भावना क्षोभ से मुक्ति अर्थात् रोग से छुट्टी

December 1978

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अमेरिका के न्यूजर्सी शहर में अपनी प्रैक्टिस करने वाले डॉ0 नारमन वीसेण्ट पीले एक चिकित्सक होने के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक भी थे। इसके साथ ही वे न्यूजर्सी के एक चर्च में प्रवचन के लिए भी जाया करते थे। एक दिन वे प्रवचन समाप्त कर चर्च की सीढ़ियों से नीचे उतर ही रहे थे कि एक बेचैन युवती उनके पास आ गयी और खड़ी होकर कहने लगी- ‘‘डॉक्टर! क्या मेरे रोग का इस संसार में कोई इलाज ही नहीं है?”

प्रश्न, इतनी हड़बड़ाहट से किया गया था कि एक वारगी तो डॉ0 पीले भी चौंक उठे। फिर उन्होंने पूछा- ऐसी क्या बीमारी है तुम्हें।

युवती ने कहा कि जब भी वह चर्च में आती है तो उसकी बाँहों में बड़ी तेज खुजली से वह बेहाल हो जाती है। उसने अपनी बाँहों को उघाड़ कर बताया, उन पर लाल-लाल चकत्ते उभरे हुए थे। उस युवती ने यह भी कहा कि-यही हालत रही तो वह चर्च में आना बन्द कर देगी।

डॉ0 पीले ने कहा-हो सकता है तुम जिस कुर्सी पर बैठती हो उसमें कोई ऐसे रासायनिक पदार्थ प्रयुक्त किये गये हों जो तुम्हारे शरीर के अनुकूल न पड़ते हों।

अगर यही बात है तो मैं जब किसी दूसरे गिरजे में जाती हूँ अथवा दूसरी कुर्सी पर बैठती हूँ तब तो खुजली नहीं होनी चाहिए न। लेकिन तब भी ऐसा ही होता है-युवती ने अपनी समस्या का विश्लेषण किया।

डॉ0 पीले एक सहृदय और प्रत्येक रोगी के प्रति सहानुभूति रखने वाले चिकित्सक थे। उन्होंने युवती को यह आश्वासन बंधाते हुए कि संसार में ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका समाधान न हो, कहा- मैं तुम्हारे फैमिली डॉक्टर से बातचीत करूंगा। शायद उनसे बातचीत के दौरान ऐसा कोई सूत्र निकल आये जिससे कि तुम्हारी समस्या का समाधान हो सके।

युवती के फैमिली डॉक्टर का पता लेकर डॉ0 पीले ने उनसे संपर्क किया तो पता चला कि उस युवती को इन्टर्नल एग्जिमा था, यह खुजली किसी रोगाणु के संक्रमण से नहीं वरन् अपने आप से भीतर ही भीतर उलझते रहने के कारण उठती है प्रायः देखा जाता है कि जब कोई बात समझ में नहीं आ रही हो या बहुत कोशिश करने पर भी कोई याद नहीं आ रही हो तो हाथ अपने आप उठ कर कनपटियों को खुजलाने लगते हैं। जब रुपये पैसों की बेहद तंगी हो और उनकी सख्त आवश्यकता अनुभव हो रही हो तो हथेलियाँ खुजलाने लगती हैं। यह खुजलाहट दिमाग में होने वाली उथल-पुथल के परिणाम स्वरूप ही उठती है जब व्यक्ति मानसिक रूप से किसी द्वन्द्व या संघर्ष से गुजर रहा हो तो भी जोरों की खुजली मचती है और व्यक्ति खुजाते-खुजाते चमड़ी को लाल कर लेता है। इस तरह की खुजलाहट के कुछ विशिष्ट लक्षण होते हैं जिसके आधार पर डॉक्टर इन्टर्नल एग्जिमा को पहचानते हैं।

गिरजे में आकर ही उस युवती को इस तरह की खुजली क्यों परेशान करती है-यह जानने के लिए डॉ0 पीले ने रोगिणी को कुरेदा। आत्मीयता, स्नेह और सहानुभूति से प्रभावित हो कर उक्त युवती ने अपना सारा अतीत खोलकर रख दिया। वह किसी बड़ी फर्म में एकाउंटेन्ट के पद पर कार्य करती थी और प्रायः गोलमाल कर थोड़ा धन चुराती रहती थी। उसी युवती के अनुसार चोरी की शुरुआत बहुत छोटी रकम से की गयी थी और हर बार वह यह सोच कर पैसे चुराती थी कि वह जल्द ही इन चुराये गये पैसों को वापस रख देगी परन्तु वह ऐसा नहीं कर पायी थी।

डॉ0 पीले ने इस घटना का विश्लेषण करते हुए कहा है कि इस प्रकार उस युवती के मन में अपराध भावना घर कर गयी। जब यह चर्च में आती तो वहाँ के पवित्र वातावरण में यह भावना और उग्र हो उठती थी। परिणामस्वरूप उसकी रक्तवाहिनी की पेशियों में ऐंठन होने लगती और खुजली शुरू हो जाती।

