चाहे जो बन जायें, इतनी भर ही छुट्टी है।

December 1978

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मानवी सत्ता, असुरता और देवत्व दोनों से मिलकर बनी है। परमात्मा ने यह छूट केवल मनुष्य को ही दी है कि वह चाहे तो दिव्य दैवी प्रवृत्तियाँ अपनाये अथवा आसुरी-पाशविक वृत्ति अपनाकर नरपशु से नर पिशाच बन जाये, यह चयन सुविधा मनुष्य के विवेक की परीक्षा के लिए ही मिली है। वह कौन-सी प्रवृत्ति अपनाता है यह उसकी मनमर्जी की बात है। परन्तु जिस किसी भी वृत्ति को वह अपनाता है उसका पुरस्कार या दण्ड निश्चित रूप से मिलता है।

मनुष्य की प्रकृति में दोनों तत्व विद्यमान हैं। जिस पक्ष को समर्थन, अवसर और पोषण मिलता है वही पक्ष सुदृढ़ हो जाता है। सद्गुण -सद्भाव और सद् विचारों की दिव्य भावनाओं का अभ्यास मनुष्य को देवता बना देता है और इनकी पुष्टि होती जाती है तो व्यक्ति नर से नारायण बनता जाता है। इसके विपरीत यदि वह दुष्ट संगति दुराचरण आसुरी क्रियाकलाप और पाप प्रवृत्तियों को अपनाता है तो धीरे-धीरे निकृष्ट से निकृष्टतम बनता चला जाता है। पशु से भी बढ़कर पिशाच का रूप धारण करता है और जघन्य कृत्य करके ही उसके भीतर बैठा असुर मोद मनाता है। ऐसे कुकृत्य जिन्हें सुनकर ही एक सुहृदय व्यक्ति काँप उठे वह उन नृशंस कृत्यों को अपने अहंकार को पूर्ति समझने लगता है।

1430 ई॰ में ट्रान्सलवानिया के पहाड़ी प्रदेशों के राज्य सिंहासन पर आरुढ़ होने वाला काउण्ट ड्राक्युला ऐसा ही नर पिशाच था। उसने 1476 तक राज्य किया। 46 वर्षों के इस शासन काल में उसने ऐसी ऐसी अमानवीय क्रूरतायें बरतीं कि उसे इतिहासकारों ने ‘लाद दि इम्पेलर’ अर्थात् आदमी के शरीर छेदने वाला कहा। जिस किसी भी व्यक्ति पर वह अप्रसन्न हो जाता उसे सजा देने के लिए वह क्रूरतम तरीका अपनाता था। वह लोगों को लकड़ी के बड़े-बड़े आदम कद खूँटों पर कीलों से ठोकवा देता और उनकी पीड़ा तथा तड़प को देख कर प्रसन्न होता था।

यह उसका मनोरंजन भी था। वह प्रायः अपने महल में प्रीतिभोज दिया करता। भोज की मेज के चारों ओर काठ की बनी सूलियों पर जीवित मनुष्यों के शरीर कीलों से टंगे होते थे। लोग यातना और पीड़ा से चीखते चिल्लाते रहते और उन्हें देख कर ड्राक्युला बड़ा आनन्द विभोर होता हुआ भोजन करता रहता। सड़ती लाशों और और बासी खून की सड़ांध भरी बदबू में ड्राक्युला को जैसे महक-सी आती थी।

दरबार में भी वह इसी प्रकार सूलियों पर जीवित लोगों को कीलों से ठुकवा देता और शासन प्रबन्ध के विभिन्न पहलुओं पर विचार करता रहता। दरबारी बड़े सहमे और डरे रहते थे क्योंकि इससे जरा भी विरोध या अरुचिदर्शा का अर्थ था उनकी भी वही दशा। एक बार किसी नये दरबारी ने ड्राक्युला से कह दिया इन लाशों में बहुत बदबू आती है। उसने ड्राक्युला को यह कार्य कहीं एकांत में करने की सलाह दी ताकि दरबार में आने वालों को दुर्गन्ध का सामना न करना पड़े। ड्राक्युला ने इस सुझाव को सुनकर जोरों से अट्टहास किया और बड़ा उल्लास व्यक्त करते हुए उसने तुरन्त आदेश दिया कि इस आदमी को भी एक खूँटे पर ठोक दिया जाय। वह दरबारी घबरा कर माफी माँगने लगा जीवन दान की दया याचना करने लगा तो ड्राक्युला ने इस पर दयाभाव जताते हुए इतना भर किया कि उसका खूँटा कुछ ऊंचा गढ़वाया और उसे ऊंचे खूंटे पर जड़वा दिया। इस दया को जताते हुए उसने कहा था- ‘‘अब तुम्हें कभी भी दूसरों की बदबू नहीं मिलेगी। घबराने की जरूरत नहीं थी।

