दिलदार पत्थर और संगीतकार रेत

December 1978

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विज्ञान की अधुनातन प्रगति और चन्द्रमा तथा मंगल पर विजय जैसे अभियान-निस्संदेह, यह सिद्ध करते हैं कि मनुष्य संसार का सर्वश्रेष्ठ और बुद्धिशील प्राणी है। यह बात सदा से स्वीकार भी की जाती रही है, परन्तु इसी कारण वह सृष्टि की सर्वोच्च सत्ता सामर्थ्यवान इकाई नहीं हो जाता। फिर भी मनुष्य का स्वभाव, प्रकृति आचार-विचार और संस्कृति पर दिनों-दिन यह दम्भ छाता जा रहा है कि उसकी बराबरी दूसरा कोई प्राणी तो क्या प्रकृति भी नहीं कर सकती। इस दम्भ के कारण ही उसमें स्वार्थ, अनुदारता, अहंकार, अनास्था और अश्रद्धा के बीज दिनों-दिन विकसित होते जा रहे हैं। उदाहरण के लिए यही विचार आम होते जा रहे हैं कि मनुष्य से बड़ा कोई, नहीं है और वह दिनों-दिन और अधिक समर्थ सशक्त होता जायगा।

इसे दम्भ नहीं तो और क्या कहा जायगा कि विपुला प्रकृति के थोड़े से रहस्य हाथ लग जाने पर मनुष्य अपने आपको प्रकृति और ईश्वर से भी बड़ा समझने लगे यह दम्भ ठीक उसी स्तर का है जैसे अनपढ़ लोगों के गाँव में कोई साधारण पढ़ा-लिखा व्यक्ति पहुँच जाय और यह दावा करने लगे कि मैं दुनिया का सबसे बड़ा विद्वान हूँ।

यह दावा दूसरे लोगों की दृष्टि से नितान्त हास्यास्पद ही होगा। कोई व्यक्ति उसके सामने एक जटिल सवाल कर दे और वह उस सवाल को हल न करने के कारण खिसिया उठे, उसी तरह की स्थिति मनुष्य की तब हो जाती है जब प्रकृति उसके सामने ऐसे सवाल कर देती है, जिन्हें वह सुलझा न सके। उस दशा में मनुष्य की अपनी क्षूद्रता और अल्प सामर्थ्य का आभास होता है।

प्रकृति के ऐसे ही रहस्यपूर्ण सवाल जहाँ-तहाँ बिखरे पड़े हैं और उनका हल आज तक कोई भी वैज्ञानिक या बुद्धिशील मेधावी नहीं कर सका। एक ऐसा ही सवाल प्रकृति ने ब्रिटेन के कुछ क्षेत्रों में किया है, ‘पत्थर’ शब्द का उच्चारण करते ही मन में कठोरता, अनभ्यता और अडिगता की कल्पना उभरती है। कठोर, संवेदनहीन और किसी को कष्ट कठिनाई में देखकर भी प्रभावित न होने वाले व्यक्ति को पाषाण हृदय भी कहा जाता है। परन्तु कुछ पत्थर ऐसे भी होते हैं जो कठोर होते हुए भी मुलायम और नभ्य होते हैं। ब्रिटेन के कुछ क्षेत्रों के अलावा ये पत्थर भारत में हरियाणा के चरखी दादरी क्षेत्र में भी पाये जाते हैं।

इन पत्थरों की नभ्यता और लचकीलेपन को देखकर लोगों ने इन्हें ‘दिलदार’ पत्थर नाम दिया है। दिल शब्द का उच्चारण करते ही लोचपन और संवेदनशीलता की कल्पना उभरती है। इस तरह का लचीलापन और कोमलता उन दिलदार पत्थरों में पायी जाती है। इन पत्थरों का कोई रंग नहीं होता और ये सामान्य पत्थरों की तरह अपारदर्शी भी होते हैं परन्तु लचक होने के कारण इनका उपयोग किन्हीं निर्माण कार्यों में नहीं होता।

इन पत्थरों का गठन लाखों कोशों के संघटन से होता है और ये कठोर होते हुए भी हवा, पानी के प्रभाव से छलनी की तरह छिद्रदार बन जाते हैं। इनमें हवा पानी के आने जाने के लिए पर्याप्त स्थान भी होता है। दोनों सिरों को पकड़ कर इन्हें हिलाया जाय तो ये रबड़ की तरह लहराने भी लगते है किन्तु फिर भी ये ठोस होते हैं। इस प्रकार के लोचदार और ठोस पत्थर कैसे बनते हैं, विज्ञान अभी इसको नहीं समझ पाया है।

