अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय का समग्र अनुसंधान

December 1978

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मनीषियों के परामर्शों का सार एक ही है कि ‘‘मनुष्य सद्भाव सम्पन्न बने-सद्ज्ञान का वैभव बटोर, सत्कर्मों का पुण्य कमाये और सज्जनोचित जीवन जिये।’’ यह सब कैसे बन पड़े- इसके उत्तर में एक ही बात कहीं जा सकती है कि अध्यात्म दर्शन की आस्थाएं अन्तःकरण में जमाई जाय और धर्म धारणा को स्वभाव अभ्यास का अंग बनाया जाय। दो पहियों की गाड़ी इन्हीं दो पटरियों पर ठीक तरह लुढ़कती है। सम्पदा और सुविधा को जितना महत्व दिया जाता है उतना ही चेतना का स्तर परिष्कृत करने के लिए अध्यात्म और धर्म को जीवन की दिशा धारा माना जाय और उन्हें प्रगति एवं प्रसन्नता के लिए अनिवार्य माना जाय।

इस संदर्भ में अपने समय की दो कठिनाइयाँ हैं एक तो धर्म और अध्यात्म में इतनी अधिक विकृतियाँ भर गई हैं कि उनका मूलस्वरूप ही अस्त व्यस्त हो गया है। जो है वह न तो अपनी उपयोगिता सिद्ध कर पाता है और प्रामाणिकता के सम्बन्ध में जन सन्देहों का निवारण। ऐसी दशा में विवेकबुद्धि उसे कैसे अपनाये? दूसरी कठिनाई यह है कि विज्ञान के साथ पनपा हुआ भौतिक दर्शन, अपना मन्तव्य भोगवाद के पक्ष में प्रस्तुत करता है। प्रत्यक्षवाद के अनुसार शरीर ही सब कुछ है, इसलिए इसी की सुविधाओं को प्रधानता मिलनी चाहिए। ईश्वर, आत्मा का अस्तित्व विज्ञान ने स्वीकार नहीं किया। ऐसी दशा में पुण्य परमार्थ की जड़ें भी खोखली हो जाती हैं और आदर्शवादिता अपनाकर प्रत्यक्ष स्वार्थों में कमी करने की बात भी बेतुकी ठहरती है। चार्वक ने ‘ऋणं कृत्वा धृतं पिवेत्’ की नीति को बुद्धिमत्ता बताया था और येन-केन प्रकारेण ‘यावज्जीवेन्’ सुखजीवेन् की नीति अपनाने के लिए कहा था। उस समय एक दार्शनिक की ही यह उक्ति थी और आस्था युग में मान्यता प्राप्त न कर सकी। किन्तु आज तो विज्ञान का राजकुमार बुद्धिवाद पूरे बल समर्थन से उसी नीति को सही बताता है। जब प्रत्यक्षवाद के अन्यान्य प्रतिपादन सर्वमान्य हो रहे हैं तो जीवन दर्शन के क्षेत्र में भी स्वार्थवादिता को प्रश्रय क्यों न मिले? परिणाम सामने है-हर क्षेत्र में संकीर्ण स्वार्थ परता बढ़ रही है फलतः अनुदारता और निष्ठुरता की प्रवृत्ति लोक नीति बनती जा रही है। शोषण, उत्पीड़न, अपहरण, अनाचार, अत्याचार और अपराधों की अभिवृद्धि इतनी तेजी से हो रही है कि वातावरण का विषाक्त प्रदूषण मनुष्यता के लिए प्राण घातक घुटन पैदा किये दे रहा है। मत्स्यन्याय और जंगली कानून से संत्रस्त मानव समाज को आज जितना त्रास मिल रहा है उतना भूतकाल में कदाचित कभी भी नहीं मिला था। इसके लिए राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक कारणों को दोषी ठहराया जाता है, पर वस्तुतः आस्था संकट ही युग विभीषिकाओं का एकमात्र कारण है। उसी उद्गम से अनेकानेक विग्रहों और संकटों की उत्पत्ति हो रही है।