मनः संस्थान में जमी हुई इस रोग की जड़ों को पहचान कर डॉ0 पीले ने उक्त युवती को सलाह दी कि वह फर्म के मालिक के सामने सब कुछ स्वीकार कर ले साथ ही चुराई गयी रकम को अदा करना भी शुरू कर दे। युवती ने नौकरी छूटने का डर बताया तो डॉ0 पीले ने ढाढ़स बंधाया-हो सकता है तुम्हारी फर्म का मालिक तुम्हारी ईमानदारी और सच्चाई से प्रभावित होकर तुम्हें नौकरी से न हटाये, पर एक क्षण को यह मान भी लें कि तुम्हें नौकरी से हटा दिया तो तुम्हें अन्यत्र भी नौकरी मिल सकती है। नौकरी खो देने से उतनी क्षति नहीं होगी जितनी की अपनी आत्मा और आदर्श को खोने से हो रही है।

बात समझ में आ गयी और युवती ने अपने मालिक के पास जाकर सब कुछ कह दिया। वही हुआ जिसकी सुखद सम्भावना डॉ0 पीले ने बतायी थी। अर्थात् मालिक ने उसकी सच्चाई, ईमानदारी और नैतिक मूल्यों के प्रति उदित हुई दृढ़ निष्ठा से प्रभावित होकर उसके खिलाफ कोई कानूनी कार्यवाही नहीं की। इस क्षमा से युवती का हृदय और पश्चात्ताप विदग्ध हुआ तथा उसने स्वयं ही वह पद छोड़ दिया। इस पश्चात्ताप और प्रायश्चित के परिणामस्वरूप आयी भावनाओं में शुद्धि के कारण युवती को दुबारा फिर कभी खुजली नहीं उठी। इसका कारण यह था कि उसका भावना-जन्य क्षोभ समाप्त हो चुका था।

शरीर की तमाम पेशियाँ स्नायु मण्डल द्वारा संचालित होती हैं। छोटी-मोटी स्नायुओं का एक पूरा जाल मनुष्य शरीर में फैला हुआ है जिसका नियन्त्रण मस्तिष्क से होता है। कुछ स्नायु ऐच्छिक होते हैं, जिनका इच्छानुसार उपयोग होता है जैसे चलना-फिरना या कोई वस्तु पकड़ना छोड़ना। यह कार्य यद्यपि पेशियों द्वारा ही होते प्राप्त करती हैं। इन ऐच्छिक स्नायुओं के अतिरिक्त एक दूसरे प्रकार के स्नायु भी होते हैं जिन्हें अनैच्छिक कहा जाता है। इन पर मनुष्य का कोई अधिकार नहीं होता और ये हृदय के धड़कने, नाड़ियों के फड़कने तथा आँतों के कंपने जैसा कार्य सम्पन्न करते हैं।

इन अनैच्छिक स्नायुओं का नियन्त्रण मस्तिष्क के उस केन्द्र से होता है जिसे ‘हायपोथैल्मस’ कहते हैं। इसी केन्द्र से एक नलिकाविहीन ग्रन्थि भी सम्बन्धित रहती है जिसे पिट्यूटरी ग्रन्थि कहते हैं। यह ग्रन्थि शरीर रक्षा, स्वास्थ्य सुरक्षा और मानसिक संतुलन को बनाये रखने में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका प्रतिपादित करती है। पिट्यूटरी ग्रन्थि का आकार यद्यपि एक चने के दाने के बराबर होता है परन्तु यह अन्य नलिकाविहीन ग्रन्थियों का भी नियन्त्रण करती है। डॉ0 पीले ने जिस युवती का मानसोपचार कर ‘एन्टर्नल एग्जिमा’ ठीक किया था वह स्नायुजन्य विकार के कारण ही उत्पन्न हुआ था और भावनाक्षोप समाप्त होते ही स्वतः ही ठीक भी हो गया।

शरीर के स्वास्थ्य संरक्षण का दायित्व पिट्यूटरी ग्रन्थि ही मुख्य रूप से सम्हालती है। डॉ0 एच॰ सैले ने अपनी शोधों द्वारा यह पता लगाया। यह ग्रन्थि खास तौर से उस समय ज्यादा कमजोर हो जाती है जब व्यक्ति के भीतर भावनात्मक द्वन्द्व मानसिक उथल-पुथल मची हुई हो और ऐसी स्थिति में पेशियों की ऐंठन से लेकर त्वचा विकार, हृदय रोग, पाचन विकार, रक्तचाप से लेकर हमेशा बना रहने वाला सिर दर्द तक पैदा हो सकता है। यह तो सभी जानते हैं कि शरीर के समीप अंग-प्रत्यंगों का संचालन मस्तिष्क द्वारा भेजे गये निर्देशों से ही होता है। भावनाओं के कारण मस्तिष्क पर अवांछनीय दबाव बना रहेगा तो यह निश्चित ही है उसकी प्रतिक्रिया शरीर पर भी हो। अधिकांश रोगों के मूल में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से भावना क्षोभ ही पाया गया है, भले वह कोई दुराव छुपाव का भाव हो अथवा आक्रोश क्रोध का भाव।

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