प्यार बड़ा है या क्रूरता? मनुष्य बड़ा है या पशु? साहस बड़ा है या भय? इन प्रश्नों का उत्तर दर्शनशास्त्र के आधार पर प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाय तो उलटे उलझन में फँसना पड़ेगा। तर्क कभी इस पक्ष का समर्थन करेगा कभी उस पक्ष का। प्रमाण कभी इस पलड़े को भारी करेंगे कभी उस पलड़े को। बुद्धि की अनिश्चयात्मकता प्रसिद्ध है, वह मान्यताओं, अभिरुचियों और पूर्वाग्रहों की गुलाम होती है। भीतर स्थान जिधर ढुलकता है बुद्धि के समर्थन में जुट जाती है।
तथ्यों के निर्णय का अच्छा तरीका प्रयोग है। कुछ साहसी लोगों ने इस तरह के प्रयोग किये है कि क्या जन्मजात हिंसा प्रवृत्ति के क्रूरकर्मा पशुओं को स्नेह और सद्भावना के वातावरण के रख कर सौम्य और स्नेहिल बनाया जा सकता है। क्या वे अपनी मूल प्रवृत्ति को छोड़ कर स्नेह सौजन्य के अनुरूप अपने को बदलने के लिए तैयार हो सकते हैं। भय को साहस परास्त कर सकता है और पशुता को मनुष्यता निरस्त कर सकती है।
वन्य पशु विशेषज्ञ डेस्माँड वेकडे ने अपनी पुस्तक ‘गारा याका’ में उस मादा चीता का वर्णन किया है जिसे उन्होंने एक झाड़ी में पाया था और अपनी बेटी की तरह पाला था।
घटना क्रम इस प्रकार है कि एक दिन डेस्माँड महोदय वेचुआना लैण्ड की पूर्वी सीमा पर शाशी और लिम्पोपो के दुआवे पर निरीक्षण के लिए गये। उन दिनों नदियों के संरक्षित वन प्रदेश के वार्डन थे और वन्य पशुओं की देख भाल रखने की जिम्मेदारी उनकी थी। इस प्रयोजन की पूर्ति के इस क्षेत्र में दौरे करके की कर सकते थे।
उस दिन एक मोटे मगरमच्छ ने पानी पीते हुए चीते पर हमला किया और देखते-देखते उसका सिर चबाते हुए पानी में घसीट में ले गया। वे इस घटनाक्रम के मूक दर्शक न रहे उन्होंने गोली चलाई और पानी में धँसे हुए मगरमच्छ का काम तमाम कर दिया। पर बच चीता भी न सका उसने पानी से बाहर निकलते निकलते दम तोड़ दिया। यह मादा चीता थी उसके थनों से दूध टपक रहा था इससे स्पष्ट था कि वह नव प्रसूता है।
डेस्माँड महोदय उसके बच्चों का पता लगाने मादा के पैरों के चिन्हों के सहारे उस झाड़ी के पास पहुँचे जिसमें एक दूसरे से सटे तीनों बच्चे बैठे थे। उनकी उम्र मुश्किल से एक दो सप्ताह की ही रही होगी। डेस्माँड उन्हें उठा कर ले आये। एक को जीवित रखा जा सका। वह मादा थी। नाम रखा गया ‘गारा याका’ उसकी उछल कूद और शैतानी को देखते हुए यह नाम उनके नौकरों ने रखा था। जिसका अर्थ होता है ‘भूखे चुड़ैलों की माँ’। नाम व्यंग में रखा गया था पर पीछे वह प्रचलित हो गया वह उसी नाम से पुकारने पर उत्तर भी देती थी।
झाड़ी में से लाकर डेस्माँड ने यह प्रयोग भी किया है कि उनकी नव प्रसूत कुतिया रेक्स चीते के बच्चों को अपनी दत्तक संतान मानने लगे और दूध पिलाने तथा पालने लगे। उसने दूध तो नहीं पिलाया पर साथ-साथ रहना और अपने बच्चों के साथ खेलने देना स्वीकार कर लिया। वातावरण ने उसे दूसरी कुतिया ही बना दिया था। वह रेक्स के साथ इतनी घुल-मिल गई थी और वैसी ही आदतों में इतनी अधिक ढल गई थी कि आकृति से भले ही वह चीता की जाय प्रकृतिः कुतिया ही बन कर रह रही थी।