हर क्षेत्र में बढ़ती हुई समस्याओं और विपत्तियों के निवारण में मूर्धन्य प्रतिभाएं जुटी हुई हैं। अनेकानेक उपाय-उपचार भी हो रहे हैं, पर जितना जोड़ते हैं उससे भी अधिक टूटने का दुर्भाग्य ही पल्ले पड़ता है। शान्ति के समाधान आज निकले या हजार वर्ष बाद उनका स्वरूप एक ही होगा कि जनमानस पर छाये हुए आस्था संकट का निराकरण किया जाय। इस निराकरण के दो ही उपाय हैं-चिन्तन में अध्यात्म तत्वज्ञान का और व्यवहार में धर्मधारणा का समावेश। इस प्रयास की उपेक्षा जब तक होती रहेगी तब तक उज्ज्वल भविष्य की आशा मृगतृष्णा ही बनी रहेगी।

धर्म और अध्यात्म की पुनः प्राण प्रतिष्ठापना के मार्ग में दो बाधाएं ही इन दिनों प्रमुख हैं। इस महान तत्व ज्ञान का विकृत स्वरूप और प्रत्यक्षवाद द्वारा उत्कृष्टता वादी दर्शन की अवमानना। इन दो मोर्चों पर जूझा जा सके तो ही आगे का पथ प्रशस्त होगा अन्यथा अवरोधों की चट्टानें रास्ता रोक कर ही खड़ी रहेंगी। इन्हें कैसे हटाया जाय? इस प्रश्न का उत्तर एक ही है कि दोनों ही क्षेत्रों की भ्रांतियों का निराकरण करने के समर्थ तन्त्र खड़ा किया जाय। दर्शन का उत्तर दर्शन से, तर्क का उत्तर तर्क से और विज्ञान का उत्तर विज्ञान से ही दिया जा सकता है। आज की परिस्थितियों में शास्त्र प्रमाण एवं आप्त वचन पर्याप्त नहीं रहे। उनके पीछे समर्थ प्रतिपादन चाहिए। ऐसे समर्थ जिनके तर्क, तथ्य, विज्ञान की साक्षी एवं पुष्टि उपलब्ध हो।

अपने समय का यही सबसे बड़ा काम है। इसके लिए ऐसा अनुसंधान तन्त्र खड़ा करना होगा जो धर्म और दर्शन के शाश्वत स्वरूप को प्रस्तुत कर सके और उसकी उपयोगिता एवं प्रामाणिकता से बुद्धिवाद को पुनर्विचार के लिए विवश कर सके। अध्यात्म विज्ञान के तीन अंग है। (1) परोक्ष सत्ता का अस्तित्व (2) आस्थावादी तत्व-दर्शन (3) साधना विज्ञान का प्रतिफल। इन तीनों को विज्ञान क्षेत्र में पिछले दिनों मान्यता नहीं दी है। फलतः नास्तिकवाद का पथ सबल हुआ है और अनास्थावादी आचरणों ने जोर पकड़ा है। नया अनुसंधान तन्त्र ऐसा खड़ा होना चाहिए जो प्रत्यक्षवाद के प्रत्येक अनास्थावादी प्रतिपादन को चुनौती दे सके और उस क्षेत्र में छायी हुई भ्रान्तियों को परास्त कर सके। आज इन प्रतिद्वन्द्वी प्रयत्नों की इतनी आवश्यकता है जिसे मानवी भविष्य को बनाने-बिगाड़ने की दृष्टि से सर्वोपरि महत्व का माना जा सकता है।

इसके लिए समर्थ अनुसंधान तन्त्र खड़ा करना होगा। दर्शन और विज्ञान के प्रस्तुत प्रतिपादनों का पुनः निरीक्षण उसका एक पक्ष होगा, दूसरा होगा प्राचीन प्रगतिशीलता के उन आधारों को खोज निकालना जिनके सहारे अपनी महान उपलब्धियाँ समस्त संसार पर सुख समृद्धि के उपहार बिखेरती रही हैं। अनुसंधान का दूसरा पक्ष वह है जिसमें धर्मानुष्ठानों और साधना प्रयोगों के सम्बन्ध में यह जाँच पड़ताल की जा सके कि उन पर किया गया श्रम अभीष्ट परिणाम उत्पन्न करता है या नहीं। व्यायाम से लेकर कृषि कर्म तक की हर श्रम साधना का जब प्रतिफल सामने आता है तब आत्म साधना पर किया गया श्रम ही क्यों संदिग्ध रहना चाहिए? साधना का प्रतिफल यदि अनिश्चित रहता है तो उसके कारण दो ही हो सकते हैं या तो वह विधि विज्ञान ही कीलतडडडडड है अथवा उन उपचारों को कार्यान्वित करने में कहीं भूल है। इस संदर्भ में ऐसे निष्कर्ष सामने आने चाहिए जो अनिश्चितता के कारण उत्पन्न अश्रद्धा का, अपेक्षा उदासीनता का अन्त कर सकें।