इसी प्रकार का एक और प्रश्न प्रकृति ने बोलने वाले पत्थर, गाने वाली रेत और गुर्राने वाले टीलों का निर्माण कर दिया है। विज्ञान का सर्वसामान्य सिद्धान्त है कि शब्द की उत्पत्ति प्राकृतिक परमाणुओं के सधान के अतिरिक्त कभी नहीं हो सकती है। दो वस्तुएं टकराती हैं तभी ध्वनि होती है। सृष्टि के जीव-जन्तु अपनी मनमर्जी से सुख यन्त्र द्वारा इच्छानुसार बोल सकते हैं। जीवों का यह बोलना उनकी इच्छा, महत्वाकांक्षा, आवश्यकता और चेतनता का प्रतीक भी कहा जा सकता है।

बच्चों के लिए यह क्षेत्र निषिद्ध घोषित है क्योंकि यह आवाज सुनकर बच्चे डर जाते हैं। ऐसा भी नहीं है कि पास के किसी गाँव में कोई कुत्ते ही भौंकते हो और उनकी प्रतिध्वनि आती हो। इस पहाड़ी के आसपास मीलों दूर तक कोई गाँव नहीं है। आज तक कोई भी वैज्ञानिक उस कारण की खोज नहीं कर पाया कि इस टीले से भौंकने की आवाज क्यों आती है। सदियों से रहस्य ज्यों का त्यों बना हुआ है और अपने विश्लेषण की लम्बे समय से प्रतीक्षा कर रहा है।

इन भौंकने वाले टीलों का विवरण ‘वण्डर बुक आफ द स्ट्रेज फेक्ट्स’ नामक पुस्तक में सविस्तार दिया गया है। इसी पुस्तक में नील नदी के किनारे स्थित कारनक के खण्डहरों में दो घूरती हुई प्रतिमाओं का उल्लेख भी किया गया है ये दोनों प्रतिमाएं लगभग डेढ़ कि॰मी॰ के फासले पर जमी हुई है तथा उनके पास जाने पर ऐसा लगता है जैसे कोई विशालकाय दैत्य घूर रहा हो। इनमें एक प्रतिमा तो पत्थर की तरह चुप खड़ी रहती है पर दूसरी से अक्सर कुछ बोलने की आवाज आती रहती है। पत्थर की मूर्ति क्यों और कैसे बोलती है इसका पता लगाने की हर सम्भव कोशिश की गयी किन्तु अभी तक तो कुछ भी ज्ञात नहीं हो पाया। मूर्ति में कोई रेडियो भी नहीं है जिससे यह अनुमान किया जा सके कि वह अदृश्य शब्द प्रवाहों को पकड़ लेते हों और ध्वनि में परिवर्तित हो जाते हों।

ब्रिटेन के उत्तरी वेल्स प्रदेश के सागर तट पर ऐसी बालू रेत दूर-दूर तक बिखरी पड़ी है जिस पर चलने से मधुर संगीत ध्वनि सुनाई पड़ती है। इस संगीत को सुनकर न कोई भयभीत होता है और न किसी भूत-प्रेत, की आशंका करता है। विपरीत इसके सैकड़ों लोग सुबह शाम जिनमें अधिकांशतः युवा दंपत्ति होते हैं इस रेतीय संगीत का आनन्द प्राप्त करने के लिए आते हैं तथा रेत पर टहलते हैं।

लन्दन विश्व विद्यालय के प्रसिद्ध रसायन शास्त्री डॉ0 कैनेथे रिजवे इस रेतीय संगीत का कारण जानने के लिए उत्तरी वेल्स प्रदेश गये और उन्होंने भी यह संगीत सुना। रेतीय संगीत सुनकर वे भी स्वाभाविक ही विस्मित हुए। उन्होंने इस बालू की अनेक बोरियां भराई और अपनी प्रयोगशाला में ले आये। डॉ0 रिजवे ने इस रेत का अध्ययन करने के बाद यह तो कह दिया कि पैर के दबाव के कारण बालू के रेत आगे पीछे सरकते हैं और ये कण अधिकांशतः समान आकर वाले होते हैं इसलिए उनमें से संगीतमय ध्वनि निकलती है। परन्तु उसी रेत ने प्रयोगशाला में गाने से इन्कार कर दिया। प्रश्न उठता है कि यदि यही कारण था तो वही रेत जो समुद्र तट पर संगीत सुनाती थी, लाख प्रयत्न करने के बावजूद प्रयोगशाला में चुप क्यों हो गयी।