ड्राक्युला ने इस प्रकार क्रूरता पूर्वक नृशंस हत्याएं करने के नये-नये ढंग ईजाद किए थे। इससे उसे बड़ा आनन्द आता था। हत्याओं के एक ही तरीके से जब वह ऊब जाता तो दूसरे तरीके भी अपनाने लगा। कई बार वह दूध पीते हुए बच्चों को उनकी माताओं के सामने ही कील से जड़वा देता। माँ बाप के सामने ही उनके अबोध और प्यारे-प्यारे बच्चों को मारकर उन्हें अपने बच्चों का मांस खाने के लिए मजबूर कर देता। एक बार उसने अपने राज्य के सभी गरीब, बूढ़े और बीमार लोगों को सेना द्वारा इकट्ठा कराया तथा उन्हें जिन्दा जलवा दिया।

ड्राक्युला के नाम और आतंक का इतना दबदबा था कि उसकी चर्चा आज भी ट्रांसलवानियां में होती है तो लोग मारे दहशत के चर्चा वहीं बन्द करने का आग्रह करने लगते थे। इतिहासकारों ने ड्राक्युला को अब तक के विश्व का सर्वाधिक क्रूर, नृशंस और अत्याचारी शासक माना है।

कार्पजे ने औसतन प्रतिदिन पाँच व्यक्तियों को फाँसी पर चढ़वाया और फाँसी देखने वह स्वयं वध स्थल पर पहुँचता। फाँसी लगने का दृश्य देखने में उसी बहुत रस आता था। उसके साथ ही वह यह व्यवस्था भी देखता कि मृतकों का मांस खाने के लिए शिकारी कुत्ते तथा दूसरे जानवर यथा समय पहुँचे हैं अथवा नहीं। दया या क्षमा शब्द तो जैसे कार्पजे ने कहीं सीखा ही नहीं था फिर भी वह अपने आपको धार्मिक कहता था।

निष्ठुर नृशंसता के ये दो इतिहास प्रसिद्ध उदाहरण हैं जिनमें केवल, आदमी को मरते हुए देखने का आनन्द लिया जाता रहा। व्यक्तिगत जीवन में भी यह नृशंसता समय-समय पर घुसती रहती है और सामाजिक जीवन में भी विष घोलती रहती है। लेकिन एक बात तय है कि जो व्यक्ति इस प्रकार की अमानवीय क्रूरता को छोटे या बड़े किसी भी रूप में अपनाते है वे जीवन में कभी भी चैन से नहीं बैठ पाते हैं।

इस शताब्दी में नृशंस सामूहिक हत्याओं के लिए हिटलर का नाम बड़ी घृणा और तिरस्कार के साथ लिया जाता है। उसने लाखों निरपराध व्यक्तियों को मरवाया। परन्तु वह जीवन भर चैन से नहीं बैठ सका यहाँ तक कि अपनी छाया से, अपने पदचाप की प्रतिध्वनि तक से डरता रहा। कहते हैं कि वह इतना सशंकित रहता था कि रात में चार-पाँच घण्टे की नींद लेते समय तीन-चार बार उठ बैठता और अपने सिरहाने रखी रिवाल्वर तथा अन्य सुरक्षा प्रबन्धों की जाँच करके देखता।

ऐसे व्यक्ति मरने के बाद भी उसी प्रकृति के बने रहते हैं। अशान्त, व्यक्ति और आत्म प्रताड़ना से आन्दोलित उनका जीवन नाटकीय बन जाता है। बजाय अपनी गलतियों को सुधारने के वे मरने के बाद भी प्रेत पिशाच बन कर लोगों को अपने दुष्ट आचरण द्वारा सताते रहते हैं।

इटली के तानाशाह मुसोलिनी के सम्बन्ध में विख्यात है कि वह मरने के बाद प्रेत बनकर अपने खजाने की रखवाली करता रहा है। युद्ध में हारने के बाद वह अपनी जान बचाकर स्विट्जरलैण्ड की तरफ भागा था। अरबों रुपये की संपत्ति, सोने की छड़ें हीरे, जवाहरात, पौण्ड, पेंस और डॉलरों के रूप में उसके पास जमा थी। लेकिन वह भागने में सफल नहीं हुआ और कम्युनिस्ट सेनाओं द्वारा गोली से उड़ा दिया गया।

इसके बाद उसने प्रेत, पिशाच का रूप धारण कर लिया और अपने खजाने की रखवाली करने लगा। अशरीरी होने के कारण खुद तो वह खजाने का लाभ उठा नहीं सकता था, लेकिन वह दूसरों को भी उसका लाभ नहीं उठाने देना चाहता था। कहा जाता है कि उसी ने प्रेत पिशाच बनकर खुद अपना खजाना छुपाया और उसकी रखवाली करने लगा। जिनने भी उसका पता लगाने की कोशिश की, मुसोलिनी के प्रेत ने उनके प्राण लेकर ही छोड़े। उस खजाने को ढूँढ़वाने और प्राप्त करने के लिए सरकार ने कितनी ही समितियाँ गठित कीं परन्तु सभी खोजी दल अकाल कवलित हो गये।

