शक्तियों का क्षरण रोका जाय

December 1978

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पहला सुख-निरोगी काया-सुख शान्तिमय जीवन साधना का पहला सूत्र है, और वही शरीर निरोग, रह सकता है जो सामान्य जीवन क्रम व्यतीत करते हुए शरीर में उत्पन्न होने वाले दोषों का निवारण कर सके, दैनिक जीवन में खर्च होने वाली शक्ति को पुनरार्जित कर सके और प्रतिकूलता जनित विकारों का संशोधन कर सके।

विकारों के निष्कासन और शक्ति के पुनरार्जन का कार्य सशक्त और बलवान शरीर द्वारा ही हो सकता है। अतः स्वास्थ्य साधकों को शरीर शास्त्रियों ने वलमुण्मन्य का उपदेश दिया है, बल की उपासना का अर्थ है संयमित जीवन क्रम अपना कर अपनी शारीरिक शक्ति के अनावश्यक क्षरण को रोकना। जहाँ जीवनी शक्ति का अपव्यय होता रहेगा वहाँ पौष्टिक आहार और स्वास्थ्यप्रद वायु का भी सत्परिणाम प्राप्त नहीं हो सकेगा। जर्मनी के स्वास्थ्य विज्ञानी डॉ0 ग्रेफ का कहना है कि दुर्बलता उपयुक्त शक्ति के अपव्यय का परिणाम है इसी कारण से व्यक्ति आहार के पोषक तत्वों को पूर्णतया समीकृत नहीं कर पाते। दुबला पतला व्यक्ति जितना अधिक प्रोटीन खायेगा उसकी श्वसन क्रिया भी उतनी ही शीघ्रता से होने लगेगी।

इंग्लैण्ड के चार वैज्ञानिकों ने डॉ0 ग्रेफ के इस दावे की प्रामाणिकता का सूक्ष्म अध्ययन करने के लिए और दुर्बलता सम्बन्धी अन्य कारणों की खोज के लिए अनुसंधान किये। इसके लिए तीन दुबले पतले युवकों को परीक्षण का विषय बनाया गया। उन्हें एक अस्पताल में रखा गया और उनके भोजन तथा रहन सहन पर पूर्ण नियन्त्रण रखा गया, ये तीनों युवक शारीरिक रूप से स्वस्थ थे और पिछले तीन वर्षों से बीमार नहीं हुए थे।

डाक्टरों द्वारा निर्धारित दिनचर्या का पालन करते तीनों ने चार दिन में 2100 कैलोरी ऊर्जा प्राप्त की। अगले दस से चौदह दिन तक 4 हजार कैलोरी ग्रहण की। इस बीच प्रतिदिन चार-चार घण्टे बाद एक विशेष मशीन द्वारा इन व्यक्तियों की साँस की गति नापी गयी। दोनों प्रकार की आहार अवधियों में मशीन ने शक्ति के व्यय में कोई परिवर्तन नहीं आँका। निष्कर्षतः डाक्टरों ने इस बात की पुष्टि की- दुर्बलता का कारण आहार में पोषक तत्वों के अभाव की अपेक्षा अनुपयुक्त रहन-सहन और असंयमित जीवन अधिक है।

आयु के अनुसार मनुष्य शरीर के कई घटक बदलते, बनते-बिगड़ते रहते हैं। इन परिवर्तनों को वही शरीर सहन कर सकता है जो सशक्त हो, बलशाली हो। क्योंकि मनुष्य शरीर की आवश्यकताएं उनके भीतर होती रहने वाली आक्सीकरण को निरन्तर प्रक्रिया में पूरी होती रहती है। एक शरीर शास्त्री के अनुसार-” मनुष्य शरीर में निरन्तर जो रासायनिक परिवर्तन होते रहते हैं उनमें सर्वाधिक महत्व औषजन के कार्यों का है-औषजनीकरण की क्रिया से जीवन का क्षय और शरीर का नाश होता रहता है जिसकी पूर्ति ग्रहण किये हुए आहार के द्वारा हुआ करती है। ग्रहण और विसर्जन की प्रक्रिया जब मंद पड़ने लगती है, अथवा इसे सम्पन्न करने वाले अंग क्षीण होने लगते हैं तो जीवनी शक्ति का क्षरण ही क्षरण होता रहता है उसकी पूर्ति नहीं हो पाती।

शरीर का क्षरण कोई ऐसी प्रक्रिया नहीं है जिसकी रोक-थाम न की जा सके। जीवन का आरम्भ लुगदी जैसा एक पदार्थ जिसे जिलेटन कहते हैं, होता है। और यह जिलेटन वृद्धावस्था तक अस्थि के रूप में विकसित होता रहता है। सम्यक् आहार-विहार परिष्कृत आचार विचार द्वार इस प्रक्रिया को लम्बे समय तक जारी रखा जा सकता है।

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