अकेलेपन को पहचानिये

December 1978

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परमात्मा ने मनुष्य को इस सृष्टि में अकेला ही भेजा है। जब उसका जीवन समाप्त होता है, मृत्यु सिर आ खड़ी होती है तो उसे यह महायात्रा भी अकेले ही पूरी करनी पड़ती है। जन्म से मृत्यु तक कितने ही संगी साथी बनते हैं। उनसे मित्रता बनती बिगड़ती है। प्रत्येक साथी के साथ बिताये गये क्षणों की जीवन भर से तुलना करें तो अधिकांश जीवन एकांकी ही-उस साथी के बिना ही व्यतीत हुआ प्रतीत होगा।

इस ध्रुवसत्य को जानने के बाद भी अधिकांश व्यक्ति अकेलेपन से डरते हैं। प्रायः लोग एकाकीपन की शिकायत करते रहते हैं। सच्चे मित्रों, अच्छे साथियों का अभाव बताते रहते हैं। कई व्यक्ति जिन्हें कार्य वश घर से दूर जाना पड़ा हो, अक्सर कहते हैं मुझे घर की याद आ रही है, कोई भी तो नहीं जिससे मैं मन की बात कर सकूँ। अपने किसी प्रियजन के विछोह में भी लोग एकाकी महसूस करते हैं। यहाँ तक कि बच्चे भी अपना खिलौना टूट जाने या खो जाने पर वैसा ही अकेलापन अनुभव करते हैं। अपने मालिक या संगी के चले जाने पर पशु भी उदास हो उठते हैं। कहने का अर्थ यह है कि कुछ लोगों को छोड़कर अकेलेपन से सभी घबराते हैं। जबकि अकेलेपन को वरदान की भाँति भुलाया जा सकता है।

एकाकी रह कर कई व्यक्तियों ने आध्यात्मिक, बौद्धिक भावनात्मक और शारीरिक प्रगति की है। कितने ही राजनैतिक कैदियों ने जेल में एकाकीपन का अनुभव नहीं किया वरन् अपने जीवन के महत्वपूर्ण कार्य तथा मूल्यवान अनुभव प्राप्त किये। महर्षि अरविन्द को अलीपुर जेल की कोठरी में कई आध्यात्मिक अनुभूतियाँ हुई थीं। और उन्होंने खाली समय का उपयोग अपने आत्मविकास के लिए योग अभ्यास में किया था। जवाहरलाल नेहरू ने ‘विश्व इतिहास की झलक’ तथा ‘हिन्दुस्तान की कहानी’ नामक पुस्तकें लिखी थीं।

अकेलेपन के कारण ऊबकर कई लोगों के व्यक्तित्व में अनेकानेक कमजोरियाँ भी आ जाती हैं। अकेलापन अनुभव करने के कारण ही प्रायः अतीत की कई दुखद स्मृतियाँ मानस पटल पर उभरने लगती हैं, वर्तमान की कई समस्यायें सामने आने लगती हैं और भविष्य की चिन्ताएं सालने लगती हैं। एकान्त में व्यक्ति अपने आपसे इतना ऊबने घबराने लगता है कि वह अपने आपको भूलने के लिए कई उपाय सोचने अपनाने लगता है। अपनी कमजोरियाँ और व्यक्तित्व की त्रुटियों से लोग इतने हैरान परेशान हो उठते हैं कि मादक द्रव्यों की लत से लेकर एकान्त से भाग कर भीड़ में खोने तक कई अनुचित अवाँछनीय आयामों प्रवृत्तियों में गिरने पड़ने लगते हैं। ये एकाकीपन के कारण उत्पन्न दुष्परिणाम हुए।

एकान्त में चूँकि व्यक्ति अपने आपसे सामने होता है। यदि वह स्वयं को सचमुच अकेला अनुभव करता है तो इस अकेलेपन का मनवांछित दिशा में उपयोग किया जा सकता है। इसलिए महर्षि अरविन्द ने कहा है कि- ‘‘महत्वपूर्ण यह नहीं कि आप अकेले हैं। महत्वपूर्ण यह है कि आप अकेलेपन का क्या उपयोग करते हैं। अकेले होकर आप दुष्टता की सीमा तक भी जा सकते हैं और महानता के शिखर को भी छू सकते हैं।’’

अकेलेपन के प्रति यह संतुलित भाव ही व्यक्ति को एकान्त के क्षणों का सदुपयोग करने की शक्ति प्रदान करता है। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि अकेलेपन का सही विश्लेषण किया जाय और उससे जो भी हो सके लाभ उठाया जाय। अकेले होने का अर्थ यहीं तक सीमित नहीं है कि व्यक्ति के आस-पास कोई नहीं है। यह तो मात्र शारीरिक रूप से अकेला होना ही हुआ जबकि वह चेतना की एक अवस्था है जो शारीरिक रूप से भी हो सकती है और आत्मिक रूप से भी। यह आवश्यक नहीं है कि दूसरों के साथ संगत न होने पर ही व्यक्ति एकाकी हो। कहा जा चुका है कि अकेलापन एक अवस्था है जिसमें किसी की भी उपस्थिति का अनुभव आभास नहीं होता है। अरविन्द ने इसी एकाकीपन को दिव्य की खोज का एक अवसर कहा है।