प्राचीनकाल की ऋषि परम्परा में शोधन, सृजन और शिक्षण की त्रिवेणी का संगम था। एकान्त वास, विशुद्ध शोध प्रयोजनों के लिए होता था। ताकि बिना ब्राह्म विक्षोभ के एकाग्र मनःस्थिति में अनुसंधानों का क्रिया-कलाप ठीक तरह सधता रहे। भौतिक विज्ञान में भी अन्वेषणकर्त्ताओं को ऐसी ही सुविधा दी जाती है। सृजन में लोकोपयोगी सभी सत्प्रवृत्तियों का स्वरूप निर्धारण आता है। साहित्य सृजन से लेकर चिकित्सा-उपचार, कला-शिल्प, उपकरण-रसायन आदि के अनेक प्रयोजन विनिर्मित करना ऋषि परम्परा का दूसरा आधार रहा है। तीसरा कार्य था-शिक्षण। इसमें बालकों के लिए गुरुकुल, प्रौढ़ों के लिए आरण्यक, सर्व साधारण के लिए तीर्थाटन जैसे उपाय काम में लाये जाते थे। पर्वों पर विशालकाय आयोजनों की व्यवस्था इसी प्रयोजन के लिए जाती थीं। लोक-शिक्षण के और भी कितने ही कथा-प्रवचन, सत्संग जैसे प्रकार थे, जिनके आधार पर जन साधारण तक उत्कृष्टता का आलोक पहुँचता रहता था। यही वह ऊर्जा थी जिसके कारण इस देश का प्रत्येक नागरिक कमल पुष्पों की तरह खिलता और महकता देखा जाता था।

युगान्तरीय चेतना उत्पन्न करने के लिए जिस अनुसंधान की आवश्यकता है उसके भी तीन पक्ष ही होंगे। शोध, सृजन और प्रशिक्षण। इन तीनों ही प्रयोजनों को पूरा करने के लिए ब्रह्मवर्चस् आरण्यक के रूप में ऋषि परम्परा को पुनर्जीवित किया गया है। अखण्ड-ज्योति ने विज्ञान और अध्यात्म के अनुसंधान का कार्य सन् 65 से हाथ में लिया है। एक व्यक्ति के द्वारा किये गये अध्ययन अनुसंधान का ही वह प्रतिफल है जो पत्रिका के पृष्ठों पर अनवरत क्रम से प्रकाशित होता रहा है। उससे बुद्धिवादी पक्ष को एक नई दिशा, चेतना और प्रेरणा मिली है। इन प्रतिपादनों से बढ़ती हुई अनास्था पर अंकुश लगाने में छोटी, किन्तु महत्वपूर्ण सफलता मिली है। प्रस्तुत प्रतिपादनों से तर्क प्रमाण और प्रत्यक्ष को ही सब कुछ मानने वाले वर्ग को नये सिरे से सोचने के आधार मिले हैं और उन्होंने यह अनुभव किया है कि पिछली पीढ़ी के तथ्यान्वेषी धर्म और अध्यात्म के सम्बन्ध में जिस तरह सोचते थे वह तरीका अब उपयुक्त नहीं रहा। विज्ञान बहुत आगे बढ़ गया है, उसने बचपन से आगे बढ़कर प्रौढ़ता में प्रवेश पाया है, फलतः चेतना का अस्तित्व और उसकी सामर्थ्य के सम्बन्ध में उपलब्ध नये तथ्यों को ध्यान में रखना होगा। अखण्ड ज्योति के पृष्ठों पर छपने वाली सामग्री ने न केवल भारत वरन् समस्त विश्व के बुद्धि जीवियों के सामने अधिक प्रमाण सामग्री उपस्थित की है जिसे न तो उपेक्षित किया जा सकता है और न अप्रामाणिक ठहराया जा सकता है। इस प्रस्तुतीकरण से उन लोगों का पक्ष सबल हुआ है जो आस्तिकता को उसके साथ जुड़ी हुई आध्यात्मिकता और धार्मिकता को मनुष्य के लिए उतनी आवश्यक बताते हैं जितनी कि आहार-विहार एवं शिक्षा आदि दैनिक प्रयोजनों में प्रयुक्त होने वाले सुविधा साधन।