मरने के बाद उस प्रेत पिशाच पर क्या बीतती होगी यह तो कहा नहीं जा सकता परन्तु व्यक्ति के अपने नृशंस क्रूर कर्म उसे स्वयं तड़पा-तड़पा कर मारते हैं। ट्रांसलवानिया के शासक काउण्ट ड्राक्युला ने अपने जीवनकाल में जिस प्रकार लोगों की नृशंस हत्या की उससे भी भयंकर तरीके से उसे मारा गया। तुर्की सेनाओं ने जब ट्रांसलवानिया को जीतकर ड्राक्युला को बन्दी बना लिया तो उसके शरीर से रोज माँस का एक टुकड़ा काट लिया जाता और वही उसे कच्चा चबाने के लिए मजबूर किया जाता।

जर्मनी के नृशंस-क्रूर न्यायाधीश कार्पेज को कुछ ऐसे लोगों ने पकड़ लिया जिनके सम्बन्धियों को निरपराध होते हुए भी उसने सजा दी थी और फाँसी पर चढ़वाया था। उन लोगों ने कार्पेज एक ऐसे कमरे में छोड़ दिया जहाँ हजारों बिच्छू पहले से ही रख दिये गये थे। कोई तीन दिन में उसकी मृत्यु हुई। उस कोठरी में से कार्पेज की आवाज आना बन्द हुई तब लोगों ने उसे बाहर निकाला। उसके शरीर पर ऐसा कोई स्थान नहीं बचा था जहाँ बिच्छुओं ने दंश नहीं लिया हो।

यह तो हुई बाहरी दण्ड व्यवस्था-प्रतिशोध परक वृत्तांत। इनसे बचा भी जा सकता है। परन्तु परमात्मा ने एक ऐसा न्यायाधीश इसी शरीर में बिठा दिया है जो व्यक्ति के कर्मों को देखता रहता है और यथा समय दण्डित भी करता है। कहते हैं कि मृत्यु के समय अपने जीवन भर के कर्मों की याद आती है और वे स्मृतियाँ व्यक्ति को दग्ध करने लगती हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि पराभव के समय व्यक्ति को अपने सारे क्रूर कर्म याद आते हैं और वह अपने ही कर्मों के प्रेत से डर कर अपने आपका उत्पीड़न करने लगता है।

सेण्ट पीटर्स वर्ग से कुछ मील दूर ग्रेनाइट पत्थरों से बनी एक काटेज में उन्होंने शरण ली। उन लोगों के साथ उनका एक पुराना सेवक बूढ़ा मल्लाह भी था। इवान ने अपनी वासना पूर्ति के लिए सैकड़ों महिलाओं के साथ अनाचार किया था, उनमें से कइयों ने तो आत्महत्या कर ली थी, अनेक अबोध बालिकाएं इस क्रूर कर्म को सहन न कर पाने के कारण मर गयी थीं। यही हाल अन्ना का था, अपने चरित्र पर परदा पड़ा रहे इसलिए उसने अपने बाप और भाई तक को मरवा डाला था।

इसके अलावा भी जागीरदार ने हजारों निरपराध व्यक्तियों को मरवा डाला था। इस काटेज में दोनों को अपने अतीत की याद आने लगी। संयोग की बात यह कि जिस काटेज में उन्होंने शरण ली, वह काटेज कभी इवान का विलास महल रह चुका था। वहाँ का एक पत्थर इवान के क्रूर कर्मों का साक्षी था। ये क्रूर कर्म इतने वीभत्स और भयावह रूप में याद आ रहे थे कि वे सब लोग जिन्हें उसने सताया था, प्रेत बनकर उससे बदला लेने के उतारू लगने लगे। इस स्थिति में इवान ने अपने पत्नी बच्चों को बूढ़े मल्लाह के साथ रवाना कर दिया। रास्ते में अन्ना इतनी विक्षिप्त हो उठी कि अपने कपड़े फाड़ने लगी, बाल नोंचने लगी और नदी पार करते समय नाव में से कूद पड़ी।

इवान का भी यही हाल हुआ। उसने भी आत्म प्रताड़ना या अतीत में किये गये क्रूर कर्मों की स्मृति से बुरी तरह भयभीत होकर नेवा झील में कूदकर आत्म हत्या कर ली। स्मरणीय है दोनों पति-पत्नी अपनी क्रूरता के शिकार व्यक्तियों को नदी, झील में ही फेंका करते थे। शासन और सेना से भले ही वह बच गये परन्तु अपनी अन्तरात्मा में बैठे न्यायाधीश से बचना कहाँ सम्भव रहा ?

तत्वविदों का कथन है कि मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है। वह, चाहे तो देवता भी बन सकता है और यदि चाहे तो नर पिशाच भी। परन्तु इनके परिणामों में चुनाव की कोई सुविधा नहीं हैं। जिन्होंने भी असुरता पकड़ी और नृशंसता अपनायी उन्हें अन्ततः उसका दण्ड भुगतना ही पड़ा। भले ही वे तत्काल अपने अहंकार को सन्तुष्ट कर सके हों पर परिणाम में उससे भी भयंकर यातना तथा इति में उनकी दुखद स्मृतियों के अलावा और कुछ भी नहीं मिल पाया है।

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