प्रार्थना के सही स्वरूप से अभीष्ट प्राप्ति

December 1978

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प्रार्थना जीवन के वास्तविक आधार के स्मरण का अभ्यास क्रम है। सामान्यतः लोग अपनी दैनिक व्यस्तता के बची उस चेतन-सत्ता को भुलाये रहते है, जिसका एक स्फुल्लिंग ही इन समस्त क्रिया-व्यापारों को सम्भव बना रहा है। मनुष्य अपने उस सनातन स्त्रोत को स्मरण रखे, ईश्वर के साथ अपने सम्बन्ध को ठीक तरह से समझ सके, सही प्रार्थना का प्रयोजन है।

वह सर्वव्यापी दिव्य चेतना, जो प्रत्येक क्षण हमारे अन्तःकरण में श्रेष्ठता की प्रेरणा देती रहती हैं, उत्कृष्ट जीवन, आदर्श क्रिया कलाप का बोध एवं भाव भरती रहती है, उससे अपने सम्बन्धों को जितनी ही गहराई से और स्पष्टता से समझा जा सके, जीवन को उतना ही प्रार्थनामय समझना चाहिये।

प्रार्थना के इसी अर्थ को जानने के कारण महात्मा गाँधी ने कहा था ‘‘मैं विद्वान नहीं हूँ। परन्तु मैं प्रार्थना-परायण मनुष्य होने का विनम्र दावा करता हूँ।’’

महत्वपूर्ण प्रार्थना की पद्धति नहीं प्रेरणा और प्रकाश है। पद्धति का महत्व तो है, पर वह प्रेरणा और प्रकाश दे सकने के रूप में ही। जहाँ प्रार्थना की वास्तविक प्रेरणा और उसका दिव्य आलोक नहीं है, वहाँ कोई भी पद्धति फलप्रद नहीं हो सकती।

इंजील में कहा गया है- ‘‘जो तुम माँगते हो, सो पाते नहीं। क्योंकि तुम गलत माँगते हो।’’

डाकखाने में जाकर जलेबी और दर्जी की दुकान पर किताबें माँगने पर निराशा ही हाथ लगेगी। ईश्वर सर्व-समर्थ दाता है, यह तो ठीक है, पर वह दाता भर नहीं, विज्ञाता और पिता भी है। हमारी आवश्यकताएं वह हमसे अधिक जानता है। अतः देते समय वह विवेक से काम न लेगा, यह कल्पना करना हास्यास्पद तो है ही, खुद ईश्वर को मूढ़ या चापलूसी-पसन्द मानना है।

अतः प्रार्थना के पूर्व दो बातें तो समझ ही लेनी चाहिए। पहली यह कि ईश्वरीय अनुग्रह सत्प्रवृत्तियों, सद्भावनाओं के रूप में ही हम पर बरस सकता हैं। ईर्ष्या-द्वेष-लोलुपता-व्यसन, अहंकार, रोग-विकार को बढ़ाने वाली प्रवृत्तियाँ और सुविधाएं ईश्वर क्यों कर देगा?

दूसरी यह कि ईश्वर ने किसी एक या कुछ-एक व्यक्तियों को ही नहीं बनाया हैं। सम्पूर्ण सृष्टि की नियामक-संचालक शक्ति ही ईश्वरीय सत्ता है वह शक्ति ऐसी कोई व्यवस्था नहीं कर सकती, जिसमें नीति-न्याय की उपेक्षा हो, पक्षपात हो या दूसरों के साथ अन्याय हो। अतः इस विश्व-व्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर देने वाली प्रार्थना से अनुदान नहीं ईश्वर की अप्रसन्नता ही प्राप्त हो सकती है। मैं अनीति कर रहा हूँ तो भी मुकदमे में जीत जाऊँ, दूसरे चाहे जितना परिश्रम और पुरुषार्थ करें, पर मुझसे सदा पीछे ही रहें, मैं आलस्य-प्रमाद-दुर्व्यसन में लिपटे-डूबे रहकर भी आपकी कृपा से सबसे आगे रहूँ, सदा सफलता प्राप्त करूँ, ऐसी प्रार्थनाएँ स्वीकार करने वाले ईश्वर को क्या कहा जायेगा? स्पष्ट है कि ऐसे किसी वास्तविक ईश्वर की कोई सम्भावना नहीं है। वह तो अपने ही ओछेपन और खोटेपन से गढ़ा गया काल्पनिक ईश्वर ही हो सकता है।