अखण्ड-ज्योति के संचालक सूत्र एक व्यक्ति के साथ गुँथे हुए हैं। मनुष्य आखिर मनुष्य ही है। उसकी सामर्थ्य सीमित और अस्तित्व, काल के सीमा बन्धनों में प्रतिबन्धित। ऐसी दशा में युग की आवश्यकता पूरी कर सकने योग्य समर्थ तन्त्र ऐसा होना चाहिए जो व्यक्ति की सत्ता तिरोहित हो जाने पर भी अपने प्रयासों को निर्वाध गति से अग्रगामी बनाये रह सके। भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में कितनी ही प्रतिभाओं का उदय अस्त होता रहा है वे अपना अपना योगदान देकर अनुसंधान की धारा को अग्रगामी बनाती रही हैं। उपलब्धियों का सिलसिला अनवरत गति से चलता रहा है और वहाँ आ पहुँचा है जहाँ प्रकृति पर अधिकार पाने और आधिपत्य जमाने के मनसूबे बहुत हद तक पूरे होते दीखते हैं। अध्यात्म अनुसंधान की ऋषि परम्परा का पुनरुत्थान अब नये सिरे से आरम्भ हुआ है। छुट-पुट प्रयास अन्यत्र भी होते हैं, पर जिस सुनियोजित आधार को अपना कर अध्यात्म तत्वज्ञान के अनेकानेक पक्षों का ऊहापोह करने के लिए अखण्ड-ज्योति ने कदम उठाया है उसे अपने ढंग का अनुपम, अभूतपूर्व एवं अद्भुत ही कहा जा सकता है। उसके छोटे से प्रयास को भी विज्ञ समाज में एक स्वर से सराहा गया है।

समय आ गया है कि इस शुभारम्भ को, एकाकी प्रयत्न तक सीमित न रहने देकर एक शोध तन्त्र के कन्धे पर डाला जाय। इन दिनों यही हो रहा है। हरिद्वार का ब्रह्मवर्चस् इस महान उत्तरदायित्व को अपने कन्धों पर उठाने जा रहा है। अब तक अध्यात्म दर्शन के पक्ष में संसार भर में बिखरे हुए प्रमाणों का एकत्रीकरण करके उसे सुसंबद्ध रूप से जन साधारण के सन्मुख प्रस्तुत किया जाता रहा है और बताया जाता रहा है कि आस्तिकवादी मान्यताओं के पक्ष में मात्र श्रद्धा ही आधार नहीं है तथ्यों का समर्थन भी इतना है कि उथली नास्तिकता की उछल-कूद को चुनौती दी जा सके।

यह सुखद समाचार पूरे अखण्ड-ज्योति परिवार में बहुत ही उत्साह और आनन्द के साथ सुना जायगा कि ब्रह्मवर्चस् आरण्यक अध्यात्म तत्व ज्ञान के दार्शनिक एवं प्रयोगात्मक दोनों ही पक्षों का उत्तरदायित्व वहन करने की स्थिति में पहुँच रहा है। संसार भर में आस्तिकवाद की अनेक धाराओं के पक्ष-विपक्ष में जो कुछ कहा जाता रहा है तुलनात्मक रूप से उसका अध्ययन किया जायगा और देखा जायगा कि ऋषि परम्परा के साथ उसकी संगति कहाँ खाती है। प्रत्यक्षवादी तथ्य अध्यात्म आस्थाओं की उपयोगिता, अनुपयोगिता के सम्बन्ध में किस आधार पर, किस नतीजे पर पहुँचते हैं?

