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महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। महाराज युधिष्ठिर एक छत्र सम्राट के रूप में अभिषित हो गये। शासन व्यवस्था का सुचारु रूप बन गया और प्रजा में सुख-शांति, समाज में सुव्यवस्था तथा परिवारों में सुख सौहार्द्र बढ़ने लगा। इसके बाद श्रीकृष्ण अपने दायित्वों को पूरा हुआ जान द्वारिका की ओर चल पड़े। द्वारिका मार्ग में मीलों लम्बा मरुस्थली क्षेत्र पड़ता था। उसी क्षेत्र में पंचाग्नि तप करते हुए मुनि उत्तंक रह रहे थे।
श्रीकृष्ण ने उत्तंक मुनि की पूजा अर्चना की, उन्हें प्रणाम किया। मुनि ने भी उनका यथेष्ट आदर-सत्कार किया। मुनि ने श्रीकृष्ण से कुशल क्षेम पूछा। अन्त में जब श्रीकृष्ण ने कौरव पांडवों के युद्ध, कौरवों के संहार और महाभारत युद्ध में अपनी भूमिका का उल्लेख किया तो मुनि ने कहा- ‘‘मधुसूदन! एक बात मेरी समझ में नहीं आयी। कौरव तुम्हारे सम्बन्धी और प्रेमी भी। वे सभी पराक्रमी और शूरवीर भी थे। पांडवों के पास अधिक शक्ति भी नहीं थी। फिर कुरुवंश के वीर किन कारणों से नष्ट हो गये।’’
श्रीकृष्ण ने कहा- ‘‘एक तो कौरवों का सद्-विवेक जाता रहा था। राज्यमद में वे अपने दिये हुए वचनों को भूल गये थे और न्याय पथ से विचलित हो गये। मोहग्रस्त मदोन्मत्त उन कौरव वीरों को मैंने न केवल समझाया वरन् उनसे दीनता पूर्वक प्रार्थना भी की। फिर भी वे नहीं माने। न्याय और सत्य की अवहेलना करने के कारण उनका तेज नष्ट हो गया। फलतः पराक्रमी और वीर होते हुए भी उनका पतन हुआ।’’
इसके बाद अध्यात्म तत्व के कई गूढ़ विषयों पर वे देर तक चर्चायें करते रहे। चलते समय श्रीकृष्ण ने पूछा- ‘मेरे योग्य कोई सेवा हो तो बताइये।’
उत्तंक मुनि बोले- इस मरुप्रदेश में एक जल का ही अभाव है। हो सके तो उसे उपलब्ध कराइये।
भगवान श्रीकृष्ण ने तत्काल कहा- ‘‘जब भी आपको जल की आवश्यकता हो मेरा स्मरण कीजिये, आपको जल उपलब्ध हो जायेगा।’’
यह कह कर श्रीकृष्ण द्वारिका की ओर चल पड़े। पंचाग्नि तप का एक अनुष्ठान पूरा करने के बाद उत्तंक मुनि को प्यास लगी। पानी के लिए वे चारों ओर घूमने लगे। तभी उन्हें श्रीकृष्ण की बात स्मरण हो आयी। उन्होंने श्रीकृष्ण को स्मरण किया।
स्मरण के कुछ क्षणों बाद उत्तंक मुनि ने देखा कि कृष्णवर्ण, मलीन वस्त्र पहने, कुत्तों से घिरा हुआ एक चाण्डाल चला आ रहा है। उसकी आकृति से ही वीभत्सना फूटी पड़ रही थी। चाण्डाल उत्तंक मुनि के कुछ समीप आ गया तो मुनि ने देखा कि उसके हाथ में पानी से भरा एक घट है। चाण्डाल ने मुनि से कहा- ‘महर्षि! आपको प्यास से व्याकुल देखकर नन्दन ने मुझे प्रेरित किया है कि मैं आपकी सेवा में जल लेकर पहुँचूँ।’ सुनते ही उत्तंक उत्तेजित हो उठे। चाण्डाल- जन्मना शूद्र और उस पर भी यह वेष वसन्। छिः छिः- उत्तंक ने चाण्डाल को दुत्कार दिया तो जिस रास्ते वह आया था उसी रास्ते वापस चला गया। भगवान कृष्ण ने आश्वासन तो दिया था पर इसका अर्थ यह तो नहीं है कि तिरस्कृत चाण्डाल के हाथों का जल पीया जाय। यह सोचते हुए उत्तंक मुनि श्रीकृष्ण को भी बुरा-भला कहने लगे।
तभी आश्रम में श्रीकृष्ण भी प्रकट हुए। उनको देखते ही उत्तंक मुनि ने कहा- ‘केशव! प्यासे ब्राह्मण को इस प्रकार जल देना आपके लिए शोभनीय नहीं है।’
श्रीकृष्ण ने बड़े ही मधुर शब्दों में कहा- महात्मन् आप तो तपःपूत सिद्ध आत्मा हैं। आपके लिए कौन व्यवहार्य और कौन त्याज्य। सबके प्रति समदृष्टि रहनी चाहिए। यही आत्मसिद्धि का आधार है। सबके प्रति आत्मभाव और समता की दृष्टि ही अमृत आनन्द की पात्रता उपलब्ध कराती है आप में वह पात्रता विकसित हुई है अथवा नहीं यही जानने के लिए देवराज इन्द्र इस वेष में आपके सामने अमृत घट लेकर उपस्थित हुए थे। किन्तु समदृष्टि के अभाव में आप अमृतपान के सौभाग्य से वंचित रह गये। पहले तो देवराज इन्द्र अमृत देने के लिए तैयार ही नहीं हो रहे थे। बार-बार अनुरोध करने पर इस ढंग से परीक्षा लेने के बाद वे इस शर्त पर तैयार हुए। खेद है कि आपने अमृत ग्रहण नहीं किया।’
वस्तुस्थिति से अवगत होकर उत्तंक मुनि को भी अपनी अपात्रता पर ग्लानि हुई। श्रीकृष्ण ने उन्हें वर दिया कि जिस समय आप पानी की इच्छा करेंगे उसी समय बादल मरुभूमि में पानी बरसा कर आपको स्वादिष्ट जल देंगे।