कर्म यज्ञ से सिद्धि

December 1978

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जबाला पुत्र सत्यकाम ने गौतम ऋषि के आश्रम में समित्पाणि होकर कहा- पूज्य वर मैं गुरुकुल में रहकर विद्याध्ययन करना चाहता हूँ।

गौतम ने पूछा-’ तुम्हारा कुल गोत्र क्या है ?

‘यह तो मैंने मातुश्री ने नहीं पूछा। पिता के दर्शन तो मैं अपने जीवन काल में कर ही नहीं सका।

तो जा और अपनी माँ से कुल गोत्र पूछ कर आ, महर्षि की आज्ञा पाकर सत्यकाम अपनी माँ के पास गया।

जबाल से जब उसने पूछा तो माँ ने बताया- बेटा, ‘यह तो मैं भी नहीं जानती कि तेरा पिता कौन है। मुझे कभी यह पूछने का समय भी नहीं मिला। क्योंकि मैं अहर्निश अतिथियों की सेवा में लगी रहती थी।’

‘तो फिर मैं आचार्य प्रवर से क्या कहूँ?’

‘कहना कि मेरे पिता के बारे में मेरी माँ भी नहीं जानती। बस इतना ही कहना कि मैं जबाला का पुत्र हूँ और सत्यकाम मेरा नाम है।

सत्यकाम ने आचार्य प्रवर के पास जाकर ऐसा ही कहा। अज्ञात कुल और गोत्र के सत्यकाम की सत्यवादिता को देखकर गौतम ने कहा-वत्स! ब्राह्मण को छोड़कर दूसरा कोई भी इस प्रकार सरलभाव से सत्य नहीं कह सकता। जा थोड़ी-सी समिधा ले आ। मैं तेरा उपनयन संस्कार करूंगा।

समिधा लाकर सत्यकाम ने आचार्य श्रेष्ठ के चरणों में रख दी। उपनयन संस्कार सम्पन्न होने के बाद महर्षि गौतम ने सत्यकाम से कहा-आश्रम में इस समय चार सौ गायें हैं। वे बहुत ही कृश और दुर्बल हैं। तुम उन्हें वन ले जाओ और उनकी सेवा करो। जब तक वे एक सहस्र न हो जायें तब तक तुम वन से मत लौटना।’

गुरुदेव की आज्ञा को शिरोधार्य कर सत्यकाम उन दुर्बल व कृश गायों को लेकर चल पड़ा। गुरुदेव की साक्षी में सत्यकाम ने संकल्प लिया कि जब तक ये गायें एक सहस्र नहीं हो जायेंगी तब तक मैं वापस नहीं लौटूंगा।

सत्यकाम गायों को लेकर वन में चला गया तथा वहाँ एक कुटिया बना कर रहने लगा। प्रातः काल ब्रह्म मुहूर्त में ही उठ जाता और सन्ध्योपासनादि नित्यकर्मों से निवृत्त होने के बाद गायों की सेवा सुश्रूषा में लग जाता। नित्य कर्मों से निवृत्त होने के बाद जो वह निकलता तो सन्ध्या समय ही लौटता। इस बीच वह गायों को नहलाता, कौन गाय अधिक रुग्ण है और किस पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है, आदि बातों का ध्यान रखता।

गुरु द्वारा सौंपा गया कार्य ही साधना व तपश्चर्या बनी गयी थी तथा उसे पूरा करना ही जीवन। इस कार्य के अलावा सत्यकाम को किसी दूसरी बात का विचार भी नहीं आता था। धीरे-धीरे कृश गायें पुष्ट होने लगीं। गौओं ने उस यूथ में वृषभ भी थे। गायों की संख्या भी बढ़ती जा रही थी। एक दिन सत्यकाम को पता चला कि गायों की संख्या एक सहस्र हो गयी है।

तब सत्यकाम ने आश्रम लौट जाने के उद्देश्य से वापस प्रस्थान किया। मार्ग में वृषभ ने ब्रह्मतत्त्व के एक चरण का उपदेश दिया और कहा अगला चरण अग्नि बतायेगा। इस प्रकार क्रमशः वृषभ, अग्नि, हंस और मुद्ग ने ब्रह्म के चारों चरण प्रकाश स्वरूप, अनन्त लक्षणात्मक, ज्योतिष्मान तथा आयतन स्वरूप का उपदेश दिया।

आश्रम लौटने पर आचार्य ने सत्यकाम की तेजपूर्ण दिव्य और ब्रह्मवर्चस् सम्पन्न मुख कांति को देखा तो कहा-‘वत्स तू ब्रह्मज्ञानी के सदृश्य दिखलायी पड़ता है।’

सत्यकाम ने कहा- ‘भगवन्! मुझे मनुष्येत्तरों से विद्या प्राप्त हुई है।’

‘नहीं पुत्र तुमने कर्मयज्ञ से ब्रह्मतत्त्व की लब्धि की है- आचार्य ने कहा और फिर ब्रह्मतत्त्व का विधिवत उपदेश दिया।

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