प्रार्थना से यदि अनैतिक कामनाएँ भी पूरी होने लगें, तो फिर उन्हें समदर्शी कैसे कहा जायेगा? चोरी, डकैती से मुकदमे में निर्दोष छूट जाना, सट्टे, जुए में बिना कमाई का धन मिल जाना आदि आये दिन देखने को तो मिलता है और इस तरह के लाभ पाने वाले भी उसे मानते प्रभु का अनुग्रह ही हैं, किन्तु वह तो भ्रष्ट व्यवस्था में सफल हो सकने वाली कुटिलता-धूर्तता और तिकड़म का फल है, प्रभु-कृपा का नहीं। यदि बिना पढ़े, धूपबत्ती जलाकर प्रसाद चढ़ाने और हाथ जोड़ने से प्रभु या देवता प्रसन्न होकर प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करा दिया करें तो फिर पुरुषार्थ और अध्यवसाय की आवश्यकता ही क्या रह जायेगी? यदि इतनी सरलता से मनोकामनाएं पूरी होने लगें, तो कर्मफल-सिद्धान्त पूरी तरह गलत ही हो जाय।

क्या दशरथ को प्रार्थना करनी नहीं आती थी? फिर क्यों उन्हें श्रवण कुमार को मारने का फल पुत्र-शोक में बिलख कर मरने के रूप में भोगना पड़ा? भगवान राम को तो प्रार्थना की जरूरत भी न थी, इच्छा मात्र ही पर्याप्त सिद्ध होती। परन्तु छिपकर बालि को बाण मारने के फल से बचने की इच्छा उन्होंने नहीं की और द्वापर में उसी बालि द्वारा बहेलिया रूप में श्रीकृष्ण के पैर में तीर मार कर बदला लिया गया। उस विधि-व्यवस्था को दूसरों के लिए ही वे क्यों टाल देंगे?

इसका यह अर्थ नहीं कि ईश्वरीय सहायता कभी प्राप्त ही नहीं होती। निश्चय ही दैवी अनुदान प्रार्थना से अनायास ही मिलते भी देखे जाते हैं, पर तभी जब वह प्रार्थना परिष्कृत व्यक्तित्व द्वारा सदुद्देश्य से की जाय।

गज जब अपनी पूरी शक्ति लगा चुकता है और उसकी अपनी सारी सामर्थ्य समाप्त दिखने लगती है, तभी हरि उसका ग्राह उद्धार करने दौड़ते हैं।

निस्सन्देह प्रार्थना से रोग-मुक्ति, बाधाओं की समाप्ति जैसे लाभ भी मिलते हैं, पर तभी जब प्रार्थना करने वाला शुद्ध चित्त हो और उसने अपने परिश्रम-पुरुषार्थ में कोई कसर न छोड़ी हो। अपनी हर छोटी आवश्यकता की पूर्ति के लिए धूप-दीप, नैवेद्य, आरती का सहारा लेने दौड़ पड़ना और प्रार्थना के प्रत्येक अवसर पर भौतिक उपलब्धियों की कामनाएँ करते रहना प्रार्थना का स्तर गिराता और उसे अप्रभावी बनाता हैं। अनैतिक, अवांछनीय कामनाएँ प्रार्थना का अंग बनाये जाने पर, वह प्रार्थना भी प्रभु प्रार्थना नहीं, कल्पना मात्र रह जाती है। ऐसी निकृष्ट आकांक्षाओं की पूर्ति की रट ईश्वरीय - सत्ता तक पहुँच ही नहीं पाती। वह तो यों ही हवा के साथ उड़कर आकाश में अस्त-व्यस्त हो जाती है।

सदुद्देश्य प्रार्थना की आवश्यक शर्त है। आत्म कल्याण और लोकमंगल के उच्च प्रयोजनों के लिए ही दैवी-सहयोग मिल सकता है। प्रत्येक युग में महामानवों ने ऐसे ही उद्देश्यों के लिए प्रार्थना कर दैवी अनुदान प्राप्त किये हैं और भारी कठिनाइयों के बीच भी आगे बढ़ते हुए आश्चर्यजनक सफलताएँ प्राप्त की हैं। श्रेष्ठ आदर्श के लिए चाही गई सद्-बुद्धि, सद्-विवेक, सत्प्रवृत्तियाँ प्रार्थना से सहज ही प्राप्त होती रहती हैं और वही उच्च उद्देश्यों की दिशा में प्रगति का आधार बनती हैं।

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