवान रत्न भी ले लिये थे। वृषादर्भि ने महर्षियों से जब यह भेंट स्वीकार करने का आग्रह किया तो आत्रेय मुनि ने कहा- ‘‘राजन्! हमारा नियम है कि हम अगली प्रातः तक के लिए धान्य नहीं रखते और पर्यटन करते हैं। इस रत्नराशि और सम्पत्ति का क्या करेंगे।’’

‘‘भगवन्! आप इन्हें स्वीकार कर लें, मैं इन्हें आपके लिए सुरक्षित स्थान पर रखवा दूँगा और भविष्य में आपको भिक्षाटन की भी आवश्यकता नहीं पड़ेगी। आप जहाँ भी रहेंगे मेरे अनुचर, आपके द्वारा स्वीकृत इस राशि से आपके लिए निर्वाह साधन पहुँचाते रहेंगे।’’-वृषादर्भि ने विनीत भाव से कहा।

‘‘आपका दान और विनय देवानुशासित है राजन् परन्तु हमारी भी विवशता है। हम अपने व्रतों से बँधे हुए हैं’’- अत्रि ने समझाया।

वृषादर्भि ने कहा- ‘‘मैं इसे अपना दुर्भाग्य समझूँगा भगवन् कि आपने मुझे सेवा के अवसर से वंचित किया।’’

संताप मत करो आर्य श्रेष्ठ- शांखल्यायन ऋषि ने कहा- ‘‘यों मान सकते हो कि हमने इसे स्वीकार कर लिया है और फिर, तुम्हें वापस लौटा दिया है।’’

‘‘लेकिन दी हुई वस्तु का प्रतिग्रहण तो नहीं होता इसलिए इसे आप ही रख सकते हैं।’’

‘‘प्रतिग्रहण नहीं होता यह तो ठीक है। परन्तु दान के बाद दक्षिणा भी तो दी जाती हैं।’’

उसके लिए भी प्रस्तुत हूँ! महात्मन्! वृषादर्भि ने कहा।

उस दक्षिणा में हम आपसे एक वचन माँगते है।

‘‘यह छोड़कर कि मैं इसे वापस स्वीकार कर लूं आप कुछ भी आज्ञा दे सकते हैं।’’

‘अस्तु!’ शांखल्यायन ने कहा- ‘‘अपने कुछ योग्य कर्मचारियों को बुलाओ और उन्हें यह धन-धान्य, रत्न राशि सौंपकर इस बात की व्यवस्था करो कि इस राज्य के दुर्भिक्ष पीड़ितों के लिए अन्न-वस्त्र की व्यवस्था हो सके।’’

वृषादर्भि की कल्पना भी नहीं थी कि महर्षि उसे इस प्रकार वाग्जाल में उलझा लेंगे। वह बोले, परन्तु यह तो राजा का दायित्व है। मैं अपनी ओर से दुर्भिक्ष निवारण की व्यवस्था करूँगा।

तुम ठीक कहते हो राजन्! तुम भी अपनी ओर से प्रयास करो परन्तु सेवा पर तो किसी का अधिकार नहीं है। हम तापस हैं- सेवा ही हमारा धर्म है और सेवा की कोई सीमा नहीं हैं। जब जैसी सामर्थ्य हो तब वैसी ही सेवा करना हमारा भी दायित्व है। तुम अपना दायित्व पूरा करो और साथ ही हमें भी अपना दायित्व पूरा करने में सहयोग दो।

अन्ततः वृषादर्भि को ही झुकना पड़ा। और कहते हैं धर्मसत्ता और राजसत्ता के इस संयोग सम्मिलन से प्रसन्न होकर इन्द्रदेव ने वरुण को तुरन्त दुर्भिक्ष निवारण के लिए कहा।

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