वृद्धावस्था में अथवा किसी प्रियजन के विछोह के समय अकेलेपन का ज्यादा आभास होता है। वृद्धजन जब अपने व्यवसाय से निवृत्त हो चुकते हैं तब और युवाजन अपने किसी दोस्त या संगी से बिछुड़ते हैं तब और राजनेता या सामाजिक नेता अपने अनुयायियों के विमुख होते हैं तब अपने आपको एक दम एकाकी और विपन्न अनुभव करते हैं। यह विपन्नता इस तथ्य के स्पष्टतः साकार करती है कि हमारा व्यक्तित्व बहिर्मुखी है। यह बात प्रकट करती है कि व्यक्ति साहचर्य का इतना अभ्यस्त हो गया है कि उसके बिना उसका निज का अस्तित्व ही नगण्य प्रतीत होता है।

इन स्थितियों पर विधेयात्मक ढंग से विचार किया जाय तो जीवन और व्यक्तित्व में एक महत्वपूर्ण क्रान्ति आ सकती है। उस समय व्यक्ति अपने सामने नितांत निज के रूप में होता है और अनुभव होता है कि अकेलापन ही सत्य है। सब ओर के आश्रम अवलम्बन मिट जाते हैं तब व्यक्ति को अपने पैरों की शक्ति का आभास होता है और वह निज के बल को ही अन्तिम तथा शाश्वत मान कर आत्मावलम्बी बनने की प्रेरणा प्राप्त कर सकता है- यदि अकेलेपन का विधेयात्मक चिंतन किया जाये तब। सेण्ट जोन ने इसी अकेलेपन की व्याख्या इस प्रकार की है- “यह न समझो कि मुझे यह कहकर डरा सकोगे कि तुम अकेले हो, फ्रान्स अकेला है, पृथ्वी अकेली है, चन्द्रमा अकेला है, सूर्य अकेला है यहाँ तक कि ईश्वर भी अकेला है। मेरा अकेलापन इन सबकी तुलना में ही है क्या?”

स्वामी विवेकानन्द ने कहा है- ‘‘महापुरुष सर्वाधिक शक्तिमान तभी होते हैं जब वे अकेले खड़े होते हैं।” ईसा के सम्बन्ध में विख्यात है कि वे जीवन के अन्त तक बारह-तेरह शिष्य खोज सके थे। उनमें से भी एक ने कुछ सिक्कों के बदले अपने गुरु को पकड़वा दिया था और जब उन्हें फाँसी दी जा रही थी तो बाकी के शिष्य भी उन्हें छोड़ कर चले गये थे। उनका अकेलापन ही उनका सर्वाधिक शक्तिशाली साथी रहा जिसका प्रभाव अभी भी फैलता जा रहा है। कहा जाता है कि -” उनके जीवन भर के कार्य उन्हें अमर बनाने में असमर्थ थे किन्तु सूली ने उन्हें अमर कर दिया।

भगवान बुद्ध से भी किसी ने यही प्रश्न किया था कि- ‘‘आप दिन रात धर्मोपदेश करते हैं। कितने लोग आपकी बात मानते हैं? आपके शिष्यों की संख्या भी तो कुछ नहीं के बराबर है।’’ बुद्ध का उत्तर था- ‘‘न माने मेरी कोई बात और न कोई हो मेरा अनुयायी, परन्तु मेरे लिये इतना ही पर्याप्त है कि मैं स्वयं तो अपने कर्तव्य का अनुगमन कर रहा हूँ।”

आत्मिक रूप से एकाकी होने का आभास व्यक्ति को दिव्य की ओर प्रेरित करता है। वस्तुतः अकेलेपन का पीड़ादायक अनुभव किसी ऐसे साहचर्य की आवश्यकता बताता है कि प्रत्येक व्यक्ति को सनातन, शाश्वत और सुदृढ़ स्थिर साहचर्य चाहिए। अबोध शिशु को भूख लगती है तो वह भूख की आवश्यकता व्यक्त न कर पाने के स्थान पर रोने लगता है। अकेलापन क्यों सालता है! यह न जानने के कारण ही व्यक्ति उद्विग्न, परेशान और व्यथित होता है, इसलिए उसकी चेतना, उसका अस्तित्व किसी दिव्य साहचर्य की मांग कर रहा है। परन्तु लोग उस मांग को न समझ पाने के कारण मिथ्या उपायों में पड़ते हैं। स्मरण रखा जाय कि अकेलापन कोई विपदा नहीं बल्कि एक अवसर है, संकेत है कि हमें दिव्य साहचर्य की आवश्यकता है। उसका सर्वोत्तम उपचार है कि अपने भीतर व चारों और ईश्वरीय अस्तित्व का अनुभव करें, ईश्वर को अपना शाश्वत सहचर और सखा मान लें, जो हमें कभी छोड़ कर न जाये।

श्रीमाताजी ने कहा है- ‘‘कभी न भूलो-तुम अकेले नहीं हो। ईश्वर तुम्हारे साथ है। तुम्हारी सहायता और मार्गदर्शन कर रहा है। वह कभी साथ न छोड़ने वाला साथी है।” अरविन्द का यह कथन कि-अकेलेपन में व्यक्ति या तो संत हो जाता है अथवा दुष्ट। इसी सन्दर्भ में ठीक बैठता है। अकेलेपन के सत्य को पहचाना जाय तो व्यक्ति दिव्य साहचर्य को प्राप्त कर सकता है और उसे उथले ढंग से लिया जाय तो क्षुधार्त अबोध शिशु द्वारा कुछ भी उठा कर मुँह में डाल लेने वाली बात बनती है।

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