विश्वास किया जाना चाहिए कि आत्मवादी तत्व सत्य की सुदृढ़ आध्यात्मिक भित्ति पर खड़े हैं। और वे उथले अनास्तित्ववाद के आक्रमण को निरस्त करने में पूरी तरह समर्थ हो सकेंगे। जिस पथ का प्रस्तुतीकरण और समर्थन करने वाला कोई हो ही नहीं, उसे हारा हुआ ठहराने में क्या लगता है? बुद्धिवाद की अदालत में अस्तित्ववाद को हारा हुआ इसलिए ठहराया जाने लगा है कि उसके पक्षधरों ने समय की चुनौती स्वीकार करने में कन्नी काट ली और पुरातन श्रद्धावाद की ही आत्मरक्षा कर सकने की बात सोच ली। जबकि तर्क का तर्क से तथ्य का तथ्य से, प्रमाण का प्रमाण से, प्रत्यक्ष का प्रत्यक्ष से उत्तर देना आवश्यक था। ‘विषास्य विष मौषधम्’ और ‘शठें शाष्ठं समाचरेत्’ की उक्तियाँ भी निरर्थक नहीं है। सोचा यह भी जाना चाहिए था।

सही कदम देर से उठे तो भी उन पर सन्तोष किया जा सकता है। जो कार्य आज से दो सौ वर्ष पूर्व आरम्भ होना चाहिए था, वह अब हो रहा है। यह विलंब अखरा तो बहुत और उसने हानि भी बहुत पहुँचायी पर यह भी अच्छा ही है कि देर-सवेर में सही कदम उठा लिए गए और अखण्ड-ज्योति के शोध-प्रयत्न चल पड़े। ब्रह्मवर्चस् के रूप में उसकी सुनियोजित प्रगति हर दृष्टि से सन्तोषप्रद है। इन प्रयत्नों के अन्तर्गत अध्ययन और अनुसन्धान के प्रयत्न दार्शनिक पृष्ठभूमि पर चलेंगे। इसके लिए उपयुक्त व्यक्ति, साहित्य एवं साधन जुटाये जा रहे हैं।

अनुसंधान का दूसरा पक्ष है- प्रत्यक्ष परीक्षण। इसके लिए एक प्रयोगशाला स्थापित की जा रही है, जिसमें प्रस्तुत प्रयोजन के लिए अन्वेषण करने में जिन यन्त्र उपकरणों की आवश्यकता है उन्हें मंगाया जुटाया जा रहा है। ‘यज्ञ चिकित्सा’ को इस शोध प्रयत्न में प्राथमिकता दी गयी है। यज्ञ की किस प्रक्रिया का मानवी स्वास्थ्य पर, मस्तिष्क संस्थान पर एवं अन्तराल पर क्या प्रभाव पड़ता है। उसका कारण और आधार क्या है? इसका अन्वेषण मशीनों द्वारा किया जायगा। वनस्पति के गुण स्वभाव में सामर्थ्य एवं बुद्धि में यज्ञोपचार की क्या प्रतिक्रिया होती है? पशु-पक्षी और कीट-पतंग उस विशिष्ट ऊर्जा में किस प्रकार, कितनी मात्रा में प्रभावित होते हैं, वातावरण पर उसकी क्या प्रतिक्रिया होती है? जीवाणुओं और विषाणुओं की यज्ञीय ऊर्जा से क्या लाभ, क्या हानि होती है? जैसे अनेक शोध प्रयत्नों को उसी आधार पर किया जायगा, जिन पर वैज्ञानिक प्रयोगशालाएं अपने अन्वेषण कार्य चलातीं हैं और अनेक उलट-पुलट करने के उपरान्त किसी निष्कर्ष पर पहुँचती हैं।