अरब के विशाल मरुस्थल में कई जगह रात के समय ऐसी ध्वनि सुनायी देती है जैसे कोई व्यक्ति रेत के अंधड़ से बने टीले में दब गया हो और कराह रहा हो। उन ध्वनियों को टेप किया गया और प्रयोगशालाओं में सुना गया तो बु-ड-म-बु ड-म-हा ऽऽऽ य ऽऽऽ। की स्पष्ट आवाज सुनायी देती थी।

मध्य एशिया के आठ लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हुए गोबी मरुस्थल के तकला मारान अचल के पश्चिमी छोर पर स्थित अन्दास पादशा नामक स्थान में करुण संगीत सुनायी देता है। यह संगीत कभी-कभी ही सुनाई देता है और अधिक से अधिक पन्द्रह मिनट तक चलता है। अमेरिका की एक रेडियो कम्पनी ने इस करुण संगीत को टेप कर सुनाया तो कुछ ही दिनों में आकाशवाणी केन्द्र को हजारों श्रोताओं ने पत्र लिखे और बताया कि इस संगीत को सुनकर उनका हृदय व्यथा वेदना से भर आया। एक टी0 वी0 कम्पनी ने इस स्थान की टी0 वी0 फिल्म भी उतारी और अपने दर्शकों को बिना किसी कमेंट्री के सुनायी तो दर्शक रोने भी लगे।

प्रश्न यह है कि इस क्षेत्र में जहाँ भूले-भटके ही कोई जाता हो, कौन इतना कारुणिक संगीत सुनाता है। यह संगीत कभी इस टीले से तो कभी उस टीले से सुनाई देता है। वैज्ञानिक इसका कारण भी नहीं खोज पाये हैं।

अफगानिस्तान में काबुल के पास के एक रेतीले मैदान में घोड़ों के दौड़ने और नगाड़ों के पीटने की आवाज आती है जैसे कहीं से घुड़सवार अपने घोड़े दौड़ाते हुए एक नगाड़े को पीटते आ रहे हों।

इसराइल के सिनाई अंचल की तलहटी में स्थित एक पर्वत से घण्टियाँ बजने की आवाज आती है। इसी कारण वह ‘वेल माउण्टेन’ भी कहकर पुकारा जाने लगा है। ईरान के मरुस्थल में कई स्थानों से स्पष्टतः ऐसा संगीत सुनाई देता है जैसे वहाँ कोई बीन बजा रहा हो।

इन स्थानों पर रेत के ऊपर न कोई चलता है न दौड़ता है। फिर यह संगीत कहाँ से आता है। क्या यह भी मृग मरीचिका की तरह कोई संगीत मरीचिका है? लेकिन फिर तो सभी स्थानों पर एक जैसा संगीत सुनाई देना चाहिए जिस प्रकार कि एक जैसी ही मृग मरीचिका दिखाई देती है।

प्रकृति के रहस्य अगम हैं और उससे भी अगम्य रहस्यपूर्ण है चेतन संसार। प्रकृति जब तब मनुष्यों के सामने इस प्रकार के चुनौती भरे प्रश्न खड़े करती रहती है। जिन्हें लाख प्रयत्न करने पर भी बुझा नहीं जा सकता। यह नहीं कहा जा रहा है कि इन रहस्यों को कभी सुलझाया ही न जा सकेगा। सम्भव है आगे चलकर दिलदार पत्थर और संगीतकार रेत का रहस्य सुलझा लिया जाय परन्तु फिर भी ऐसी कितनी ही विचित्रतायें हैं जिन्हें पूरी उम्र तो क्या एक पूरा युग कल्प लगाकर भी नहीं समझा जा सकता। अभी तो यही ठीक से जान पाना सम्भव नहीं हुआ है कि प्रकृति में क्या-क्या है? उसके सम्पूर्ण रहस्यों को समझ पाना तो दूर की बात रही।

जब प्रकृति ही इतनी रहस्यपूर्ण और विचित्र है तो सूक्ष्म चेतना कितनी रहस्यमय होगी? चेतन तत्व कितना गूढ़ होगा? आत्मसत्ता और परमात्म सत्ता के रहस्यों का क्या अनुमान लगाया जा सकता है? और मनुष्य अपनी छोटी सी बुद्धि से उसे समझने तथा उसकी सत्ता की कपोल कल्पना सिद्ध करने का दावा किस आधार पर कर सकता है।


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