गारा याका अपने पालक के साथ शिकार करने जाती और कई बार तो बब्बर शेरों से उलझ जाती और उनके छक्के छुड़ाती। पालतू प्रकृति के कारण लड़ने से डरने की कमजोरी उसमें नहीं ही आने पाई। इतने पर भी मनुष्य के साथ उसका व्यवहार आजीवन सौम्य और सज्जनोचित ही बना रहा।
दो साल की होने पर गारा याका ने शैशव और किशोरावस्था पार करके यौवन में प्रवेश किया। उसमें भाव भंगिमा और हरकतों में विचित्र प्रकार का परिवर्तन दिखाई पड़ने लगा। अन्ततः उसे चीतों के बाहुल्य वाले जंगल में छोड़ दिया गया। जहाँ उसने अपना सहचर ढूँढ़ निकाला और सुहाग रात मनाने के लिए लगभग दस सप्ताह उधर ही निवास करती रही। इस बीच में समय-समय पर डेस्माँड उसकी देख-भाल करने जाते रहे उन्होंने जब भी पुकारा वह अपने प्रेमी को छोड़कर दौड़ी आई और जो आमिष उपहार उसे दिये गये उन्हें लेकर अपने साथी के पास वापिस लौट गई।
यह प्रणयकाल दस सप्ताह तक चला। साथी की आवश्यकता पूरी होने पर फिर अपने पुराने घर में उसका आना जाना आरम्भ हो गया पर यह सब अधिक दिन न चला क्योंकि पशु प्रकृति के अनुसार उसे प्रसव के लिए सघन झाड़ियों वाला एकान्त क्षेत्र ही अनुकूल पड़ता था। प्रसूतिग्रह वह बना ही रही थी कि सिंहनी ने उस पर बुरी तरह हमला कर दिया और कई जगह से घायल कर दिया। डेस्माण्ड उसकी खोज खबर बराबर रखते थे। घायल होने की बात जैसे ही पता चली वे स्टेचर पर लाद कर उसे घर लाये। जहाँ उसने दो बच्चों को जन्म दिया उनका पालन भी नाना ने उसी प्रकार किया जैसे कि अपनी वनबेटी ‘गारायाका’ का किया था।
उपरोक्त प्रयोग अफ्रीका की जायआडमसन के उस परीक्षण की शृंखला में आता है जिसमें उसने सिंहों और चीतों को खुले वातावरण में पाल कर संसार को यह बताया कि स्नेह और विश्वास की शक्ति अपरिमित है उन्हें ठीक उसी प्रकार प्रयोग किया जा सके तो बर्बरता को सौजन्य के प्रमुख नत मस्तक ही होना पड़ेगा।
ऐसा ही एक प्रयोग माइकेला का है जिसने हिंसक पशुओं को स्नेहिल प्रकृति का बनाने के प्रयोग किये और उसमें आश्चर्यजनक सफलता पाई।
अमेरिकन युवती माइकेला ने अविवाहित रहने का निश्चय किया था ताकि वह स्वच्छन्दता पूर्वक संसार के बन प्रदेशों और वनजीवों की समीपता का आनन्द ले सके। उसे वनजीवों से बहुत प्यार था, जिनमें बहुत जाति के कुत्ते, बिल्लियाँ, लोमड़ी, नेवले, तोते, बन्दर, चूहे, खरगोश, साँप, गिरगिट आदि सम्मिलित थे। आगे इस दिशा में बहुत कुछ देखने करने की आकांक्षा संजों रखी थी और यथासंभव प्रकृति के पुत्रों के सान्निध्य में रहने में वह अधिक समय लगाती भी थी।
उसे आशा नहीं थी कि इस सनक में कोई पुरुष साथी भी उसे मिल सकता है। पर भाग्य ने सहारा दिया तो वह भी मिल गया। न्यूयार्क में एक भोज में सम्मिलित हो गई तो ठीक ऐसी ही प्रकृति का युवक मिल गया नाम था आर्मान्ड डेनिस। दोनों में घनिष्ठता बढ़ी और वह इस समाधान के साथ चरम परिणति पर पहुँची कि दोनों विवाह तो करेंगे किन्तु बच्चे पैदा नहीं करेंगे। उनका विवाह वस्तुतः प्रकृति निरीक्षण के अनोखे आनन्द को दो साथियों द्वारा मिल कर अधिक हर्षोल्लास युक्त बनाने का एक उद्देश्यपूर्ण समझौता मात्र था। विवाह के बाद दोनों ने और भी अधिक उत्साह के साथ अपना शौक बढ़ाया। अंग्रेज के प्रसिद्ध फिल्म किंग सालोमनड् माइन्स में जिस चालाक लोमड़ी ने तरह-तरह के करतब दिखाये थे वह वस्तुतः डेनिस दम्पत्ति की ही पालतू थी।