उपासना के अनेक पक्ष हैं, जिनमें ध्यान प्रक्रिया अतीव शक्तिशाली मानी जाती है। प्रत्याहार से लेकर समाधि तक के अनेक स्तर ध्यान योग के अन्तर्गत ही आते हैं शरीर के समस्त अवयवों पर जिस प्राण चेतना का नियन्त्रण है उसे प्राणायाम द्वारा इस योग्य बनाया जा सकता है कि किस प्रकार शरीर के सूक्ष्म संस्थानों के उससे प्रभावित एवं परिवर्तित किया जाय। मस्तिष्क की जादुई पिटारी में इतने अद्भुत क्षेत्र हैं, जिन्हें अच्छा, खासा ‘तिलस्म’ कह सकते हैं। मानसिक शक्तियों के विकसित करने में ध्यान योग की असाधारण भूमिका है। व्यक्तित्व में अनेक निकृष्टताएं एवं उत्कृष्टताएं उत्पन्न करने वाले कोष्टक हैं। उन तक शल्य उपचार की पहुँच भी नहीं हो सकती और औषधि उपचार भी उतना काम नहीं करता। इन संस्थानों का शमन एवं उत्तेजन ध्यान उपचार द्वारा ही सम्भव है।

त्राटक, खेचरी मुद्रा, नादानुसंधान, बंध, मुद्रा आदि के माध्यम से ऐसी उपलब्धियां पाई जा सकती हैं जो मानवी चेतना के विकास परिष्कार की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत कर सकें। हठयोग, लययोग, प्राणयोग, ध्यानयोग, राजयोग, ऋजुयोग आदि की कितनी ही ऐसी साधनाएं हैं जिनका उल्लेख उपासन ग्रन्थों में तो मिलता है पर उनकी व्यावहारिक अभ्यास पद्धति के अनुभवी मार्गदर्शक कहीं खोजे नहीं मिलते, ऐसी दशा में एकमात्र उपाय यही रह जाता है कि नये सिरे से उनका अनुसंधान किया जाय और देखा जाय कि इनमें से किस साधना से, किस स्थिति के व्यक्ति को, क्या प्रयोजन पूरा कर सकने में कितनी सहायता मिलती है? भूतकाल के अनुभवी आचार्य भी किसी निष्कर्ष पर शोध प्रक्रिया के सहारे ही पहुँचे होंगे। अब यदि वे परम्पराएं लुप्त हो गई तो क्यों न उसी अनुसन्धान प्रक्रिया को पुनः अपनाया जाय जिसे अपना कर शास्त्रकारों ने उपयोगी निष्कर्ष निकाले थे।

तन्त्र विज्ञान का भी योग की है तरह अपना स्वतन्त्र क्षेत्र है। योग में मानसिक शक्तियों के सहारे संकल्प बल का उपयोग करके उपयोगी उपलब्धियाँ प्राप्त की जाती हैं। तन्त्र में वही कार्य शरीरगत प्राण-ऊर्जा के माध्यम से सम्पन्न किये जाते हैं। तन्त्र वह भौतिकी है जिसमें आत्म बल का कम और स्नायु संस्थान में प्रवाह मान विद्युत शक्ति का अधिक उपयोग किया जाता है। मध्यकाल के अज्ञानान्धकार युग में तन्त्र द्वारा उद्भूत शक्ति का उपयोग मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि जघन्य उद्देश्यों के लिए किया जाने लगा और उसके साधक अमर्यादित होकर अघोर एवं अनैतिक आचरण करने लगे, फलतः उस अशुभ उपचार ने पूरे विज्ञान को निष्कृष्ट, निंदित बना दिया। वस्तुतः वह एक अत्यन्त शक्तिशाली विज्ञान है। दुरुपयोग करने पर तो आग, बिजली जैसी उपयोगी शक्तियाँ भी अनिष्ट कर सकती हैं। लाभ तो सदुपयोग से उठाया जाता है। यही बात तन्त्र विज्ञान के सम्बन्ध में भी है। प्राण ऊर्जा के सहारे भौतिक प्रयोजनों को और संकल्प शक्ति के उत्कृष्ट उपचार से आत्मिक उत्कर्षों को उपलब्ध किया जा सकता है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। प्राचीन काल में आगम और निगम का योग और तन्त्र का वैसा ही समान सम्मान था जैसा कि इन दिनों मनोविज्ञान एवं पदार्थ विज्ञान का उपयोग अपने-अपने ढंग से अपने-अपने क्षेत्रों में बिना किसी टकराव के होता रहता है। आज तो सब कुछ दल-दल में फंसा हुआ है कुछ भी निभ्रान्त नहीं रहा, ऐसी दशा में शोध अनुसन्धान के सहारे अति महत्वपूर्ण तथ्यों का नये सिरे से पर्यवेक्षण करना ही वह उपाय है जिसके सहारे गुमे हुए को प्राप्त कर सकना फिर से सम्भव हो सकता है।