इस परिवार का एक जोरदार सदस्य था अफ्रीकी तेंदुआ। जिसका नाम उन्होंने तुशुर्द रखा। यो साधारण लोग उसे चीता ही कहते थे क्योंकि आमतौर से लोग यह फर्क नहीं जानते कि चीते के मुँह पर लम्बी धारियाँ होती है, उसके बाल बड़े और कड़े होते हैं जब कि तेंदुआ के मुँह पर चित्तियाँ होती हैं और बाल मखमल जैसे मुलायम। तुशुर्द छोटा बच्चा ही मिला था। जिस प्यार और वातावरण में उसे पाला गया उसमें वह इस प्रकार ढल गया मानो कोई पालतू कुत्ता ही हो। माइकेला के पीछे वह अक्सर दुम हिलाते हुए घूमते ही देखा जाता। उछल कर अपनी मालकिन की गोद में जो बैठना उसे बहुत भाता था कभी -कभी मस्ती के जोश में आता तो उसके हाथ पैर चबाने का उपक्रम करने लगता पर क्या मजाल दाँत या पंजे की कोई खरोंच तक किसी अंग में लग जाय। उसके प्यार भरे व्यवहार ने साथ में पले हुए अन्य प्राणियों को पूर्णतया निर्भर बना दिया था, जब भी उन्हें अवसर मिलता दूर तुशुर्द कं साथ खेलने का ऐसा आनन्द लेते मानो वे एक ही जाति बिरादरी के परस्पर भाई बहिन हो।
तेंदुए पालने में सफलता प्राप्त कर लेने के उपरान्त माइकेला ने दो चीते के बच्चे पाले। चीते अपेक्षाकृत अधिक दुष्ट होते हैं जहाँ उनमें 60 मील प्रति घंटा की चाल से दौड़ सकने की क्षमता होती है वहां उनकी धूर्तता भी कम नहीं होती। शिकार को पकड़ने में उनकी स्फूर्ति जितना काम करती है इससे ज्यादा उनकी वह बुद्धि काम करती है जिसकी सूझ-बूझ शिकार को धोखे में डालकर गफलत का लाभ उठाने में आश्चर्यजनक काम करती है। चीते के बच्चे पालने में उसे रेमंड हुक नामक व्यक्ति की सहायता लेनी पड़ी जो हिन्दुस्तान में राजाओं के यहाँ रहकर चीते पालने की विद्या सीख चुका था।
इन चीते के बच्चों का नाम रखा गया लुनी और मुनी। यो वे पल गये और तुशुर्द की तरह जंजीर में बँध कर खुली जगह में घूमने के अभ्यासी भी हो गये।
झालड रियासत से सम्बद्ध श्री बद्रीप्रसाद जायसबाल को शिकार खेलते समय एक दो महीने का चीते का बच्चा मिल गया, उन्होंने उसे प्रेमपूर्वक पाला। जंजीर से बाँधे रखना पर्याप्त था, उसे पिंजड़े में बंद करने की कभी जरूरत नहीं पड़ी। जंजीर में बाँधकर नदी स्नान कराने एवं गाड़ी में बिठा कर जायसबाल उसे बाहर ले जाया करते और इस सैर सपाटे में वह प्रसन्न भी खूब होता। पीछे पालक को अपनी कठिनाइयों के कारण उसे चिड़िया घर भेजना पड़ा। वहां वे जब कभी उसे देखने जाते तब प्रसन्नता प्रकट करता और कूँ कूँ करते हुए पास आने और चाटने का प्रयत्न करता।
यह प्रयोग हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचाते हैं कि हिंसा का आतंक कितना ही बड़ा क्यों न हो वह स्नेह और सद्भाव की प्रचण्ड शक्ति के आगे नत मस्तक होकर ही रहेगा।