शोध के इन विषयों से भी आगे बढ़कर है ‘यज्ञ विज्ञान’। उस उपचार के अनेकानेक प्रयोग और अनेकानेक पक्ष प्रयोजन हैं। शरीर पर, मन पर, अन्तःकरण पर, स्वभाव पर, चरित्र पर उनका असाधारण प्रभाव पड़ता है। रोगों का निवारण और आरोग्य का अभिवर्धन, मनोविकारों का शमन, बौद्धिक प्रतिभा का सम्वर्धन जैसे व्यक्तित्व को सुगठित करने वाले कितने ही कार्य यज्ञ से हो सकते हैं।

वातावरण के परिशोधन, अनुकूलन की उसमें विशिष्ट क्षमता है। विशेष प्रयोजन की पूर्ति के लिए उनके अपने प्रयोग हैं। प्राचीनकाल में तो उससे वर्षा तक अनुसंधान किया जाता था। उपयोगी वनस्पतियों और प्राणियों का उन्नयन उनके द्वारा सम्भव होता था। अब उस प्रसंगों की नये सिरे से खोज करनी होगी। उन दिनों के प्रयोक्ता हव्य, मन्त्र, विधान आदि इन दिनों अलम्य हैं जो कुछ हैं उनके सहारे कुछ तो प्राप्त किया जा सकता है। प्रयत्नशीलता के सहारे क्रमिक प्रगति की दिशा में आगे तो बढ़ा जा सकता है।

शोध प्रयत्नों में यह समग्र अनुसंधान के उपयुक्त साधन जुट सकें तो इस बात की पूरी संभावना है कि यज्ञ पैथी संसार भर में प्रचलित अर्वाचीन चिकित्सा पद्धतियों में सर्वोत्तम सिद्ध हो सकती है, न केवल शारीरिक वरन् मानसिक विकृतियों का भी उसके सहारे समाधान हो सकता है। शरीर से निरोग, मन से संतुलित, अन्तःकरण से सुसंस्कृत मनुष्य वैसा ही हो सकता है, जैसा कि अध्यात्म की भाषा में ‘देव’ शब्द के अन्तर्गत उल्लेख किया गया है। नवयुग में मनुष्य में देवत्व के उदय की आशा की गयी है। यदि यज्ञोपचार सफल होता है तो उस प्रकार के नव निर्माण में कोई सन्देह नहीं रह जायगा।

ब्रह्मवर्चस् के अन्तर्गत अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय को जो शोध प्रक्रिया आरम्भ की जा रही है उसमें अध्ययन और अनुसंधान, तत्वदर्शन और पदार्थ विज्ञान का परिपूर्ण समन्वय है। शुभारम्भ इसी बसन्त पर्व से किया जा रहा है। मिशन के जन्म से लेकर अब तक हर बसन्त पर्व विश्व मानव के लिए हर बार एक नया अनुदान लेकर अवतरित होता रहा है। इस बार के इस शुभारम्भ को अब तक के समस्त दुस्साहसों में अग्रणी कहा जा सकता है। इसकी उपलब्धियों की दूरगामी सम्भावनाओं का स्वर्णिम चित्र जब सामने आता है तो उल्लास की ज्योति से दोनों आँखें चमकने लगती हैं।

इन शोध निष्कर्षों के निष्कर्ष अखण्ड-ज्योति के पृष्ठों पर प्रस्तुत होते रहेंगे। इस दृष्टि से पत्रिका की उपयोगिता और गरिमा अगले दिनों पहले की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ जायगी। यह प्रसंग प्रेमी परिजनों के लिए हर दृष्टि से उत्साहवर्धक और आनन्ददायक ही होगा।

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